एक शिया बाबा की सुन्नी पैदाइश का और क्या हश्र होना था? जिन्ना, जिसे पाकिस्तानी बाबा-ए-कौम कहते हैं, वह एक शिया था। इस्लामी मुल्क बनने के चंद दिन बाद ही हाल यह था कि जिन्ना की मौत के बाद उसे दफनाने के तौर-तरीकों तक पर एक राय नहीं थी।
एक शायर की कल्पना से पैदा हुआ पाकिस्तान अब दूसरे शायर की शायरी बन गया है। किसी ने कहा है –
‘ऐसे हालात से मजबूर बशर देखे हैं
अस्ल क्या सूद में बिकते हुए घर देखे हैं
हमने देखा है वजादार घरानों का जवाल
हमने सड़कों पे कई शाह जफर देखे हैं।’
(*वजादार-रसूखदार, *जवाल-पतन)
एक शिया बाबा की सुन्नी पैदाइश का और क्या हश्र होना था? जिन्ना, जिसे पाकिस्तानी बाबा-ए-कौम कहते हैं, वह एक शिया था। इस्लामी मुल्क बनने के चंद दिन बाद ही हाल यह था कि जिन्ना की मौत के बाद उसे दफनाने के तौर-तरीकों तक पर एक राय नहीं थी।
अराजकता या जंगल राज की परिभाषा क्या होती है? एक पूर्व प्रधानमंत्री (इमरान खान) को फौज (दिखावे के लिए अर्धसैनिक बल) अदालत से घसीटकर गिरफ्तार कर लेती है। कहानी यहां से न शुरू हुई है, न खत्म। इमरान खान व्हीलचेयर पर आए थे और बताया गया था कि उनके पैर में फ्रैक्चर है। हालांकि जब गिरफ्तार किए गए, तो वह बाकायदा चलते हुए नजर आए। उसके बाद अगले दिन जब इमरान खान सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई शुरू होने से पहले पेश हुए, तो फिर तमाम वीडियो में वह फिर पैदल जाते नजर आए।
फिर? अगले ही दिन पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने इमरान खान की गिरफ्तारी को अवैध करार दे दिया। उनकी तत्काल रिहाई का आदेश दिया।
कहानी यहां भी खत्म नहीं होती। इसके पहले, जब सुप्रीम कोर्ट ने इमरान को एक घंटे के भीतर अदालत में पेश करने का आदेश दिया, तो पाकिस्तान की सूचना मंत्री मरियम औरंगजेब ने टिप्पणी की कि ‘सुप्रीम कोर्ट एक अपराधी, एक आतंकवादी, एक ऐसे गैंगस्टर को राहत दे रहा है जो हथियारबंद गिरोहों का सरगना है।’ गौर कीजिए मंत्री का बयान, सुप्रीम कोर्ट के लिए।
कहानी और भी है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही इमरान खान और उनकी पार्टी की नेता मुसर्रत जावेद चीमा के बीच बातचीत की एक कथित आडियो कॉल रिकॉर्डिंग सामने आई, जिसमें इमरान खान को कथित तौर पर इस्लामाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पर ‘आदेश लेने’ का आरोप लगाते हुए सुना जा सकता था। कथित फोन बातचीत में इमरान खान मुसर्रत जावेद चीमा को निर्देश देते हुए भी सुने गए। हालांकि इसके एक दिन पहले ही मुसर्रत जावेद चीमा को राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो (एनएबी) ने हिरासत में ले लिया।
अराजकता की यह कड़ियां असंख्य हो चुकी हैं। इस सबके बाद से ही नहीं, पहले से ही, खलीफा-ए-पाकिस्तान याने फौज एक तरफ है और दूसरी तरफ ‘रियासत-ए-मदीना’ का नारा लगाते, फौज के कंधे पर बैठकर कभी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने इमरान खान हैं। खलीफा ने प्यादे को कंधे से उतार दिया है और अब अपने बूट से उसे कुचलना चाहता है। पाकिस्तान सरकार खलीफा का हुक्म बजा रही है।
दृश्य कुछ ऐसे शुरू हुआ
पाकिस्तान का पूर्व प्रधानमंत्री इस्लामाबाद उच्च न्यायालय के भवन में बैठा है। आरोप हैं, पेशी में आया है। तभी फौज के रेंजर्स खिड़कियां तोड़कर आतंकित करने वाले अंदाज में अंदर घुस आते हैं। इमरान खान के सुरक्षा कमांडो लहुलूहान होने तक पीटे जाते हैं। इमरान के वकील पीटे जाते हैं। 70 साल के इमरान खान को मारा जाता है। सिर पर चोट आती है। पहले से जख्मी पैर से खून बहने लगता है। इमरान के वकील ने अदालत में कहा कि एनएबी की हिरासत में इमरान की जान को खतरा है। हत्या हो सकती है। गंभीर चोटें आई हैं। इमरान लगभग बेसुध थे। प्रहसन शुरू हो जाता है। इमरान को गिरफ्तार करके पाक खुफिया एजेंसी, बदनाम आईएसआई के कार्यालय में रखा गया। बताया गया कि उन्हें अल कादिर ट्रस्ट केस में एनएबी ने गिरफ्तार किया है।
पाकिस्तानी पत्रकार कह रहे हैं कि गिरफ्तारी की योजना तो महीनों पुरानी है, गिरफ्तार करने का तरीका खोजा जा रहा था। इमरान भी लगातार बयान दे रहे थे कि किसी मामूली सी बात की आड़ लेकर उनकी गिरफ्तारी हो सकती है। उनकी जान को खतरा हो सकता है। जिस तरह पूरे पाकिस्तान में इमरान समर्थक एक साथ सड़कों पर उतरे, उससे पता चलता है कि इमरान की आशंकित पार्टी पीटीआई ने अपने काडर को सचेत करके रखा था।
शहर दर शहर प्रदर्शन हो रहे हैं। इमरान की जान को खतरे की अफवाहें सुनकर उनके समर्थक उग्र प्रदर्शन कर, पाकिस्तानी एस्टेब्लिशमेंट पर दबाव बना रहे हैं। रावलपिंडी में फौज के मुख्यालय पर उग्र भीड़ आ धमकी। इमरान समर्थक, लाहौर के कोर कमांडर के घर में गुस गए और तोड़फोड़ की। कोर कमांडर पेशावर के घर के बाहर प्रदर्शन हुआ। खैबर पख्तूनख्वा, जो इमरान का गढ़ है और तालिबान की पनाहगाह, में पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के समर्थकों ने विशाल जंगी रैली निकाली। पेशावर विश्वविद्यालय में इमरान समर्थकों ने उग्र प्रदर्शन किया। कराची, इस्लामाबाद, रावलपिंडी, सब तरफ अफरा-तफरी मच गई। इमरान ने जिहाद का वास्ता दिया, जिस वीडियो में इमरान समर्थकों से सड़कों पर उतरने की अपील की गई, उसमें साफ तौर पर कहा गया कि ‘जिन्ना ने हिन्दुओं से लड़कर पाकिस्तान हासिल किया था’, और अब ‘इस्लाम खतरे में है’। जवाब में ला इलाहा इल्लल्लाह और नारा-ए-तकबीर के नारे गूंजने लगे।
फौज ने इमरान से पूरी तरह निपटने का मन बना लिया है। इमरान खान ज्यादा मुखर हो रहे थे। उन्होंने एक शीर्ष फौजी का नाम लेकर आरोप लगाने शुरू कर दिए थे। इमरान एक कोर कमांडर को निशाने पर लें, यह फौज को सहन नहीं हुआ। फौज के मीडिया संस्थान आईएसपीआर ने बयान दिया कि एक अफसर पर हमला, पूरी फौज पर हमला है। योजना तैयार थी।
पाक गृहमंत्री राणा सनाउल्लाह ने पत्रकार वार्ता की और इमरान पर अंगार बरसाए ‘हमने इमरान खान नियाजी को चुनौती दी थी कि तुमने अल कादिर ट्रस्ट में जो भ्रष्टाचार किया है, उसका जवाब दो। ये ट्रस्ट रिश्वत को छिपाने के लिए बनाया गया, इसमें दो ही ट्रस्टी हैं। इमरान खान नियाजी और उसकी अहिलिया मोहतरमा (पत्नी) की 240 कनाल जमीन, जो बनीगाला में है, 5 से 7 अरब रुपये की है।’
प्रदर्शनों का अंदेशा फौज को पहले से था, इसलिए इमरान के समर्थकों में खौफ फैलाने के लिए हिंसक अंदाज में गिरफ्तारियां की गर्इं और मीडिया को दिखाते हुए इमरान को गर्दन से पकड़कर गाड़ी में बैठाया गया। 24 घंटे बीतते-बीतते पीटीआई के बाकी नेताओं की धर-पकड़ शुरू हुई। अदालत में याचिका लगाने पहुंचे पीटीआई नेताओं को भी धर लिया गया। पीटीआई के नेता असद उमर, फवाद चौधरी, जमशेद इकबाल चीमा, फलकनाज चित्राली, मुसर्रत जमशेद चीमा और मलिका बुखारी को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
वजीर थे, प्यादे से पिटे
हुसैन सुहरावर्दी- सितंबर 1956 से अक्तूबर 1957 तक प्रधानमंत्री रहे। जनरल अयूब खान ने सरकार का तख्ता पलटने की कोशिश की, पर सुहरावर्दी ने साथ नहीं दिया। 1958 में अयूब खान ने तख्तापलट के बाद उन्हें राजनीति से प्रतिबंधित किया, फिर जनवरी 1962 में देश विरोधी गतिविधियों के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। बिना मुकदमा चलाए उन्हें कराची सेंट्रल जेल के एकांत कैदखाने में रखा गया।
जुल्फिकार अली भुट्टो- 13 साल के सैन्य शासन के बाद अगस्त 1973 से जुलाई 1977 तक प्रधानमंत्री रहे। 1974 में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की हत्या की साजिश रचने के आरोप में सितंबर 1977 में उन्हें गिरफ्तार किया गया। लेकिन लाहौर उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए रिहा कर दिया कि उनकी गिरफ्तारी का कोई कानूनी आधार नहीं है। तीन माह बाद फिर गिरफ्तार कर अंतत: 4 अप्रैल, 1979 को फांसी दे दी गई।
बेनजीर भुट्टो- दो बार (दिसंबर 1998-अगस्त 1990 और अक्तूबर 1993-नवंबर 1996) प्रधानमंत्री रहीं। 1985 में पेरिस में भाई की मौत के बाद अंतिम क्रिया के लिए अगस्त में पाकिस्तान पहुंचीं। सरकार विरोधी प्रदर्शनों का नेतृत्व करने पर उन्हें पहले 90 दिन नजरबंद, फिर 1986 में स्वतंत्रता दिवस, 1998, 1999 और 2007 में कराची में रैली में सरकार की निंदा करने के लिए गिरफ्तार किया गया था। भ्रष्टाचार मामले में 1999 में 5 साल की सजा सुनाई गई। इसके बाद 7 वर्ष निर्वासन में रहीं।
नवाज शरीफ- तीन बार (1 नवंबर 1990-18 जुलाई 1993, 17 फरवरी 1997-12 अक्तूबर 1999 और 5 जून 2013-28 जुलाई 2017) प्रधानमंत्री रहे। 1999 में सैन्य तानाशाह परवेज मुशर्रफ ने इन्हें 10 वर्ष के लिए निर्वासित किया। 7 वर्ष बाद लौटने की कोशिश की पर इस्लामाबाद हवाई अड्डे से जेद्दा लौटना पड़ा। दिसंबर 2018 में फिर 7 वर्ष की सजा हुई। इलाज के बहाने नवंबर 2019 में जाने के बाद दोबारा पाकिस्तान नहीं लौटे।
शाहिद खाकान अब्बासी- जनवरी 2017 से मई 2018 तक प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने नवाज शरीफ की जगह ली थी। 18 जुलाई, 2019 को भ्रष्टाचार मामले में गिरफ्तार हुए। 27 फरवरी, 2020 को अदियाला से रिहा हुए। अब्बासी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) के उपाध्यक्ष हैं।
फौज का संदेश
दूध का धुला कोई नहीं है, लेकिन फिलहाल इमरान को फौज के खिलाफ जाने की सजा मिल रही है। इमरान खान नवाज शरीफ का उदाहरण भूल गए। नवाज शरीफ को भी भ्रष्टाचार के ही मामले में निपटाया गया था। मामला भ्रष्टाचार का न होकर तकनीकी था। इमरान खान की तरह नवाज शरीफ भी फौज की ही कठपुतली थे। लेकिन नवाज ने फौज की बनाई हद से जरा सा पांव बाहर निकालने की कोशिश की थी। इमरान के लिए भी कोर कमांडरों की बैठक हुई, जिसमें हाथ के बाहर जा चुके इमरान की गिरफ्तारी का आदेश निकालने का आदेश निकला। आदेश निकलवाया गया आईजी पुलिस के आफिस से, गिरफ्तार किया पाक रेंजर्स ने, जो पाक फौज के मातहत आते हैं। इमरान को उठाया इस्लामाबाद से, ले गए रावलपिंडी, जहां पाक फौज का मुख्यालय है।
दरअसल, इमरान की गिरफ्तारी के एक दिन पहले ही फौज ने उन्हें ‘निराधार आरोप’ लगाने के खिलाफ चेतावनी दी थी। तब इमरान ने फौज के एक वरिष्ठ अधिकारी पर उन्हें मारने की साजिश रचने का आरोप फिर से लगाया था। इस पर फौज की धमकी बहुत तीखी थी। फौज ने ‘संबंधित राजनीतिक नेता को कानूनी रास्ते का सहारा लेने और झूठे आरोप लगाने से बचने की सलाह दी।’ साथ ही, यह भी कहा कि ‘अगर ऐसा नहीं हुआ, तो फौज के पास स्पष्ट रूप से झूठे और दुर्भावनापूर्ण बयानों और प्रचार के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने का अधिकार सुरक्षित है।’
इमरान खान ने पलटवार किया। कहा कि उनके आरोपों में व्यक्तियों को निशाना बनाया गया है, संस्था को नहीं। लेकिन यह दलील फौज के गले नहीं उतरी। इमरान खान को गिरफ्तार करने के लिए सर्वोच्च स्तर के फौज के अफसरों की ओर से आदेश जारी किए गए। 9 मई को पाकिस्तानी जनता ने फिर एक बार किसी राजनेता को बदसलूकी से घसीट कर फौज के वाहन में धकेले जाने का वही नजारा देखा, जो वह पहले भी कई बार देख चुकी थी।
इससे यह बात साफ हो चुकी थी कि पीटीआई प्रमुख के फौज के साथ संबंध कितने खराब हो गए हैं। क्योंकि यह फौज ही थी, जिसने 2018 में इमरान को हर संभव तरह से सत्ता में बैठाया था। नवाज शरीफ की पार्टी में फौज के इशारे पर बगावत करवा कर बहुत सारे नेताओं को इमरान की पार्टी में शामिल करवाया गया था। बहुत सारे उम्मीदवारों को नाम वापस लेने के लिए मजबूर किया गया था। लेकिन जब फौज का उनसे विश्वास खत्म हुआ, तो फौज के ही इशारे पर संसद में उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो गया।
बहरहाल, इस्लामाबाद पुलिस ने पुलिस प्रमुख अकबर नासिर के हवाले से एक बयान जारी कर कहा कि पीटीआई अध्यक्ष को अल-कादिर ट्रस्ट मामले के संबंध में गिरफ्तार किया गया है, जिसमें आरोप था कि इमरान और उनकी पत्नी बुशरा बीबी ने एक रियल इस्टेट कंपनी से अरबों रुपये अर्जित किए और बदले में कंपनी को 60 अरब रुपये की काली कमाई सफेद करने में मदद की। वास्तव में यह रकम ब्रिटेन द्वारा पाकिस्तान को वापस की गई थी। मीडिया में सुर्खियां बनीं कि इमरान को आर्थिक अपराधों पर कार्रवाई करने वाली एनएबी ने रेंजर्स की मदद से गिरफ्तार किया है। एनएबी का मुखिया भी लेफ्टिनेंट जनरल के ओहदे वाला एक फौजी है।
एनएबी कहने को स्वायत्त संस्था है, लेकिन अकाउंटेबल (उत्तरदायी) फौज के प्रति है। इसे एक फौजी, परवेज मुशर्रफ ने बनाया था, नाम रखा गया एहतेसाब सेल। इसका मुखिया या तो कोई फौजी होता है या फौज के हिसाब से चलने वाले न्यायाधीश। पाकिस्तान के न्यायालय ही इस संगठन की कार्यशैली को तकनीकी भ्रष्टाचार की संज्ञा दे चुके हैं। प्रभावशाली आरोपियों को फरार करवाने के लिए अदालतें इसे फटकारती रही हैं। लंदन कोर्ट आफ आर्बिट्रेशन ने भी एनएबी को आर्थिक साजिश का जिम्मेदार माना है। लेकिन इमरान की गिरफ्तारी की प्रतिक्रिया भयंकर और अप्रत्याशित रही है। सुहरावर्दी से लेकर नवाज शरीफ तक कई पूर्व प्रधानमंत्रियों को फौज ने इसी तरह घसीट कर गाड़ियों में डाला है, ऐसी प्रतिक्रिया पहले कभी नहीं हुई। जीएचक्यू और लाहौर कोर कमांडर के घरों के आग की लपटों में घिरे हमलों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर प्रसारित की गई हैं। हालांकि इसमें भी कुछ रहस्य है। उग्र भीड़ की मौजूदगी के बावजूद यह दोनों मकान बिना किसी सुरक्षा के थे और भीड़ आती देखते ही उनके गेट खुल गए।
पिछले 13 महीनों से फौज अपनी राजनीतिक दखलंदाजी को लेकर ज्यादा सचेत और सक्रिय रही है। पाकिस्तान पहले ही अभूतपूर्व और बहुआयामी संकटों में फंसा हुआ है और फौज की यह दखलंदाजी एक नया संकट बन कर उभरी है।
इमरान खान के साथ स्थिति इससे उलट है। पिछले एक साल में इमरान खान के जन समर्थन में अच्छी खासी वृद्धि हुई है। इमरान खान को ऐसा भी लगने लगा था कि अब फौज का एस्टेब्लिशमेंट उनकी अनदेखी नहीं कर सकता था।
एक स्तर पर यह माना जाने लगा था कि इमरान खान को जेल भेजने से पाकिस्तान का राजनीतिक संकट खत्म हो जाएगा। इस कारण या इस तरह से इमरान खान को रास्ते से हटाया जाना तय है। हालांकि इमरान खान को रास्ते से हटाने से भी पाकिस्तान के किसी भी संकट का कोई भी हल निकलने की उम्मीद नहीं है, बल्कि इसके विपरीत इमरान खान को गिरफ्तार करने से लोगों और फौज के रिश्तों में गहरी दरार आ चुकी है।
यह हिंसा और टकराव उस समय उभरे हैं, जब पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पहले ही वेंटिलेटर पर है। यह भी कहा जा रहा है कि लोग अपनी रोजमर्रा की निराशा और अपना गुस्सा निकालने के लिए सड़कों पर उतरे हैं और इमरान खान की गिरफ्तारी तो सिर्फ बहाना है।
पाकिस्तान खतरे के तीसरे पहलू से पूरी तरह अनजान बना हुआ है। वह यह कि इमरान खान की गिरफ्तारी और उसके बाद के घटनाक्रम ने सरकार और एस्टेब्लिशमेंट को विवादित बना दिया है। माने अब सरकार जो भी नीति बनाएगी, या जो भी कदम उठाएगी, जनता उस पर अविश्वास जताने के लिए लगातार तैयार मिलेगी। डिफॉल्ट होने की कगार पर खड़े पाकिस्तान के लिए यह बहुत अहम हो सकता है। इससे भी अहम है चुनाव टाले जाने की असली कहानी। इसे लेकर फौज-सरकार एक तरफ है और सुप्रीम कोर्ट और इमरान खान दूसरी तरफ। सारे विवाद की जड़ यही है। लोकप्रियता के चरम पर चल रहे इमरान खान को चुनाव में हरा सकना शायद असंभव है और यह चीज न शहबाज शरीफ चाहते हैं, न एस्टेब्लिशमेंट।
अजायबघर को वापस कठपुतली
‘अनुच्छेद-370 इतिहास बन चुका है। उठो, जाग जाओ। भारत में जैसे सब जगह बैठकें होती हैं, वैसे ही जी-20 की बैठक जम्मू-कश्मीर में होगी।’ विदेशमंत्री एस. जयशंकर का यह बयान पाकिस्तान में चर्चा का विषय बना रहा, भारतीयों ने इनका मजा लिया।
पाकिस्तान में संशय था कि बिलावल जा रहे हैं कि नहीं। फिर खबर आई कि जा रहे हैं। भारत में शंघाई कोआपरेशन आर्गनाइजेशन की बैठक थी। पाकिस्तानी एस्टेब्लिश्मेंट को दुनिया के सामने दिखाना था कि पाकिस्तान भारत के साथ राजनयिक और राजनीतिक पहल कर रहा है। दुनियाभर में मिट्टी पलीद करवा चुका पाकिस्तान वार्ता और व्यापार की बातों के जरिए भारत में उसके द्वारा फैलाए जिहादी आतंकवाद को कानूनी कवच पहनाना चाहता है। वे चाहते हैं कि भारत पाकिस्तान क्रिकेट खेलें, अमन की आशा जैसे तमाशे हों, ताकि दुनिया को लगे कि पाकिस्तानी आतंकवाद कोई खास बात नहीं है।
बिलावल ने, जितना कहकर भेजा गया था, उतना प्रोपेगैंडा किया। जम्मू-कश्मीर में जी-20 बैठक करवाने पर सवाल उठाए। पाकिस्तान को दुनिया में सबसे बड़ा आतंकवाद का शिकार बताया। उत्तर मुंहतोड़ मिला। भारत के विदेश मंत्री ने नाम लिए बिना बिलावल को आतंकवाद का प्रवक्ता कहा और वक्तव्य दिया कि ‘आतंकवाद के शिकार और आतंकी करतूत करवाने वालों के बीच कोई वार्ता नहीं होती।’
भारत ने दुनिया के सामने पाकिस्तान को सफलतापूर्वक आतंक का जिम्मेदार साबित किया है। पाकिस्तान में हो रही जिहादी घटनाओं को लेकर दुनिया में कोई भ्रम नहीं है। आप किसी दूसरे के घर में फेंकने के लिए बम बना रहे थे और बारूद से खुद के हाथ जल गए, तो क्या आप अपराध के शिकार माने जाएंगे? कश्मीर पर भारत के फैसले को दुनिया ने स्वीकारा है। भारत का संदेश है कि पाकिस्तान से जब भी कश्मीर पर बात होगी तो सिर्फ पीओजेके को खाली करवाने पर होगी।
उधर, पाकिस्तान अपने वही घटिया हथकंडे दोहरा रहा है। बिलावल भुट्टो जरदारी को भारत भेजा गया, इधर जम्मू-कश्मीर के राजौरी में उसके जिहादियों ने घात लगाकर हमला किया, जिसमें हमारे 5 जवान बलिदान हो गए। सांस के लिए छटपटाते पाकिस्तान से बेपरवाह पाकिस्तानी एस्टब्लिश्मेंट सुधरने को तैयार नहीं। उसके दुर्दिन और दुर्गति का सिलसिला रुकता नहीं दिखता।
नया मोहरा, पुरानी कहानी
पाकिस्तान के राजनैतिक खानदानों के सामने इमरान राजनीति में काफी नए हैं। इमरान पहले फौज के समर्थक नहीं थे। फौज को नया, प्रभावशाली चेहरा चाहिए था। फौज ने इमरान पर हाथ रखा, और ये पुराना ‘प्लेब्वॉय’ पाकिस्तानी सियासत के रंग में ऐसा रंगा कि उसे सूट-बूट वाला तालिबान कहा जाने लगा। फौज ने गोद में झुलाया तो इमरान को भी बहुत मजा आया। फौज को भुट्टो और शरीफ खानदानों की मुश्कें कसने के लिए सत्ता परिवर्तन की जरूरत थी। आम चुनाव हुए। हर बूथ पर दो फौजी तैनात किए गए। उन्हें विशेष निर्देश थे। इस बूथ कैप्चरिंग की बदौलत इमरान सत्तासीन होने लायक बने।
सनद रहे कि फौज की इस बूथ कैप्चरिंग के खर्चे का पर्चा सरकार के नाम फाड़ा गया। फौज ने इस तैनाती की मोटी रकम सरकारी खजाने से वसूली। इमरान वजीर हो गए। लेकिन सत्ता में आकर उन्हें समझ में आया कि क्रिकेट खेलना और रैलियां करना अलग बात है और सरकार चलाना अलग। तिस पर सख्त सास की भूमिका में रावलपिंडी वाले। संभला उनसे कुछ नहीं। उधर उनकी नई-पुरानी जिंदगी की बदनामियां बार-बार सर उठाती रहीं।
अर्थव्यवस्था की समझ न इमरान को है, न फौज को। इसलिए कुछ समय सब ठीक चला। इमरान पिट्ठू बनकर खुश रहे। फौज को दिखाने के लिए बीच-बीच में भारत को भला-बुरा कह देते। फिर वजीर ने खुद को सचमुच वजीर समझना शुरू कर दिया। फौज ने हनक उतारने में देरी नहीं की। इमरान तब से मौके की तलाश में थे। उन्हें अपनी क्रिकेटर वाली लोकप्रियता का बड़ा भरोसा है। उनकी दशकों पुरानी अंतरराष्ट्रीय पहचान भी है, इसलिए फौज भी इमरान की ओर से सशंकित रहती आई है।
कैसे बिगड़े रिश्ते?
इमरान खान की मौलिक गलती यह रही कि उन्होंने एस्टेब्लिशमेंट और विशेष रूप से इसकी फौज की सीधे तौर पर आलोचना करने वाली सीमा रेखा पार कर दी। अब जब जिन्न बोतल से बाहर आ गया है तो उसे वापस लाना लगभग असंभव है।
दो प्रमुख पार्टियों की वंशवादी राजनीति से थके हुए मतदाताओं पर जीत हासिल करने के बाद जब इमरान खान 2018 में सत्ता में आए, तो वह सीधे इमरान खान एस्टेब्लिशमेंट की मदद से आए थे। इसी तरह, पिछले अप्रैल में संसद में अविश्वास मत से जब इमरान खान को सत्ता से बेदखल किया गया था, तो यह तब हुआ था, जब फौज के शीर्ष अधिकारियों के साथ उनका टकराव हो चुका था। रिश्ते बिगड़ने की शुरुआत तब हुई, जब इमरान खान ने विदेश नीति में थोड़े अधिक पैर पसारने की कोशिश की थी। इसके अलावा, आईएसआई के नए प्रमुख की नियुक्ति में देरी को लेकर फौज के साथ इमरान खान का साफ गतिरोध हुआ और इसके बाद संबंधों में खटास आने लगी।
सत्ता से बेदखल होने के बाद इमरान खान ने सत्ता में वापसी के लिए राजनीतिक अभियान शुरू किया, तो उन्होंने पाकिस्तान की इस राजनीतिक परंपरा को तोड़ दिया कि फौज की आलोचना नहीं करना है। उन्होंने सेवानिवृत्त और सेवारत अफसरों की सीधे तौर पर आलोचना करना शुरू कर दिया। इमरान खान को अपनी व्यापक लोकप्रियता पर इतना गुमान था कि वह उसी एस्टेब्लिशमेंट पर हमले करने लगे, जिसने उन्हें सत्ता में बैठाया था।
इमरान खान की सत्ता के बेदखली के बाद शहबाज शरीफ ने एक नया फौज प्रमुख नियुक्त किया। नई नियुक्ति एक ऐसे व्यक्ति की हुई, जिसका इमरान खान के साथ पहले ही खुला टकराव रहा था। उधर, सरकार ने फौज को आलोचना से बचाने के लिए नए नियमों का भी मसौदा भी तैयार कर लिया था।
फरवरी में सरकार ने फौज का मजाक बनाने वालों को पांच साल तक कैद की सजा देने का प्रस्ताव रखा। मार्च में ऐसी मीडिया रिपोर्ट आर्इं कि सरकार सोशल मीडिया पर भी फौज की आलोचना पर लगाम लगाने के उपाय कर रही थी।
फिर भी इमरान खान पिछले एक साल में अपने हमलों को लगातार तेज करते गए। नवंबर में इमरान खान की हत्या का कथित प्रयास हुआ, जिसमें उन्हें पैर में गोली लगी थी। उसके बाद इमरान खान ने एस्टेब्लिशमेंट के खिलाफ विस्फोटक किस्म के आरोप लगाना शुरू कर दिया। इमरान खान ने आरोप लगाया कि उन पर हमले की साजिश रचने में एक वरिष्ठ खुफिया अधिकारी की शरीफ के साथ मिलीभगत है।
विश्लेषक का मानना है कि शायद इमरान खान ने सोचा होगा कि वह फौज पर दबाव बनाकर और फौज की आलोचना करके फौज को मौजूदा सरकार का समर्थन बंद करने के लिए मजबूर कर सकेंगे। हत्या की साजिश के बारे में इमरान खान ने आरोप जमकर लगाए, लेकिन कभी भी अपने दावों को लेकर कोई सबूत पेश नहीं किया।
फिर भी इमरान खान की गिरफ्तारी का समय चौंकाने वाला रहा है। दरअसल, फौज के शीर्ष नेतृत्व को इमरान खान और एस्टेब्लिशमेंट के बीच दरार को दूर करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी और न वह इमरान के दबाव में आकर शहबाज शरीफ सरकार को समर्थन कम करने के लिए तैयार थी।
गिरफ्तारी के बाद इमरान खान के समर्थकों ने लाहौर में कोर कमांडर के आवास में आग लगाने और रावलपिंडी में फौज के मुख्यालय के प्रवेश द्वार पर हमला करके टकराव और बढ़ा दिया। पेशावर में भीड़ ने चगाई स्मारक तोड़ दिया। यह पाकिस्तान के पहले परमाणु परीक्षण के स्थान के सम्मान में पहाड़ के आकार की एक मूर्ति थी। इसी तरह, मारे गए सैनिकों के सम्मान में बने कई स्मारकों को भी तोड़ दिया गया। कई बड़े शहरों की सड़कों पर, सोशल मीडिया फुटेज में पीटीआई समर्थकों को फौज के वाहनों पर हमला करते और सैनिकों को लाठियों से पीटने का प्रयास करते हुए दिखाया गया है। भारतीय मीडिया इस समय एक सवाल पूछने लगता है कि क्या तख्तापलट होगा? वास्तव में फौज को तख्ता पलटने की जरूरत ही नहीं है। पर्दे के पीछे से खाकी अपने मतलब के सारे काम चला रही है।
इस झंझट के समय तो वे तख्त पर बैठना बिलकुल नहीं चाहते, जब पाकिस्तान में आटे के लिए गोलियां चल रही हैं। सब्जी, फल, दूध के दाम सचमुच आसमान छू रहे हैं। पाकिस्तानी रुपया लुढ़कते हुए ग्वादर के खारे पानी में डुबकी लगा रहा है और चीन सीपैक पर लाल हो रहा है। एफएटीएफ में जिहादी फंडिंग पर पाकिस्तान की खिंचाई हो रही है। पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में न कोई अर्थ बचा है, न कोई व्यवस्था बची है। अर्थव्यवस्था के नाम पर सिर्फ अगला कर्ज जुटाने का जुगाड़ चल रहा है ताकि कर्जों के पहाड़ का इस तिमाही या छह माही का ब्याज चुकाया जा सके।
मुसीबतें इतनी ही नहीं है। रावलपिंडी वाले खुद को जिनका आका, माई बाप समझते थे, वो तालिबान जब चाहे, पाकिस्तानी फौजियों पर गोलियां बरसा देते हैं, ‘इस्लामी बिरादरान मुल्क’ मोदी के दोस्त हो गए हैं। उंगली दिखाओ तो भारत घूंसा मार रहा है। कश्मीर से अनुच्छेद-370 खत्म हो गया। पाक परस्त हुर्रियत के अलगाववादी जेल में हताश पड़े हैं और कोई चूं नहीं बोलता, न कश्मीर में, न दुनिया में। ऐसे में गाली खाने के लिए कोई सामने होना चाहिए। पहले इमरान थे, अब शहबाज शरीफ हैं।
फौज को सत्ता पलटने की जरूरत शायद तब पड़े, जब मुस्लिम लीग पाकिस्तान और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी भी बगावत पर उतर आएं, लेकिन फिलहाल वे तो कुर्सी पर बैठे हैं और अपनी हस्ती जानते हैं। फौज इमरान की गर्दन पर खंजर रखकर भुट्टो, जरदारियों, शरीफों की आंखों में देखती है, उनकी आंखों में खौफ देखकर मुस्कुराती है।
फौज की पाकिस्तानी जनता के दिमाग पर पकड़ भी है। उसकी नजर में वे इस्लाम का दिफा (रक्षा) करने वाले मुजाहिदीन हैं। जिनकी बहादुरी के पाकिस्तानी ब्रांड किस्से सुन-सुनकर पाकिस्तान की पीढ़ियां जवान और बूढ़ी हुई हैं कि कैसे 1948 में फौज ने कश्मीर (पीओजेके) को आजाद करवाया, और 1965 में आधा हिंदुस्तान दबा लिया था। कैसे पाक नौ फौज के जंगी जहाजों ने ‘द्वारिका का किला’ तबाह किया, कैसे इस्राइल को मार लगाई, मुसलमानों के लिए परमाणु बम बनाया, 1971 में बंगालियों ने गद्दारी कर दी, नहीं तो…’
निपटाने की रणनीति
फौज की रणनीति है कि भीड़ को कम से कम बल प्रयोग करके शांत किया जाए और उसके नेताओं से सख्ती से निपटा जाए। फौज ने तैयारी कर रखी होगी। यह उनका पुराना रियाज है। उन्होंने बांग्लादेश में जो किया, जो 70 वर्षों से बलूचिस्तान में कर रहे हैं, उसके सामने ये कुछ भी नहीं है। कुछ लोगों की सजा को उदाहरण बनाकर प्रस्तुत किया जाएगा, कुछ लोग गायब कर दिए जाएंगे। दोनों तरफ नारा-ए-तकबीर की जज्बाती अपील है। जो भारी पड़ेगा पाकिस्तानी आवाम उसे नारा-ए-तकबीर के नाम पर स्वीकार कर लेगा। सो, फौज निश्चिंत है। इस समय पाकिस्तान के दूसरे राजनीतिज्ञ भी वही कर रहे हैं, जो वे हमेशा करते आए हैं। एक बकरा हलाल हो रहा है, दूसरे तमाशबीन बने हैं।
सदा से पाकिस्तानी फौज बैरक से बाहर आती रही है, पर वह हमेशा सरकार का तख्तापलट करने बाहर निकली। ऐसा पहली बार हुआ है कि फौज एक विपक्षी नेता और उसकी पार्टी को दुरुस्त करने बाहर निकली है। इमरान की पिटाई सबके लिए चेतावनी है। सरकार, नेता, अदालत, मीडिया, सभी के लिए रावलपिंडी का संदेश है- हद में रहो। इमरान को अदालत परिसर से उठाया गया। मीडिया की परवाह नहीं। सरकार की जरूरत नहीं। ये पाकिस्तान है। यहां गलियारों में फुसफुसाया जाता है-ऊपर अल्लाह, नीचे फौज। फौज इसे बार-बार सबको चेतावनी देकर साबित करती है। पहली बार फौज मुख्यालय पर हमला हुआ है। कोर कमांडर का बंगला फूंका गया है। सबक तो सिखाया जाएगा। तख्ता पलट की भी खलीफा को फिक्र नहीं। फौज के कुछ खास ब्रिगेड और डिवीजन केवल इसी काम के लिए हमेशा मुस्तैद रहते हैं।
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