कर्नाटक विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों के घोषणापत्र जारी होते ही रेवड़ी कल्चर की बहस पुनः केंद्र में आ गई है। पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने ऐन चुनाव के पहले रेवड़ी कल्चर पर नाराजगी जताते हुए कहा था कि सरकार और चुनाव आयोग न तो मुफ्त योजनाओं को लेकर पल्ला झाड़ सकते हैं और न ही यह सकते हैं कि वे कुछ नहीं कर सकते। सुप्रीम कोर्ट ने मुफ्त घोषणाओं की नीति पर नजर रखने के लिए एक्सपर्ट का पैनल बनाने का फैसला किया है जिसमें नीति आयोग, वित्त आयोग, चुनाव आयोग, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और राजनीतिक दलों के सदस्य शामिल हैं। यह पैनल हर चुनाव में होने वाली घोषणाओं की कुल लागत का आकलन करेगा और ऑस्ट्रेलिया की तर्ज पर उसे प्रकाशित भी किया जाएगा। पिछले वर्ष अगस्त में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे के उद्घाटन के अवसर पर कहा था कि ‘वोट के लिए मुफ्त में सुविधाएं बांटने वाला कल्चर देश के आर्थिक विकास के लिए बहुत महंगा पड़ सकता है। मुफ्त का यह कल्चर युवाओं के वर्तमान को खत्म करके भविष्य को अंधेरे में धकेल देगा। जो लोग मुफ्त की सुविधाएं बांटने का ऐलान करते हैं, वे बुनियादी ढांचा बनाने और देश के भविष्य को संवारने में कोई योगदान नहीं देते।’
सुप्रीम कोर्ट और प्रधानमंत्री भविष्य के जिस खतरे की ओर इशारा कर रहे हैं उसे संभवतः राजनीतिक दल या तो समझना नहीं चाहते अथवा अपनी राजनीतिक दुकान चलायमान रखने के लिए वे देश के साथ द्रोह करने से भी बाज नहीं आ रहे। जी हाँ, सीमा से अधिक मुफ्त की रेवड़ियां देश के साथ द्रोह ही है। यदि यकीन न हो तो पड़ोसी देश श्रीलंका का उदाहरण सामने है। आईएमएफ ने 2015 में श्रीलंका सरकार को चेताते कहा था कि उसका राजकोषीय घाटा अन्य देशों के मुकाबले बहुत ज्यादा है और सरकारी कर्ज भी जीडीपी के 100 फीसद से ऊपर चला गया है। इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार ने टैक्स में इजाफा किया जिससे निजी निवेश व खर्च घटता चला गया। सरकार के राजस्व का अधिकतर भाग कर्ज की ब्याज दरें चुकाने में ही चला गया और श्रीलंका से ‘श्री’ रूठ गई। हालांकि भारत श्रीलंका नहीं है किन्तु जीडीपी के अनुपात में हमारा कर्ज भी लगतार बढ़ रहा है। एक अनुमान के अनुसार यह जीडीपी का 91 फीसद पहुंच गया है जो 48 फीसद तय लक्ष्य से काफी अधिक है। वर्तमान में सरकार का 26 फीसद राजस्व कर्ज की ब्याज दरें चुकाने में जाता है जो अन्य देशों के मुकाबले अपेक्षाकृत अधिक है।
कर्नाटक में पार्टियों ने मुफ्त रेवड़ियों का स्टॉल लगा दिया
भाजपा के घोषणापत्र ‘प्रजा ध्वनि’ को जारी करते हुए राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कर्नाटक की जनता से कई लोक-लुभावन वादे किए। बीपीएल परिवारों को रोज आधा किलो नंदिनी दूध, युगादी, गणेश चतुर्थी और दीपावली पर 3 गैस सिलेंडर मुफ्त देने की घोषणा के साथ ही राज्य के दस लाख बेघर लोगों को रहने के लिए मकान, महिला, एससी-एसटी घरों के लिए 5 साल का दस हजार रुपए फिक्सड डिपॉजिट, सीनियर सिटिजन के लिए हर साल मुफ्त हेल्थ चेकअप की सुविधा, शहरी गरीबों को पांच लाख घर, मुफ्त भोजन के लिए अटल आहार केंद्र खोलना, वोक्कालिंगा और लिंगायत के लिए आरक्षण दो-दो प्रतिशत बढ़ाना, तीस लाख महिलाओं के लिए फ्री बस यात्रा पास, बेट्टा कुरबा, सिद्दी, तलवारा और परिवारा समुदाय को आदिवासी सूची में शामिल करना, तिरुपति, अयोध्या, काशी, रामेश्वरम, कोल्हापुर, सबरीमाला और केदारनाथ की देव यात्रा में जाने के लिए गरीब परिवारों को 25 हजार रुपए की मदद, किसानों के लिए प्रत्येक ग्राम पंचायत में माइक्रो कोल्ड स्टोरेज सुविधाएं, कृषि प्रसंस्करण इकाइयां स्थापित करने और कृषि उपज समितियों के आधुनिकीकरण के लिए 30 हजार करोड़ रुपए के फंड का वादा किया है। इसके अलावा पीआइएफ पर बैन, एनआरसी, समान नागरिक संहिता जैसे पारंपरिक मुद्दों पर आगे बढ़ने का वादा भी किया गया है।
वहीं कांग्रेस ने भी कर्नाटक की जनता के लिए मुफ्त घोषणाओं का टोकरा प्रस्तुत कर दिया है। गृह ज्योति के तहत राज्य में सभी घरों में 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली, परिवार की प्रत्येक महिला मुखिया को 2000 रुपये, बीपीएल परिवार के प्रत्येक व्यक्ति को प्रति माह 10 किलो अनाज, बेरोजगार स्नातकों को प्रति माह 3000 रुपये, युवा निधि के तहत बेरोजगार डिप्लोमा धारकों को 1500 रुपये, केएसआरटीसी/बीएमटीसी बसों में पूरे राज्य में सभी महिलाओं को मुफ्त यात्रा, रात में ड्यूटी करने वाले पुलिस वालों को 5000 रुपये का विशेष भत्ता, समुद्र में मछली पकड़ने के लिए हर साल 500 लीटर टैक्स फ्री डीजल, 1000 करोड़ का सीनियर सिटिजन वेलफेयर फंड बनाना, पांच हजार वुमेन इंटरप्रेन्योर को सहयोग, 25 हजार सिविक वर्कर्स को रेगुलेराइज करने का वादा, प्रत्येक पूरकर्मिका का 10 लाख तक का इंश्योरेंस, दूध सब्सिडी को 5 रुपए से बढ़ाकर 7 रुपए करना, भेड़-बकरी के लिए किसानों का एक लाख रुपए तक का लोन माफ करना जैसे लोक-लुभावन वादे किए गए हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री और जेडीएस प्रमुख एचडी देवेगौड़ा ने पार्टी का घोषणापत्र जारी करते हुए महिलाओं को एक साल में पांच कुकिंग सिलेंडर, गर्भवती महिलाओं को छह महीने के लिए छह हजार रुपये, विधवा महिलाओं को 900 रुपये की जगह 2500 रुपये सहायता राशि, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को पांच हजार रुपये सैलरी, 15 साल की सेवा पूरी करने वाले व्यक्तियों के लिए पेंशन, प्रति एकड़ 10000 रुपये की सब्सिडी, किसान तथा खेतिहर मजदूरों को 2000 रुपये मासिक भत्ता, कृषि करने वाले युवाओं से शादी करने वाली महिलाओं को 2 लाख रुपये की सब्सिडी, निजी क्षेत्र में कन्नडिगा के लिए आरक्षण, सरकारी कॉलेजों में पढ़ने वाली 60000 छात्राओं को मुफ्त में 6.8 लाख साइकिल और ईवी मोपेड वितरित करने का प्रस्ताव रखा है।
दिल्ली के बढ़ते कर्ज से सीख लें राजनीतिक दल
दिल्ली में आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल जबसे दिल्ली के मुख्यमंत्री बने हैं, उन्होंने मुफ्त बिजली, पानी और मोहल्ला क्लीनिक का मॉडल पेशकर अन्य राजनीतिक दलों को भी मुफ्त की घोषणाएं करने को राजनीतिक रूप से बाध्य कर दिया। दिल्ली की जनता को भी मुफ्त योजनाओं की आदत सी हो गई है किन्तु इससे दिल्ली सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ता जा रहा है। राज्य का बुनियादी ढांचा चरमरा गया है। यही हाल पंजाब में भी है क्योंकि आम आदमी पार्टी ने वहां भी 300 यूनिट बिजली फ्री का सब्जबाग दिखाकर सत्ता पाई है। यदि मुफ्त की बिजली से हो रहे राजकोषीय घाटे तो देखें तो दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री ने 2021-22 के बजट में ऊर्जा क्षेत्र के लिए 3227 करोड़ रुपए का प्रस्ताव रखा था जिसमें से 3090 करोड़ रुपए केवल बिजली सब्सिडी के लिए आवंटित थे। जिसका अर्थ हुआ कि बजट के कुल आवंटन का 96 प्रतिशत। यदि उपभोक्ता अपने इस्तेमाल की गई बिजली का पैसा देता तो उसका इस्तेमाल किसी दूसरे कार्यों में किया जा सकता है। सिर्फ दिल्ली ही नहीं, अन्य राज्य सरकारों ने भी मुफ्त बिजली की चुनाव पूर्व घोषणा की और चुनाव जीतने के बाद उन्हें जनता को मुफ्त बिजली देना पड़ी। एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में बिजली वितरण कंपनियों यानी डिस्कॉम का राज्य सरकारों पर कुल बकाया बढ़कर लगभग तीन लाख करोड़ रुपये से ऊपर पहुंच गया है।
मुफ्त रेवड़ी कल्चर पर लगाम ज़रूरी है
देश में अत्यधिक मात्रा में चल रही कल्याणकारी योजनाओं पर अब लगाम कसने की जरूरत है क्योंकि यदि ये योजनाएं देश की आर्थिक स्थिरता से अधिक होंगी तो निश्चित रूप से विकास पर इसका गहरा असर पड़ेगा। सरकारों को चाहिए कि वे जनता को मुफ्त रेवड़ियों के जाल में फंसाने के बजाए सार्वजानिक सेवा नीति अर्थात पब्लिक सर्विस पॉलिसी में सुधार करें ताकि सत्ता में आने के लिए उन्हें देश के आर्थिक संसाधनों पर बोझ न बनना पड़े। इसके अलावा यदि किसी कारणवश मुफ्त की योजनाओं को लागू करने की आवश्यकता पड़े तो सरकारों तथा चुनाव पूर्व राजनीतिक दलों से उनके आर्थिक क्रियान्वयन के मॉडल पर भी बात होना आवश्यक है ताकि लोकतंत्र में जनता की भागीदारी सच्चे अर्थों में सुनिश्चित हो सके। जब सरकारें तथा राजनीतिक दल मुफ्त योजनाओं के लिए फंड जुटाने के तरीकों को सार्वजनिक करेंगे तो निश्चित रूप जनता को मुफ्त और कल्याणकारी योजना में फर्क समझ आएगा। हालांकि इस मुफ्त की रेवड़ी की संस्कृति को समाप्त करना भी जनता के हाथ में है क्योंकि जनता शायद यह भूल गई है कि इस प्रकार के लाभ सरकारी खजाने की कीमत पर और स्वयं जनता द्वारा दिए गए आयकर से दिए जाते हैं। उक्त लाभ किसी भी राज्य के आर्थिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं जिसकी कीमत अंततः जनता को ही चुकानी पड़ती है। अतः जनता स्वयं मुफ्त रेवड़ियां बांटने वाले दलों की सियासी जमीन खिसका दे तो इस संस्कृति पर लगाम लगेगी।
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