हरिद्वार: भारत के सांस्कृतिक इतिहास की विरासत को संजोकर रखने में उत्तराखंड राज्य का योगदान किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। उत्तराखंड राज्य में अनेकों महान विभूतियों ने जन्म लिया हैं जो आध्यात्मिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, पर्यावरण संरक्षण, कला, साहित्य, आर्थिक, देश की रक्षा एवं सुरक्षा जैसे अनेकों महत्वपूर्ण क्षेत्रों में विश्वप्रसिद्ध हुए हैं। देश की इन्हीं महान विभूतियों की कतार में स्थान प्राप्त करने वाले समकालीन महान विभूतियों में सबसे चर्चित और विख्यात प्रतिष्ठित नाम भैरवदत्त धूलिया का आता हैं।
देवभूमि उत्तराखंड में जनजागरण के अग्रदूत और स्वाधीनता सेनानी भैरवदत्त धूलिया का जन्म 18 मई वर्ष 1901 में ग्राम मदनपुर, पट्टी लंगूर वल्ला डाडामण्डी, पौड़ी में पिता हरिदत्त तथा माता सावित्री देवी के घर पर हुआ था। भैरवदत्त ने प्रारंभिक शिक्षा मदनपुर तथा दोगड्डा प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस में प्राप्त की थी। वह सामान्य तौर पर संस्कृत साहित्य के साथ विशेष रूप से ज्योतिष के छात्र रहे। अपने लिए संस्कृत और ज्योतिष पढ़ने तथा देश के लिए स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने में से किसी एक को चुनने का मौका भी उन्हें बनारस ने ही दिया लेकिन यह आश्चर्यजनक था कि भैरवदत्त धूलिया ने दोनों कार्य किए थे।
भैरवदत्त वर्ष 1921 में कुली बेगार आंदोलन के समय आंदोलनकारी छात्र के रूप में वापिस गढ़वाल लौटे और फिर एक स्वाधीनता सेनानी के रूप में ही पहाड़ से नीचे उतरे थे। भैरवदत्त ने बैरिस्टर मुकंदीलाल, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, मंगतराम खंतवाल, केशर सिंह रावत, गोवर्धन बड़ोला के साथ प्रसिद्ध कुली बेगार आंदोलन के रूप में पहाड़ में असहयोग आंदोलन का कुशल संचालन किया था। वर्ष 1931 में उन्होंने कुछ समय तक पटना से प्रकाशित नवशक्ति दैनिक समाचार पत्र के सम्पादकीय मंडल में काम किया था। इसके बाद तो वह राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम की हर अभिव्यक्ति में शामिल होते रहे।
भैरवदत्त धूलिया ने वर्ष 1921 से वर्ष 1935 तक गढ़वाल में स्वाधीनता आंदोलन की प्रत्येक गतिविधि में भाग लिया था। वर्ष 1937 के बाद वह पुनः समाचार पत्र कर्मभूमि के प्रकाशन-संपादन से जुड़ गए थे। उनमें देशभक्ति का प्रचंड भाव तो अध्ययनकाल से ही था, कर्मभूमि समाचार पत्र के माध्यम से उन्हें अपने राष्ट्रवादी विचारों को व्यक्त करने का अवसर भी मिल गया था। अपनी विद्वता, प्रतिभा के बल पर कर्मभूमि के माध्यम से भैरवदत्त ने संपूर्ण गढ़वाल में राष्ट्रीय विचारों का शंखनाद फूंक दिया था। यह समाचार पत्र गढ़वाल और टिहरी रियासत के भारत में विलय होने तक राष्ट्रवादी आंदोलनकारियों का मुखपत्र बना रहा था।
राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के समय भक्तदर्शन ही कर्मभूमि की प्रथम पहचान थे, इसके बाद फिर भैरवदत्त धूलिया, श्रीदेव सुमन, ललिता प्रसाद नैथानी आदि उनके सहयोगी बने थे। देश की आजादी के बाद भैरवदत्त धूलिया इस समाचार पत्र की प्रथम पहचान बन गए थे। उक्त सभी स्वाधीनता सेनानी राष्ट्रवादी पत्रकार की भूमिका में रहें। वर्ष 1942 के ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन में भैरवदत्त धूलिया की अग्रणी भूमिका रही थी। इसी समयकाल में उन्होंने “अंग्रेजों को हिन्दुस्तान से निकाल दो” नामक पुस्तिका लिखी थी। यह पुस्तक योगेश्वर प्रसाद धूलिया के अथक प्रयासों से मुम्बई से “हनुमान चालीसा” के छद्म नाम से संपूर्ण गढ़वाल में वितरित की गई थी।
इस क्रांतिकारी पुस्तक ने संपूर्ण पर्वतीय प्रदेश में स्वाधीनता क्रांति की ज्वाला धथका दी थी। 10 नवंबर वर्ष 1942 को सहायक जिलाधीश ए.डी. पंत की अदालत में विद्रोह करने के आरोप में भैरवदत्त धूलिया को 3 वर्ष और बागियों को शरण देने के अपराध में 4 वर्ष के साथ कुल 7 वर्ष के कठिन कारावास की सजा सुनाई गई थी। उस समय उत्तराखंड के गढ़वाल में आंदोलनकारियों को दी गई सजाओं में यह सर्वाधिक लंबी अवधि की सजा थी।
कर्मभूमि समाचार पत्र भी वर्ष 1942 से वर्ष 1945 के मध्य ब्रिटिश सरकार की कठोर दमनकारी नीति के कारण बंद रहा था। संपूर्ण देश में स्वाधीनता आंदोलन के चलते जब ब्रिटिश सरकार कमजोर हुई तो वर्ष 1945 में उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया था। जेल से मुक्त होने के बाद उन्होंने वर्ष 1946 में पुनः कर्मभूमि समाचार पत्र की बागडोर थाम ली थी। समाचार पत्र के माध्यम से उन्होनें निस्वार्थ भाव और निर्भीकता के साथ जनता की सेवा की डोला-पालकी आंदोलन, अस्पृश्यता आंदोलन, शराबबंदी और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उन्होंने आंदोलन छेड़ दिया था। वर्ष 1949 में टिहरी रियासत के उत्तर प्रदेश में विलय तक कर्मभूमि समाचार पत्र ने ब्रिटिश समय के गढ़वाल तथा टिहरी रियासत में जागृति लाने तथा राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम की जागृति विकसित करने में असाधारण योगदान दिया था।
भैरवदत्त धूलिया जीवनभर सिद्धांतप्रिय व्यक्ति रहे, तत्कालिन समय के एकमात्र प्रभावी राजनैतिक दल कांग्रेस के आचरण और व्यवहार से क्षुब्ध होकर उन्होंने वर्ष 1949 में कांग्रेस से सदा के लिए नाता तोड़ दिया था। वर्ष 1956 में उन्होंने कर्मभूमि का स्वतंत्रता संग्राम विषयक एक विशेष अंक भी निकाला था। वर्ष 1962 में भैरवदत्त धूलिया ने उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव लड़ा, किंतु पराजित हो गए। उन्होनें पुनः वर्ष 1967 में चुनाव लड़ा और कांग्रेस के तत्कालीन दिग्गज नेता और मंत्री जगमोहन सिंह नेगी को ऐतिहासिक पराजय देकर विधानसभा में पहुंचे थे। तत्कालीन संविद सरकार की जनविरोधी नीतियों से खिन्न होकर उन्होंने 18 दिसंबर वर्ष 1967 को विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था। वर्ष 1985 में ज्येष्ठ पुत्र उच्च न्यायालय के न्यायाधीश केशवचन्द्र धूलिया के असामयिक निधन से वह अन्तर्मन तक टूट गए थे, किन्तु एक विरक्त महामानव की तरह उन्होंने इस आघात को धैर्यपूर्वक झेल लिया था।
उत्तराखंड में गढ़वाल की पत्रकारिता के पुरोधा, संघर्षशील व्यक्तित्व, निर्भक, निराभिमानी, गांधीवाद के सम्वाहक भैरवदत्त धूलिया वर्ष 2008 में कोटद्वार में अपनी जीवन यात्रा को पूर्ण कर बह्मलीन हुए। भैरवदत्त धूलिया के देहावसान के पश्चात उनके पुत्र शरद धूलिया तथा पीताम्बर देवरानी आदि ने कर्मभूमि समाचार पत्र को निरंतर प्रकाशित करने का प्रयास किया था। अंततः यह समाचार पत्र बंद हो गया था। वर्तमान समय में उनके पौत्र सुधांशू धूलिया भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर कार्यरत हैं।
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