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जन्मतिथि विशेष : जानिए कवि, लेखक, कहानीकार और पत्रकार मंगलेश डबराल के बारे में सबकुछ

मंगलेश डबराल की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा देहरादून में हुई थी। पिता की बीमारी से घर की बेहद खराब आर्थिक परिस्थितियों के कारण उन्होंने स्नातक स्तर की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी और आजीविका की तलाश में दिल्ली आ गए थे।

by पंकज चौहान
May 16, 2023, 11:38 am IST
in भारत, उत्तराखंड
फाइल फोटो

फाइल फोटो

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भारत के सांस्कृतिक इतिहास की विरासत को संजोकर रखने में उत्तराखंड राज्य का योगदान किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। भारत के उत्तर दिशा में स्थित सुदूर विकट भौगोलिक परिस्थितियों वाले पहाड़ी राज्य का नाम हैं उत्तराखण्ड, उत्तराखण्ड राज्य में अनेकों महान विभूतियों ने जन्म लिया है,जो आध्यात्मिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, पर्यावरण संरक्षण, कला, साहित्य, आर्थिक, देश की रक्षा एवं सुरक्षा जैसे अनेकों महत्वपूर्ण क्षेत्रों में विश्वप्रसिद्ध हुए हैं। देश की इन्हीं महान विभूतियों की कतार में स्थान प्राप्त करने वाले समकालीन हिन्दी कवियों में सबसे चर्चित और विख्यात प्रतिष्ठित नाम मंगलेश डबराल का आता है।

मंगलेश डबराल का जन्म उत्तराखण्ड राज्य में 16 मई 1948 को टिहरी गढ़वाल के ग्राम काफलपानी में हुआ था। काफलपानी एक पहाड़ी गाँव है, जहां के विषय में प्रसिद्ध है कि यहां दिन में खूब दिन होता है और रात में खूब घनी रात होती है। मंगलेश डबराल की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा देहरादून में हुई थी। पिता की बीमारी से घर की बेहद खराब आर्थिक परिस्थितियों के कारण उन्होंने स्नातक स्तर की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी और आजीविका की तलाश में दिल्ली आ गए थे। दिल्ली में लेखन में रुचि के कारण उन्होंने हिन्दी पैट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम किया और उसके पश्चात उन्होंने भोपाल में मध्यप्रदेश कला परिषद्, भारत भवन से प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिक पूर्वाग्रह में सहायक संपादक के रूप में कार्य किया था। मंगलेश डबराल ने इलाहाबाद और लखनऊ से प्रकाशित अमृत प्रभात में भी कुछ समय नौकरी की थी। उन्होंने सन 1983 में जनसत्ता में साहित्य संपादक का दायित्व भी संभाला और उसके कुछ समय पश्चात सहारा समय में संपादन कार्य करने के बाद वह नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़ गए थे। विभिन्न दायित्व और नौकरियों के अलावा पत्रकारिता, संपादन में सहयोग के साथ–साथ उनका लेखन कार्य भी जारी रहा था।

मंगलेश डबराल के पांच काव्य संग्रह प्रकाशित हुए है, “पहाड़ पर लालटेन” सन 1981, “घर का रास्ता” सन 1988, “हम जो देखते हैं” सन 1995, “आवाज़ भी एक जगह है” सन 2000, “नए युग में शत्रु” सन 2013, “घर का रास्ता” सन 2017, “स्मृति एक दूसरा समय है” सन 2020 उनके प्रकाशित कविता-संग्रह हैं। इसके अतिरिक्त उनके “लेखक की रोटी” और “कवि का अकेलापन” शीर्षक गद्य-संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। मंगलेश डबराल का एक यात्रा-वृतांत भी “एक बार आयोवा” के नाम से प्रकाशित हुआ है। मंगलेश डबराल को दिल्ली हिन्दी अकादमी द्वारा साहित्यकार सम्मान से तथा कुमार विकल स्मृति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इसके अतिरिक्त मंगलेश डबराल की अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना “हम जो देखते हैं” के लिए साहित्य अकादमी ने सन 2000 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया था। मंगलेश डबराल की ख्याति देशभर में सुप्रसिद्ध अनुवादक के रूप में भी है।

मंगलेश डबराल के सभी भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी, जर्मन, डच, फ्रांसीसी, स्पानी, इतालवी, पुर्तगाली, बल्गारी, पोल्स्की आदि विदेशी भाषाओं के कई संकलनों और पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताओं के अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं। मरिओला द्वारा उनके कविता-संग्रह ‘आवाज़ भी एक जगह है’ का इतालवी अनुवाद ‘अंके ला वोचे ऐ उन लुओगो’ नाम से प्रकाशित हुआ है तथा अंग्रेज़ी अनुवादों का एक चयन ‘दिस नंबर दज़ नॉट एग्ज़िस्ट’ के नाम से प्रकाशित है। उन्होंने बेर्टोल्ट ब्रेश्ट, हांस माग्नुस ऐंत्सेंसबर्गर, यानिस रित्सोस, ज़िबग्नीयेव हेर्बेत, तादेऊश रूज़ेविच, पाब्लो नेरूदा, एर्नेस्तो कार्देनाल, डोरा गाबे आदि विदेशी प्रसिद्ध कवियों की कविताओं का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद किया है। कविता के अतिरिक्त उन्होंने साहित्य, सिनेमा, संचार माध्यम और संस्कृति के विषयों पर भी नियमित लेखन किया। मंगलेश डबराल की कविताओं में सामंती बोध एवं पूंजीवादी छल-छद्म दोनों का ही प्रतिकार है। मंगलेश डबराल यह प्रतिकार किसी शोर-शराबे के साथ नहीं अपितु प्रतिपक्ष में एक सुन्दर स्वप्न रचकर करते हैं। उनका सौंदर्यबोध सूक्ष्म है और भाषा पारदर्शी है। मंगलेश डबराल का कोरोना से संक्रमित होने के कारण 9 दिसम्बर 2020 को वसुंधरा, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश के एक अस्पताल में देहावसान हो गया था।

समकालीन कविता के एक अन्य प्रतिष्ठित कवि असद ज़ैदी के शब्दों में कहें तो—‘’ऊपर से शांत, संयमित और कोमल दिखने वाली लगभग आधी सदी से पकती हुई मंगलेश की कविता हमेशा सख़्तजान रही है—किसी भी चीज़ के लिए तैयार। इतिहास ने जो ज़ख़्म दिए हैं उन्हें दर्ज करने, मानवीय यातना को सोखने और प्रतिरोध में ही उम्मीद का कारनामा लिखने के लिए हमेशा प्रतिबद्ध। यह हाहाकार की ज़बान में नहीं लिखी गई है, वाष्पीभूत और जल्दी ही बदरंग हो जाने वाली भावुकता से बचती है, इसकी मार्मिकता स्फटिक जैसी कठोरता लिए हुए है। इस मामले में मंगलेश क्लासिसिस्ट मिज़ाज के कवि हैं—समकालीनों में सबसे ज़्यादा तैयार, मंजी हुई, और तहदार ज़बान लिखने वाले।’’

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