सोशल मीडिया अपने कन्टेन्ट का एक हिस्सा, चर्चा के अनेक विषय आदि पारंपरिक मीडिया से प्राप्त करता है। हालांकि इसका उलटा भी उतना ही सच है। भले ही अन्ना हजारे का आंदोलन रहा हो या फिर अरब देशों की क्रांतियां, इस तरह के कामयाब अभियान सिर्फ सोशल मीडिया का ही कमाल नहीं थे।
हिंदी में एक पुरानी उक्ति प्रचलित है- तेरे बिना रहा न जाए और तेरे साथ रहते न बने। इस नजरिए से देखें तो पारंपरिक मीडिया और सोशल मीडिया एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी नजर आते हैं लेकिन इनका रिश्ता कुछ ऐसा है कि कभी वे मित्र दिखाई देते हैं तो कभी प्रतिद्वंद्वी। इसमें मजेदार तथ्य यह है कि सोशल मीडिया अपने कन्टेन्ट का एक हिस्सा, चर्चा के अनेक विषय आदि पारंपरिक मीडिया से प्राप्त करता है। हालांकि इसका उलटा भी उतना ही सच है। भले ही अन्ना हजारे का आंदोलन रहा हो या फिर अरब देशों की क्रांतियां, इस तरह के कामयाब अभियान सिर्फ सोशल मीडिया का ही कमाल नहीं थे। उनमें वैचारिक गहराई लाने, प्रामाणिकता देने और तार्किक आधार प्रदान करने में पारंपरिक मीडिया की भी भूमिका रही।
वास्तव में पारंपरिक मीडिया भी अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए सोशल मीडिया का सहारा ले रहा है जो उसे नये दर्शकों/पाठकों और नये इलाकों तक पहुंचने में मदद करता है। आज किसी भी छोटे से छोटे शहर के अखबार ई-पेपर, वेबसाइट, यूट्यूब चैनल, फेसबुक और एप्प के जरिए अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया जैसे देशों के पाठकों तक पहुंच रहे हैं। किंतु उधर सोशल मीडिया की सामग्री भी पारंपरिक मीडिया के जरिये एक अलग श्रेणी के पाठक-श्रोता तथा दर्शक वर्ग तक पहुंचती है।
हां, नए मीडिया और सोशल मीडिया की बदौलत सूचनाओं पर पारंपरिक मीडिया का एकाधिकार अब समाप्त हो रहा है। नया मीडिया विविधता लाता है, एक से अधिक पहलुओं, पक्षों तथा दृष्टिकोणों को लाता है। संपादकीय नियंत्रण तथा प्रक्रियाओं का अभाव उसकी सीमा है, लोकप्रिय कन्टेन्ट की प्रकृति भी एक चुनौती है किंतु अभिव्यक्ति तथा सूचना संप्रेषण के माध्यम के रूप में उसकी शक्ति वाकई अद्भुत है। वहां पर रिपोर्टर के रूप में आम आदमी की भूमिका कई बार हैरत में डाल देती है।
सीआईए ने जब ओसामा बिन लादेन को ऐबटाबाद में मार गिराया तो किसी भी दूसरे माध्यम से खबर आने से पहले उसी शहर के एक शख्स ने ट्विटर पर टिप्पणी डाल दी थी कि हमारे शहर में आज की रात कुछ बड़ा हो रहा है। इराक युद्ध में, जब युद्ध क्षेत्र से सूचनाओं के स्रोत उपलब्ध नहीं थे, कुछ सामान्य लोग सोशल मीडिया के जरिए दुनिया तक ताजा हाल पहुंचा रहे थे।
इंटरनेट दुनिया को जोड़ता है, इसलिए पहुंच के मामले में सोशल मीडिया पारंपरिक मीडिया की तुलना में अत्यन्त शक्तिशाली है। वह समय और भूगोल की सीमाओं से भी काफी हद तक मुक्त है। वास्तव में पारंपरिक मीडिया भी अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए सोशल मीडिया का सहारा ले रहा है जो उसे नये दर्शकों/पाठकों और नये इलाकों तक पहुंचने में मदद करता है। आज किसी भी छोटे से छोटे शहर के अखबार ई-पेपर, वेबसाइट, यूट्यूब चैनल, फेसबुक और एप्प के जरिए अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया जैसे देशों के पाठकों तक पहुंच रहे हैं। किंतु उधर सोशल मीडिया की सामग्री भी पारंपरिक मीडिया के जरिये एक अलग श्रेणी के पाठक-श्रोता तथा दर्शक वर्ग तक पहुंचती है।
सोशल मीडिया सदैव अपडेट रहता है और हमेशा उपलब्ध है। प्रयोग का खर्च भी निरंतर घटता चला जा रहा है जो मूलत: कनेक्टिविटी के खर्च तक सीमित है। आज की खबर अखबार के जरिए आपको कल जानने को मिलेगी और टेलीविजन पर कुछ घंटों में लेकिन सोशल मीडिया पर वह उसी समय (रियल टाइम पर) उपलब्ध हो सकती है जबकि वह घटित हो रही है। आप चौबीसों घंटे विश्व के घटनाक्रम, विमर्श तथा संवाद से जुड़े हुए हैं।
पारंपरिक मीडिया में इंटरएक्टिविटी का तत्व बेहद सीमित है। पाठक, श्रोता या दर्शक मीडिया के साथ सीधे संपर्क कर सकें, इसकी गुंजाइश बहुत सीमित है। संपादक के नाम पत्र, रेडियो-टेलीविजन कार्यक्रम को चिट्ठियां या टेलीफोन कॉल बहुत आदिम किस्म की इंटरएक्टिविटी लगती है। इंटरनेट के आने के बाद पारंपरिक मीडिया के लिए इंटरएक्टिविटी का नया अध्याय खुल गया है। फेसबुक, यूट्यूब, ट्विटर, व्हाट्सएप्प और यहां तक कि ईमेल भी… आपको इन तकनीकी मंचों पर आना भर है और संवाद शुरू।
(लेखक माइक्रोसॉफ्ट में निदेशक- भारतीय भाषाएं और
सुगम्यता के पद पर कार्यरत हैं)।
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