गोपालगंज के तत्कालीन जिलाधिकारी जी. कृष्णैया की हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा काट रहे पूर्व सांसद आनंद मोहन सिंह को रिहा कर दिया है। इस घटना के गहरे निहितार्थ हैं। वास्तव में बिहार सरकार के दोनों मुखियाओं ने इस रिहाई के साथ यह अनकहा संदेश दे दिया है कि वे अपराधियों और राजनीति के अपराधीकरण के पक्ष में हैं।
बिहार सरकार ने गोपालगंज के तत्कालीन जिलाधिकारी जी. कृष्णैया की हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा काट रहे पूर्व सांसद आनंद मोहन सिंह को रिहा कर दिया है। इस घटना के गहरे निहितार्थ हैं। वास्तव में बिहार सरकार के दोनों मुखियाओं ने इस रिहाई के साथ यह अनकहा संदेश दे दिया है कि वे अपराधियों और राजनीति के अपराधीकरण के पक्ष में हैं। और यह कि वे माफियाओं के खिलाफ अभियान चलाने वाली भाजपा की उत्तर प्रदेश सरकार के सबसे धुर विरोधी हैं। इससे वे विपक्ष की आपाधापी में अपने संभावित ‘सहयोगी दलों’ या ‘समान विचार वाले दलों’ से एक कदम आगे निकल जाते हैं।
इसके निहितार्थ बिहार के लिए भी हैं। कानून और व्यवस्था की स्थिति पर नियंत्रण पाकर उत्तरप्रदेश विकास की राह पर चल पड़ा है। कानून और व्यवस्था विकास की पहली शर्त मानी जाती है। लेकिन बिहार सरकार का संदेश यह है कि वह बिहार को चिरस्थायी बीमारू बनाए रखने के पक्ष में हैं।
तीसरा अभिप्राय यह कि बिहार के जातिवाद को और तीखा किया जाए, ताकि विकास से जुड़े विषय यहां के राजनीतिक विमर्श से ही बाहर हो जाएं।
आनंद मोहन सिंह के जेल जाने से लेकर उनकी रिहाई तक का मामला किसी फिल्मी पटकथा की तरह है। कल तक नीतिश कुमार की राजनीति को यह बात जंच रही थी कि आनंद मोहन सिंह जेल में रहें, और आज मामला उलट है। नीतिश कुमार ने ही यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया था कि आनंद मोहन को फांसी हो जाए। समय बदलने पर नीतिश कुमार ने ही आनंद मोहन सिंह की रिहाई के लिए नियम बदल दिए।
आनंद मोहन सिंह के साथ-साथ लगभग दो दर्जन से ज्यादा और सजायाफ्ता लोग रिहा किए गए हैं। जाहिर सी बात है कि यह लोग भी किसी न किसी जाति से संबंधित हैं। इस मामले को मौका बनाकर सीपीआई (एमएल) ने भी यह दबाव बनाना शुरू किया है कि जेल में बंद छह प्रमुख नक्सलियों को भी रिहा किया जाए, जिन्हें टाडा के तहत सजा सुनाई गई है। सीपीआई (एमएल) जिन्हें छोड़ने की बात कह रही है, किसी न किसी जाति से संबंध तो उनका भी है।
नीतिश कुमार जातिवादी राजनीति के एकल खिलाड़ी हैं, तो लालू पुत्र पूरी टीम हैं। अपराधियों की रिहाई से ज्यादा लाभ किसे होगा? लालू प्रसाद के परिवार को या नीतीश के दांवपेंचों को? रिहाई का श्रेय लेने से बस एक कदम पीछे रह जाने और अपने लिए उपयुक्त लोगों को रिहा करवाने का इंतजार करने के अंदाज में बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने रिहाई के मसले पर कहा – ‘इसमें विवाद क्या है?’
यह अभी अनुमान का विषय है कि आनंद मोहन सिंह की रिहाई से सीपीआई (एमएल) को नक्सलियों की रिहाई की मांग उठाने का मौका मिला, या सीपीआई (एमएल) को यह मौका देने के लिए आनंद मोहन सिंह की रिहाई कराई गई। हालांकि छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले की घटना से बिहार में नक्सलियों की रिहाई का विचार फिलहाल ठंडे बस्ते में जरूर चला गया है। किनकी रिहाई? जो अपराधी हैं, और सजायाफ्ता हैं। लेकिन राजनीति का इरादा यह है कि ये अपराधी अपनी-अपनी जाति के हीरो के तौर पर पहचाने जाएं, उनकी रिहाई की मांग हो, जरूरत पड़ने पर आंदोलन हो, और रिहा होने पर किसी हीरो की तरह उनका स्वागत हो, ताकि वे खुल कर अपनी राजनीतिक उपयोगिता साबित कर सकें।
लेकिन खेल अभी बाकी है। अगर नीतिश कुमार जातिवादी राजनीति के एकल खिलाड़ी हैं, तो लालू पुत्र पूरी टीम हैं। अपराधियों की रिहाई से ज्यादा लाभ किसे होगा? लालू प्रसाद के परिवार को या नीतीश के दांवपेंचों को? रिहाई का श्रेय लेने से बस एक कदम पीछे रह जाने और अपने लिए उपयुक्त लोगों को रिहा करवाने का इंतजार करने के अंदाज में बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने रिहाई के मसले पर कहा – ‘इसमें विवाद क्या है?’
प्रेक्षकों का मानना है कि यह देखने लायक होगा कि क्या बिहार सरकार के किसी प्रत्यक्ष या परोक्ष कार्य से मृतप्राय: नक्सलवाद पुनर्जीवित हो जाएगा? वैसे बिहार की राजनीति में अभी एक दांव और शेष है, वह है जातिगत जनगणना। इसका उद्देश्य जाति विमर्श नहीं बल्कि जातिवाद को और तीखा करना है। मैदान में उतरे अपराधी इसमें भी मददगार साबित होंगे।
टिप्पणियाँ