मुंबई हमले के दोषी कसाब को वर्ष 2010 में आज ही के दिन (6 मई) को फांसी की सजा सुनाई गई थी। आतंकियों ने मुंबई पर 26 नवंबर 2008 को हमला किया था। 26/11 की रात कॉमा अस्पताल में सिस्टर मीना और सिस्टर योगिता भी थीं। कैसे वह खौफनाक मंजर शुरू हुआ, किस तरह स्थिति संभालने की कोशिश की, आज भी सिहर जाता है मन। पाञ्चजन्य ने नवंबर 2022 में मुंबई में मुंबई संकल्प कार्यक्रम का आयोजन किया था। इसमें दोनों पीड़ितों ने उन खौफनाक पलों की कहानी सुनाई।
वह 26/11 की रात थी। जिनकी जीवन यात्रा समाप्त हो गई, वे तो अपने पीछे आंसुओं का सैलाब छोड़ गए। जिन्होंने मौत का वह भयानक मंजर अपनी आंखों से देखा, कल की सुबह देखेंगे कि नहीं, परिजन, मित्र सब छूटते हुए लग रहे थे, आतंकवादियों से आमना-सामना हुआ, और सौभाग्यशाली रहे कि बच गए, वे आज भी उन पलों को याद कर सदमे में डूब जाते हैं।
मम्मी तुम नाइट ड्यूटी पर मत जाओ
मीना जाधव ने बताया कि ‘उस दिन मेरी नाइट ड्यूटी थी। रोज की तरह मैं ड्यूटी पर पहुंचीं। चौथी मंजिल पर अपने वार्ड में पहुंच कर नियमित कामकाज में तल्लीन हो गई। रात नौ-साढ़े नौ बजे पटाखों की आवाज आई। देव-दीपावली के आसपास का समय था। तो मान लिया कि पटाखे छोड़े जा रहे होंगे। लेकिन आवाज कुछ अलग थी, लगा कि फैंसी पटाखे होंगे। कुछ मरीज अपनी पास की खिड़कियों से बाहर झांकने लगे तो नीचे लोग भागते-दौड़ते दिखे। उन्होंने बताया कि लोग भाग रहे हैं। मैंने मरीजों से तनाव न लेते हुए सोने को कह दिया।
नीचे से पटाखों की आवाज आ रही थी। लगा कि मैच होगा तो पटाखे बज रहे होंगे। परंतु मरीज बताने लगे कि टाइम्स आफ इंडिया वाली गली से कुछ लोग भाग रहे हैं। पता चला कि आतंकवादी सीएसटी स्टेशन पर गोलीबारी करने के बाद टाइम्स की गली से होते हुए हमारे अस्पताल के पीछे के गेट से अंदर आ गए।
फिर मैंने खुद खिड़की से देखा। दो आदमी गेट से अंदर आ रहे थे। बाद में पता चला कि वह कसाब था। तब तक यह अंदाज हो गया कि कुछ गड़बड़ है। सबसे पहले लाइट आफ की, फिर मरीजों, उनके परिजनों, स्टाफ को लेकर बेड के नीचे, बाथरूम में छिप गए। दो मरीज नहीं हटाए जा सके। उनमें एक अर्ध बेहोशी में था, दूसरे का उसी दिन आपरेशन हुआ था। उन्होंने कहा, हमे यहीं रहने दो, जो होगा, देखा जाएगा, बाकी को बचाओ।
हमारे अस्पताल का मेन गेट हमेशा खुला रहता है। मैं एक कर्मचारी के साथ गेट बंद करने गई। घबराहट में गेट बंद ही नहीं हो रहा था। उस समय हमने एक आदमी को ऊपर जाते देखा, वह कसाब था। तब नहीं मालूम था। वह हमारे सामने के वार्ड में होकर आया। मैं टंकी के पीछे से देख रही थी। यह देखने के बाद मैं सुन्न पड़ गई। मेरे पांवों में जान नहीं थी। एक-डेढ़ घंटे बाद सुरक्षाकर्मी आए। खिड़की से देखा तो थोड़ी आश्वस्त हुई। लेकिन फायरिंग इतने जोर-जोर से हो रही थी कि हमें लगा कि दीवार पूरी गिर जाएगी और हम सब वहां खत्म हो जाएंगे। हम कभी सुबह नहीं देखेंगे। बहुत खराब स्थिति थी। कभी भूल नहीं पाएंगे उस दिन को।
तब मेरे बच्चे छोटे थे। अभी बेटा 22 साल का हो गया है। उसके मन में डर बैठ गया है। अभी भी मुझे बोलता है कि मम्मी तुम नाइट ड्यूटी पर मत जाओ। मैं तो बाद में व्यवस्थित हो गई पर वह उस रात की दहशत को भूल नहीं पाता।’
मम्मी को किया आखिरी कॉल
कॉमा अस्पताल की एक अन्य सिस्टर योगिता बागड़ पांचवीं मंजिल पर स्थित पीएनसी वार्ड में थीं जहां जच्चा-बच्चा को रखा जाता है। योगिता बताती हैं कि उनकी नाइट ड्यूटी थी। रोज की तरह अस्पताल पहुंची, वार्ड में अपने काम में लग गई। वार्ड में करीब 35 जच्चा और उनके नवजात बच्चे थे। मैं अपनी वरिष्ठ नीता मुरंजन और दो मौसी लोगों के साथ साढ़े नौ बजे खाने बैठी। नीचे से पटाखों की आवाज आ रही थी। लगा कि मैच होगा तो पटाखे बज रहे होंगे। परंतु मरीज बताने लगे कि टाइम्स आफ इंडिया वाली गली से कुछ लोग भाग रहे हैं। पता चला कि आतंकवादी सीएसटी स्टेशन पर गोलीबारी करने के बाद टाइम्स की गली से होते हुए हमारे अस्पताल के पीछे के गेट से अंदर आ गए।
लेकिन 10-15 मिनट बाद अस्पताल का एक सर्वेंट नीचे से भागते-भागते आया कि सब लोग छुप जाओ। अपने यहां दो वाचमैन को गोली लगी है। आतंकवादियों ने नीचे दोनों वाचमैन को गोली मार दी थी। और वे आतंकवादी नीचे से भागते-भागते ऊपर तक आ गए। पहले चौथी मंजिल, फिर हमारी पांचवीं मंजिल और फिर ऊपर आडिटोरियम तक गए। उनके पीछे पुलिस आ रही थी।
बाहर जमकर फायरिंग चल रही थी। लग रहा था कि अगर फायरिंग से नहीं मरे तो आतंकवादी जो ग्रेनेड डाल रहे थे, उसकी वजह से बिल्डिंग नीचे गिर जाएगी। हम लोग उसमें मर सकते हैं। ढाई बजे के आस-पास कमांडो अस्पताल में आ गए और हम लोगों को बाहर निकाला। तब तक हम लोगों को सांस लेने में दिक्कत होने लगी थी। इतने छोटे कमरे में इतने लोग बैठे थे। वेंटिलेशन नहीं था। मेरी स्थिति यह हो गई थी कि मैं ऊपर की खिड़की फोड़ दूं ताकि हवा अंदर आ जाए। तब तक कमांडो ने हम लोगों को बाहर निकाला।
हमारा वार्ड बहुत फैला हुआ है। इतने सारे मरीजों को पांच मिनट में एकत्र करना, उनके बेबी को एकत्र करना, जो सिजेरियन आपरेशन हैं, उनको उठाना, फिर उनके सब रिश्तेदारों को उठाना और कहां छुपाएं, ये बहुत बडा टास्क था हमारे लिए। पर हम दो ही जने थे, फिर भी हम लोग ने किसी तरह व्यवस्था की। एक साइड में एकदम छोटा सा कमरा था, वेंटिलेशन भी नहीं था। हमने लोगों को बोला कि यहां छुप जाओ। सबको उठाया, फटाफट लाइट आफ किया, घुप्प अंधेरा कर दिया और उसके बाद हम अस्पताल का गेट बंद करने चले। ताला नहीं मिल रहा था। फिर एक ताला मिला तो जैसे ही हम लोग गेट बंद करने गए, आतंकवादी हमारे सामने खड़े थे। लेकिन सब लाइट आफ थी तो उनकी नजर हमारी तरफ नहीं गई, लेकिन हम लोग ने उनको देखा। उसके बाद सब मरीजों को कमरे में छिपा कर कुंडी लगा दी। कमरे में जच्चा, उनके शिशु, उनके परिजन, हम लोग, सब एक-दूसरे के ऊपर बैठे थे।
फिर मेरी मंजिल और छठी मंजिल के बीच आतंकवादियों और पुलिस के बीच फायरिंग चालू हो गई। मैंने जिंदगी में कभी फायरिंग की आवाज नहीं सुनी थी। मेरे कमरे के ठीक बगल वाले कमरे के बाहर फायरिंग चालू हुई। आतंकवादियों ने चार ग्रेनेड फेंके। पूरी बिल्डिंग कांप रही थी। हम लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि बाहर क्या चल रहा है। लेकिन कुछ तो भयंकर चालू है, इतना पता था। सभी बच्चे रो रहे थे। मैंने सब माताओं को बोला कि अपने बच्चे को लगातार फीड करते रहो ताकि बेबी की आवाज बाहर न जाए। आवाज बाहर जाती तो गेट का ताला तोड़ना उनके लिए बड़ी बात नहीं थी।
फिर मैंने सबके मोबाइल ले लिये और सबको साइलेंट पर डाल दिया। लेकिन सबसे कहा कि एक बार अपने घर बात कर लो। किसी को पता नहीं था कि ये हमारी आखिरी रात है या कल हम फिर से बचेंगे या नहीं बचेंगे। सबने धीमी आवाज में अपने घर बात की। मैं तब 24 साल की थी। मैंने भी मेरी मम्मी को कॉल किया था। इतना ही बोला था कि मैं कल आऊंगी कि नहीं, मुझे पता नहीं। वे जोर-जोर से रोने लगीं। मेरे हाथ में गणपति अथर्वशीष का एक छोटा सा टुकड़ा था।
मैं उसे लगातार पढ़ रही थी। बाहर जमकर फायरिंग चल रही थी। लग रहा था कि अगर फायरिंग से नहीं मरे तो आतंकवादी जो ग्रेनेड डाल रहे थे, उसकी वजह से बिल्डिंग नीचे गिर जाएगी। हम लोग उसमें मर सकते हैं। ढाई बजे के आस-पास कमांडो अस्पताल में आ गए और हम लोगों को बाहर निकाला। तब तक हम लोगों को सांस लेने में दिक्कत होने लगी थी। इतने छोटे कमरे में इतने लोग बैठे थे। वेंटिलेशन नहीं था। मेरी स्थिति यह हो गई थी कि मैं ऊपर की खिड़की फोड़ दूं ताकि हवा अंदर आ जाए। तब तक कमांडो ने हम लोगों को बाहर निकाला।
टिप्पणियाँ