आणंद में सहकारिता की नींव के तौर पर अमूल खड़ा है। अमूल की कमान हाल ही में जयेन मेहता जी के हाथ में आई है। कमान आई है, तो उसके साथ कुछ विवाद भी आए हैं। कर्नाटक में चुनाव होने वाले हैं। अमूल और देश के एक और सहकारिता आंदोलन कर्नाटक के नंदिनी ब्रांड में तनातनी की खबरें बहुत जोर-शोर से आ रही हैं। पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर ने जयेन मेहता से नंदिनी, अमूल, राजनीति और इस देश में सहकारिता आंदोलन पर बातचीत की। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के संपादित अंश-
आपने यहां कमान संभाली है और वहां पर कई लोग कमान से तीर निकालकर अमूल के पीछे पड़े हैं। आप अमूल बनाम नंदिनी के इस पूरे मामले को कैसे देखते हैं?
मेहता जी- मैं पिछले 32 साल से अमूल से जुड़ा हूं। सबसे पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि अमूल बनाम नंदिनी कभी नहीं हो सकता। हमेशा अमूल और नंदिनी होना चाहिए और है, क्योंकि अमूल एक सहकारी संस्था है जिसके मालिक गुजरात के किसान हैं। उधर नंदिनी भी एक सहकारी संस्था है जिसके मालिक कर्नाटक के किसान हैं। इन दोनों सहकारी संस्थाओं ने पिछले 50 वर्षों से मिलकर भारत को विश्व का नंबर एक दुग्ध उत्पादक देश बनाया है। सहकारिता के मामले में हम प्रथम हैं क्योंकि हमें इस क्षेत्र में 76 साल हो गये हैं। नंदिनी को करीब 45-50 साल हुए हैं। यह यात्रा हमने समान दृष्टि, समान मूल्यों और समान प्रक्रियाओं पर तय की है। तो मॉडल समान होने से हममें काफी साम्यता है, कोई विरोधाभास नहीं है। इस वजह से हम लोग साथ मिलकर काम कर रहे हैं।
ल्ल एक तो सहकारिता का आंदोलन, कोआपरेटिव मूवमेंट है और एक हर चीज को देखने वाला कॉर्पोरेट दृष्टिकोण है। इन दोनों में क्या अंतर है? प्रतिस्पर्धा नहीं, सहयोग – इसे आप कैसे देखते हैं? क्योंकि बोलने में ये आदर्श तौर पर लगता है, कंपनी जगत में कोई बोलेगा तो प्रतिस्पर्धी ब्रांड के तौर पर समझ में आएगा। सहकारिता में ऐसा कैसे नहीं होता, इसमें आप किस प्रकार अंतर बताना चाहते हैं?
इसमें मालिक कॉमन होते हैं, और किसान होते हैं। ये जो सहकारी भावना है, उसका एक अलग ही कोण और आयाम होता है। इसका मॉडल ही अलग है। यह एक ऐसा प्रमाणित मॉडल है कि इसमें गुजरात और कर्नाटक का या अमूल और नंदिनी का कोई टकराव नहीं है। अमूल देश के सभी राज्यों में, जहां सहकारिता आंदोलन फैला है, वहां की सहकारी संस्थाओं के साथ काम करता है। सभी राज्यों से हम मिल-जुलकर काम करते हैं। हमारा उद्देश्य हमेशा यह रहता है कि राज्य की संस्था उस राज्य में सर्वोपरि रहे ताकि हम सब मिलकर दो सहकारी भाई, अमूल और उस राज्य का जो सहकारी ब्रांड है, इस क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपना प्रभुत्व कायम करने से रोक सकें और किसानों की सहकारी संस्था लगातार प्रगति करती रहे।
यानी कोई बाहर से आकर किसानों का शोषण न कर पाए, इसके लिए एक तालमेल (सिनर्जी) बिठाने की बात है। आपने कहा कि एक कॉआपरेटिव ब्रांड सर्वोपरि रहे। तो अमूल की यह भावना नहीं है कि नंदिनी को पीछे छोड़कर कर्नाटक में सर्वोपरि ब्रांड के तौर पर स्थापित हो जाए, ऐसा है या उत्पादन के मामले में अभी अमूल की क्या स्थिति है और नंदिनी की क्या स्थिति है?
अमूल ने पिछले 76 साल में जो यात्रा तय की है, उसकी वजह से हम आज प्रतिदिन 270 लाख लीटर दूध का उत्पादन करते हैं। इसमें 36 लाख किसान 18,600 गांवों से जुड़े हैं। हमारा ब्रांड कारोबार बीते साल लगभग 72 हजार करोड़ रुपये का था। नंदिनी की बात करें तो उनकी भी प्रतिदिन की करीब 70-75 लाख लीटर दूध की प्राप्ति है। वह सहकारी क्षेत्र में ही नहीं, पूरे डेयरी क्षेत्र में देश की नंबर 2 कंपनी है। उस हिसाब से देखें तो अमूल और नंदिनी इस समय देश के नंबर 1 और नंबर 2 ब्रांड और व्यावसायिक संगठन हैं।
स्पर्धा नहीं, सहयोग है। सहयोग के कुछ उदाहरण भी होंगे। हम कहते हैं कि हम साथ मिलकर चलते हैं तो क्या कोई उदाहरण भी हैं कि यह बाजार कब्जाने की होड़ नहीं है बल्कि हम एक-दूसरे का सहयोग करते रहे हैं। पहले भी आपने कभी सहयोग किया है क्या?
हां! बिल्कुल किया है। अमूल ने जब 1996 में आइसक्रीम लॉन्च किया तो हमारी प्रतिस्पर्धा युनीलीवर से थी। उस समय हमारे संयंत्र सिर्फ गुजरात में थे। दक्षिण भारत में हमारा कोई संयंत्र नहीं था। तब हमने नंदिनी से संपर्क किया और 1998 से बेंगलुरु के उनके संयंत्र में अमूल की आइसक्रीम का लगातार उत्पादन हो रहा है। आज उनके तीन संयंत्रों में आइसक्रीम का उत्पादन हो रहा है। प्रतिदिन करीब 30 हजार लीटर आइसक्रीम का उत्पादन हो रहा है। पिछले साल हमने 100 करोड़ रुपये की आइसक्रीम वहां पैक की। नंदिनी के माध्यम से कर्नाटक के किसानों से दूध लेकर नंदिनी के संयंत्र में अमूल ब्रांड की आइसक्रीम का उत्पादन किया जिसे हमने सिर्फ कर्नाटक में ही नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण भारत में बेचा। तो उनका ब्रांड विकसित हो, उनका बाजार विकसित हो, दोनों ने मिलकर सहकार की भावना से काम किया और कर भी रहे हैं जिसकी वजह से हम आगे बढ़ रहे हैं।
तो ये जो बाजार है, उत्पादन के संयंत्र हैं, उनमें क्या ज्ञान साझा करना, एक-दूसरे के यहां आना-जाना होता है क्या?
बिल्कुल। अभी पिछले महीने ही उनकी विशेषज्ञों की टीम हमारे यहां आई थी। उनको अमूल का ईआरपी सिस्टम समझना था, हमारी नियोजन प्रक्रिया समझनी थी, परियोजना प्रबंधन प्रक्रिया समझनी थी। हमने उनको अपनी सभी सुविधाएं दिखाईं। अपनी पूरी व्यावसायिक समझ और योजना उनके साथ साझा की। पशु चारे पर उनको काम करना था और समझना था, तो यहां रहकर उस पर हमारे साथ काम किया। उनको नई पेट बॉटल, फ्लेवर्ड मिल्क की लाइन लगानी थी, उसमें काफी निवेश होता है। इसमें हमारा दस वर्ष का अनुभव है। हमने उनकी टीम को हमारे गांधीनगर संयंत्र में लाकर पूरा बताया। उनको समझने का मौका दिया। वे ही वैसी ही लाइन लगाकर आज कर्नाटक में फ्लेवर्ड मिल्क बना रहे हैं और पूरे देश में बेच रहे हैं। अगर हम सोचते कि हमारी प्रतिस्पर्धा है तो हम अपने ही प्रतिस्पर्धी से अपना ज्ञान और अनुभव साझा नहीं करते। हम सोचते हैं कि नंदिनी भी फलेवर मिल्क बनाएगी और बाजार में आएगी तो ठीक है कि प्रतिस्पर्धा होगी परंतु दोनों का उत्पादन बाजार में आएगा तो औरों को इसमें जगह नहीं मिलेगी। हमने इसी भावना से किया। दूसरी बात बताऊं, कोविड के समय में भी हमने जैसे पूरे देश में आपूर्ति जारी रखी, वैसे ही कर्नाटक में भी रखी। उस समय बाजार में मांग बहुत कम थी। सभी डेयरी के पास दूध बहुत ज्यादा मात्रा में एकत्र हो रहा था। तो हमने वर्ष 2020-21 में कोरोना के दौरान एक साल में कर्नाटक के किसानों के दूध से बनी तकरीबन 5 हजार टन चीज यानी 200 करोड़ रुपये से ज्यादा की चीज को नंदिनी से खरीदकर बेचा था। यहां पर किसान को देखा जा रहा है। हम इस दृष्टि से काम कर रहे हैं और आगे भी काम करते रहेंगे। राजनीतिक वाद-विवाद कुछ भी हो पर सहकारी संस्थाओं के बीच का जो सेतु है, वह हमेशा बना रहेगा, ऐसा मुझे विश्वास है। हम दोनों किसानों की तरक्की हो, उस दिशा में काम करते रहेंगे।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की दुग्ध उत्पादन क्षमता को बहुत कम आंका जाता था। अंतरराष्ट्रीय डेयरी फाउंडेशन या मूवमेंट में या उनका जो कार्यक्रम है, उसमें भारत की स्थिति कैसी है? अमूल की स्थिति कैसी है और भारत का सहकारिता जगत वहां भी तालमेल में दिखाई देता है क्या?
ये बहुत महत्वपूर्ण बात है कि हम विश्व में नंबर 1 दुग्ध उत्पादक देश हैं। इसको भी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसी तरह से प्रस्तुत करें ताकि विश्व को भी पता चले कि इस देश को इस स्तर तक पहुंचाने में यहां की सहकारी संस्थाओं की कितनी बड़ा भूमिका है। इसके पीछे होता है लाखों महिलाओं का परिश्रम जो दिन-रात काम करती हैं। ऐसा ही मौका एक बार मुझे पिछले वर्ष सितंबर में मिला। अंतरराष्ट्रीय फेडरेशन की वार्षिक कॉन्फ्रेंस 1974 के बाद पहली बार यानी लगभग 50 वर्षों बाद सितम्बर, 2022 में भारत के दिल्ली में हुई। अमूल इस सम्मेलन का मुख्य आयोजक बना था। तभी कर्नाटक की नंदिनी ने भी इच्छा प्रकट की कि उसको भी इसमें शामिल करना चाहिए। तब हमने एक मिनट भी नहीं सोचा और कहा कि हम दोनों मिलकर इसके आयोजक बनेंगे। इससे विश्व को एक और उदाहरण मिलेगा कि एक सिर्फ एक ब्रांड नहीं है, और भी बड़ी सहकारी संस्थाएं हैं जो आपस में मिलकर अपने उत्पादों, अपनी प्रशस्ति, अपने किसानों की कहानी को विश्व तक पहुंचाएंगी। इस तरह का सहयोग भी हम करते आ रहे हैं। बड़ा भाई-छोटा भाई वाली भावना ही नहीं है। सब मिलकर किसानों के लिए काम करते हैं। सभी बराबर हैं।
कर्नाटक में अमूल को लेकर जो विवाद पैदा किया जा रहा है कि अमूल पहली बार कर्नाटक राज्य में आया है, यह बिल्कुल गलत है। 2015 में हमने उत्तर कर्नाटक जैसे बेलगांव, हुबली क्षेत्र में दूध, दही छाछ पाउच में बेचना शुरू किया और आज तक बेच रहे हैं। इस बार हम ई-कॉमर्स के माध्यम से अपने उत्पाद बेंगलुरु में बेच रहे हैं। तब किसी को आपत्ति नहीं हुई और अब इसको मुद्दा बनाया जा रहा है। हमलोग ई-कॉमर्स के माध्यम से दिल्ली में 54 रुपये प्रति लीटर की दर से दूध बेच रहे हैं, उसी दर पर बेंगलुरु में भी बेच रहे हैं और नंदिनी वहां पर 39 रुपये प्रति लीटर दूध बेच रही है। यदि हमें स्पर्धा करनी होती या बाजार तोड़ना होता या नंदिनी को परेशान करना होता तो हम सस्ते में दूध बेचने की कोशिश करते।
हमने अपने दाम पर ही वहां दूध बेचने की योजना बनाई है ताकि नंदिनी को हमारी ओर से कोई चुनौती न हो। वहां के ग्राहक को कोई तकलीफ नहीं हो। और जिन चुनिंदा ग्राहकों को हमारा दूध चाहिए तो जिस तरह बटर, चीज, शिकंजी उन्हें मिलती है, उसी तरह दूध भी मिले, इतनी ही हमारी योजना थी। इस पर जो विवाद चल रहा है, उस संदर्भ में यदि किसानों तक सही तथ्य पहुंचे तो उन्हें भी लगेगा कि अमूल और नंदिनी के बीच तालमेल बहुत अच्छा है और भविष्य में अच्छा रहेगा जिससे किसान मिलकर साथ काम कर सकेंगे। दुग्ध क्रांति में एक अच्छा तालमेल कदमताल से चल रहा है, उसमें किसानों को उकसाने का, एक राजनीतिक दृष्टि पैदा करने का जो प्रयास हुआ है, वह सरासर गलत है।
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