हाल ही में ब्रिटेन में हिन्दुओं को लेकर एक बहुत ही हैरान करने वाली रिपोर्ट प्रकाशित हुई। ब्रिटिश थिंक टैंक हेनरी जैक्सन ने हिन्दू युवाओं और बच्चों को लेकर राष्ट्रीय अध्ययन किया है। यह अपने प्रकार का पहला अध्ययन है, जिसमें वहां पर बसे हुए हिन्दुओं की धार्मिक स्थिति पर बात की गयी है। जिसमें विस्तार से यह बताया गया है कि कैसे बचपन से ही हिन्दुओं के बच्चों के मन में उनके ही धर्म के प्रति घृणा भरी जाने लगती है।
इसमें बताया गया कि कैसे कक्षाओं में हिन्दू विरोधी कार्य होते हैं। सबसे बढ़कर इस रिपोर्ट में यह बताया गया कि कक्षा में हिन्दू बच्चे डरकर बैठे रहते हैं और कैसे कक्षाओं के माध्यम से उन्हें उनके धर्म के विरुद्ध खड़ा किया जाता है। उन पर कन्वर्जन का दबाव डाला जाता है और कैसे हिन्दू धर्म को गलत तरीके से पढ़ाए जाने से धर्म के विषय में और भी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं।
जो घटनाएं बताई गयी हैं, उनसे हिन्दू बच्चे अकेले हुए हैं और इसके चलते समुदाय का विश्वास उस शिक्षा प्रणाली में कम हुआ है, जो वहां पर प्रदान की जा रही है। जिस प्रकार से हिन्दू धर्म को धार्मिक शिक्षा में पढ़ाया जा रहा है, वह अपने आप में दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि उन्हें हिन्दू धर्म को अब्राह्मिक मतों के चश्मे से पढ़ाया जा रहा है और जिसके चलते हिन्दू धर्म की मुख्य अवधारणाओं के प्रति भ्रांतियां फ़ैल रही हैं। इन्हीं भ्रांतियों के चलते कक्षा में बच्चों को बुली किया जा रहा है।
यह रिपोर्ट तमाम स्थानों पर प्रकाशित हो चुकी है। परन्तु विमर्श के इस युद्ध में एक जो कड़ी मिसिंग है, क्या उस पर किसी का ध्यान जा रहा है? क्या इस पर ध्यान जा पा रहा है कि यदि इतने वर्षों से हिन्दुओं के बच्चों के साथ यह हो रहा था, तो यह विमर्श में क्यों नहीं आया? क्या कारण था कि तमाम यह तथ्य उन कथाओं में नहीं आ पाए जो रची जा रही थीं?
कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। यह साहित्य ही है जो किसी भी समाज का निर्माण करता है। भूमंडलीकरण के दौर में जब हम देखते हैं कि हर ओर भाषाई आग्रहों में टूटन आई है तो क्या यह कल्पना की जा सकती है कि इतनी विकट समस्या को किसी भी साहित्य में स्थान नहीं मिला?
आज यदि हम ब्रिटेन में देखें तो कई कथित लेखक और विचारक ऐसे दिखते हैं, जो हिन्दी में लिख रहे हैं, जो हिंदी में कविता, कहानी से लेकर तमाम और विषयों पर किताबें लिख रहे हैं। परन्तु क्या उन्होंने अपनी रचनाओं में उन बच्चों के अनुभवों को पिरोया, जो बच्चे इस प्रकार के शोषण का शिकार हो रहे थे?
भारत में हम जब हिन्दी रचनाओं को या फिर किसी भी भाषा में रची गयी रचनाओं को देखते हैं तो एक वृहद परिदृश्य दिखाई देता है, लगभग हर विषय पर लिखा गया बहुत कुछ प्राप्त होता है, जिसे कथित प्रगतिशील समाज अल्पसंख्यकों पर हुआ अत्याचार बताता है, फिर चाहे वह बाबरी वाली घटना हो, गुजरात दंगे हों या कुछ ऐसा जिससे उस कथित अल्पसंख्यकवाद पर अत्याचार के विमर्श की पुष्टि होती है, जो अल्पसंख्यकवाद दरअसल उसी देश के विमर्श की देन है, जहां पर अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर यह धार्मिक अत्याचार हो रहा था।
ऐसे में यह प्रश्न उठता ही है कि जब भारत का कथित प्रगतिशील साहित्य भारत के राजनीतिक अल्पसंख्यकवाद के बैनर तले स्वयं को और भी अधिक अल्पसंख्यकप्रेमी प्रमाणित करने के लिए पूरे हिन्दू लोक को अपमानित कर रहा था, वही कथित प्रगतिशील लेखक वर्ग ब्रिटेन में हिन्दुओं पर हो रहे इस धार्मिक अत्याचार पर मौन क्यों था? विदेश में बैठे क्या किसी एक भी साहित्यकार ने हिन्दुओं के बच्चों के साथ हो रहे इस अत्याचार को अपनी रचनाओं में स्थान दिया या फिर वह भारत के उन हिन्दी आलोचकों की दृष्टि में ऊंचा उठने के लिए ब्रिटेन के अल्पसंख्यकों अर्थात हिन्दुओं की पीड़ा को नकारते रहे, जिनकी दृष्टि में हिन्दू ही हर घटना के लिए दोषी थे?
प्रश्न इसलिए उभरकर आता है क्योंकि जब भी हिन्दी की शक्ति की बात होती है तो हिन्दी की रचनाओं की बात होती है और फिर यह कहा जाता है कि विदेशों में भरपूर हिन्दी साहित्य रचा जा रहा है, और हिन्दी ने यह स्थान हासिल कर लिया, वह स्थान हासिल कर लिया आदि आदि! परन्तु उस स्थान को हासिल करने से ब्रिटेन में बसे हुए हिन्दुओं के बच्चों के साथ हुए अत्याचार का विमर्श स्थापित हुआ? क्या उस तमाम दर्द को किसी भी हिन्दू लेखक की पुस्तक या लेखों में स्थान मिला? यदि नहीं तो फिर प्रश्न यह उठता है कि हिन्दू और हिन्दी के नाम पर लिखने वाले या फिर यह कहने वाले कि भारत का विमर्श विदेशों में फ़ैल रहा है, वह कैसे यह दावा कर सकते हैं कि उन्होंने भाषा की सेवा की?
किसी भी भाषा की सेवा कैसे एकांगी हो सकती है, जब उसे बोलने वाला एक बड़ा वर्ग अत्याचार का शिकार हो रहा है और वह भी भाषा से उपजे संस्कारों एवं संस्कारों से निर्मित भाषा के प्रयोग के चलते? क्या हिन्दू संस्कारों के साथ हुए इस धोखे पर कोई रचना लिखी गयी? यदि नहीं तो प्रश्न यह उठता ही है कि भारत की बढ़ती सॉफ्टपावर का प्रयोग साहित्य में विमर्श गढ़ने के लिए क्यों नहीं किया गया? क्यों इसे केवल पश्चिम से भारत की उन्नति का प्रमाणपत्र लेने के लिए प्रयोग किया गया? क्यों साहित्य में यह पीड़ा नहीं आ पाई? हिन्दू बच्चों के साथ यह अत्याचार होता है, क्यों इसका पता किसी ब्रिटिश थिंक टैंक हेनरी जैक्सन के माध्यम से लगता है और क्यों कोई भारतीय लेखक इस अत्याचार के विरुद्ध लिखने का साहस नहीं जुटा पाया? क्या औपनिवेशिक मानसिक गुलामी ने इन लेखकों को अपने ही बच्चों की पीड़ा दिखाने के प्रति कठोर कर दिया था या क्या कारण है?
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो राजनीतिक अल्पसंख्यकवाद भारत में हिन्दी साहित्य की मूल भावना को खा गया, उसी राजनीतिक अल्पसंख्यक वाद ने हिन्दी के लेखकों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह हिन्दुओं के बच्चों के साथ हुए अत्याचार के प्रति आँखें मूंदने पर विवश कर दिया।
यह किसी भी सभ्यता के लिए सबसे बड़ी लज्जा की बात है कि उसके बच्चों के साथ हो रहे धार्मिक अत्याचारों को उसकी भाषा के साहित्य में स्थान न मिले!
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