सूचनाएं प्रसारित करने वाले अधिकांश लोग प्रशिक्षित कन्टेन्ट निर्माता या पत्रकार नहीं होते। इनमें से अधिकांश को किसी सार्वजनिक माध्यम के प्रयोग से संबंधित उत्तरदायित्वों और मर्यादा की जानकारी नहीं होती।
सोशल मीडिया पर प्रसारित सामग्री की प्रामाणिकता पर अक्सर संदेह प्रकट किया जाता है। पारंपरिक मीडिया की तरह यहां संपादकीय छानबीन, तथ्यों की जांच या संपादन की व्यवस्था नहीं होती और न ही सूचना के स्रोतों का उल्लेख करने की अनिवार्यता है। सूचनाएं प्रसारित करने वाले अधिकांश लोग प्रशिक्षित कन्टेन्ट निर्माता या पत्रकार नहीं होते। इनमें से अधिकांश को किसी सार्वजनिक माध्यम के प्रयोग से संबंधित उत्तरदायित्वों और मर्यादा की जानकारी नहीं होती।
सोशल मीडिया मंचों पर प्रसारित सूचनाएं अक्सर विषय के छोटे भाग पर ही केंद्रित रहती हैं, वे अपने-आप में पूर्ण नहीं होतीं। पारंपरिक मीडिया की तुलना में सोशल मीडिया कन्टेन्ट में गहराई की कमी देखी जाती है। एक तो इन माध्यमों पर लोग सूचनाओं को छोटे कैप्सूल के रूप में ग्रहण करना ज्यादा पसंद करते हैं और दूसरे सूचना पोस्ट करने के लिए कोई पूर्व-योग्यता नहीं है। इसलिए पाठक और लेखक दोनों ही स्तरों पर सीमाएं आड़े आ जाती हैं। किसी घटना या विषय पर दी गई सूचनाओं के ये छोटे कैप्सूल नाकाफी तो हैं ही, ये एकतरफा, असत्य और त्रुटिपूर्ण भी हो सकते हैं। ऐसे में पाठक का दायित्व बन जाता है कि वह अनेक स्रोतों से सूचना इकट्ठी करके अपने मस्तिष्क में खुद उस घटना या विषय का पूरा चित्र बनाए। अक्सर लोगों के पास इसके लिए आवश्यक योग्यता, समय या संसाधन नहीं होते और ऐसे में वे एक सीमित दायरे में प्रसारित सूचनाओं पर निर्भर रहने लगते हैं और इसके परिणामस्वरूप उनसे प्रभावित भी होने लगते हैं।
सोशल मीडिया के तकनीकी पक्षों पर भी गौर किया जाना चाहिए। यहां सूचनाएं पोस्ट करना सामान्य प्रयोक्ता के हाथ में है लेकिन उन्हें लोगों तक कैसे पहुंचाया जाएगा, इस पर उनका नियंत्रण नहीं है। कौन-सी सूचना किस वर्ग के पाठकों, श्रोताओं या दर्शकों तक पहुंचेगी, इसका निर्धारण कई फिल्टर्स के आधार पर किया जाता है। संबंधित सोशल मीडिया मंच (जैसे ट्विटर, फेसबुक, इन्स्टाग्राम, यूट्यूब आदि) कन्टेन्ट के प्रसारण के लिए अपने एल्गोरिद्म (तकनीकी गणनाओं तथा सूत्रों) का इस्तेमाल करते हैं- मसलन यह कि फलां कन्टेन्ट किस आयु वर्ग, किस लिंग, किस स्थान, किस व्यावसायिक पृष्ठभूमि आदि के लोगों को भेजना है।
यहां पर स्तरीय, तथ्यपूर्ण, प्रामाणिक कन्टेन्ट को प्रमोट किया जाए, इसके विपरीत कन्टेन्ट प्रमोट तथा लोकप्रिय हो जाए, यह बहुत संभव है। किसी कन्टेन्ट को लोकप्रिय बनाने के लिए बॉट्स, ट्रोल्स और पेड इन्फ्लुएंसर्स का भी इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे में यहां पर लोकप्रियता का संबंध गुणवत्ता हो, यह आवश्यक नहीं।
इसी तरह से, कन्टेन्ट के भीतर किन शब्दों का प्रयोग हुआ है, विषय कितना सामयिक व लोकप्रिय है तथा उसे देखने वालों के बीच क्या रुझान प्रतीत हो रहा है (लोगों की प्रतिक्रियाएं, संख्या) आदि का भी स्वचालित ढंग से तकनीकी विश्लेषण किया जाता है और उसके आधार पर संबंधित माध्यम पर मौजूद अथाह सामग्रियों का समायोजन चलता रहता है तथा उसकी वरीयताएं बदलती रहती हैं।
मशीनी आधार पर किसी कन्टेन्ट की गुणवत्ता, उसके लोकप्रिय होने की क्षमता और व्यावसायिक अनुकूलता जांचे जाने के दोनों ही पहलू हैं- हो सकता है कि वह कन्टेन्ट सचमुच उपयुक्त लोगों तक पहुंचाया जाए और यह भी हो सकता है कि सोशल मीडिया मंच अपने लाभ (विज्ञापनों के लिए अनुकूलता आदि) के लिए उसे किसी अन्य वर्ग तक पहुंचा दे। आवश्यक नहीं कि यहां पर स्तरीय, तथ्यपूर्ण, प्रामाणिक कन्टेन्ट को प्रमोट किया जाए, इसके विपरीत कन्टेन्ट प्रमोट तथा लोकप्रिय हो जाए, यह बहुत संभव है। किसी कन्टेन्ट को लोकप्रिय बनाने के लिए बॉट्स, ट्रोल्स और पेड इन्फ्लुएंसर्स का भी इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे में यहां पर लोकप्रियता का संबंध गुणवत्ता हो, यह आवश्यक नहीं।
(लेखक माइक्रोसॉफ़्ट में निदेशक- भारतीय भाषाएं
और सुगम्यता के पद पर कार्यरत हैं)।
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