काल्पनिक स्थितियों पर विचार कीजिए। एक साहित्यकार उपन्यास लिख रहा है और एक जगह पर आकर वह अटक जाता है। इस तरफ जाए या उस तरफ जाए? अगला पड़ाव कैसा हो? तब वह कृत्रिम बुद्धिमत्ता से पूछता है कि आगे का घटनाक्रम क्या होना चाहिए
कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) की क्षमताएं बढ़नी ही हैं, घटनी नहीं हैं। कविता को समझना तो छोड़िए, उसने तो कविता का सृजन करके दिखा दिया है, भले ही हिंदी में फिलहाल उसकी काव्य-सृजन क्षमता बालकोचित है। कहानी, नाटक, लघुकथा, पटकथा, समीक्षा आदि लिखने में वह सक्षम हो गई है। कल यह भी हो जाएगा कि न सिर्फ अलग-अलग एआई टूल अलग-अलग ढंग से साहित्य का अनुवाद और सृजन करेंगे बल्कि एक ही टूल हमें कई विकल्प भी दे देगा कि आप यह इसे इस प्रारूप में लेना चाहेंगे या उस प्रारूप में।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता, भारतीय भाषायी साहित्य जगत, साहित्य की दुनिया, ई-बुक्स
लेकिन सवाल है कि क्या हम लोग, यानी कि भारतीय भाषायी साहित्य जगत इस नई हकीकत के लिए तैयार है? हम उसे एक चुनौती के रूप में देखना चाहेंगे या एक अवसर के रूप में? क्या साहित्य की दुनिया एआई लिटरेचर को स्वीकार कर सकती है? अगर हां, तो यह स्वीकार्यता किस हद तक होगी, किन रूपों में होगी। यह सवाल इसलिए क्योंकि कृत्रिम बुद्धिमत्ता न सिर्फ स्वयं पूरी तरह से लेखन करने में सक्षम है बल्कि एक सहायक के रूप में भी काम कर सकती है। एक फिल्म की पटकथा वह स्वयं भी लिख सकती है और ऐसा भी संभव है कि लेखक कहानी के छोटे-छोटे हिस्सों का संक्षेप उसे बताए और वह उसे विस्तार दे दे।
साहित्य की दुनिया को कृत्रिम बुद्धिमत्ता की भूमिका पर गौर करने की जरूरत है। इन बदलावों को जानना-समझना आवश्यक है क्योंकि ऐसे शक्तिशाली नवाचारों का रास्ता रोकना संभव नहीं है। वे घटित होकर रहेंगे, जैसे बिजली, पहिया या कंप्यूटर। भारतीय साहित्य जगत पहले तकनीक की दृष्टि से उदासीनता बरतता रहा है, कम से कम हिंदी में तो यह स्पष्ट है।
कुछ काल्पनिक स्थितियों पर विचार कीजिए। एक साहित्यकार उपन्यास लिख रहा है और एक जगह पर आकर वह अटक जाता है। इस तरफ जाए या उस तरफ जाए? अगला पड़ाव कैसा हो? तब वह कृत्रिम बुद्धिमत्ता से पूछता है कि आगे का घटनाक्रम क्या होना चाहिए और उसे तुरंत तीन-चार अलग-अलग किस्म के उत्तर मिल जाते हैं, जिनमें से एक का चयन कर वह आगे बढ़ जाता है। एक अनुवादक अंग्रेजी की किताब का अनुवाद कर रहा है। वह एक-एक वाक्य को खुद पढ़ने की बजाए मशीन अनुवाद की शरण लेता है और अंत में एक बार पूरे अनुवाद को पढ़कर संपादित और परिष्कृत कर लेता है। एक शोधकर्ता को अपने विषय पर कुछ अच्छे शोध मिले हैं। वह एआई से कहता है कि इन सबका संक्षिप्तीकरण कर दो और शब्दावली में बदलाव कर दो। इसके परिणामस्वरूप जो पाठ उसे मिला, वह मूल पाठ से अलग दिखता है, हालांकि वास्तविकता में वह साहित्यिक चोरी है।
आपकी नजर में इनमें से कौन सा जायज है और कौन सा नहीं? अगर कोई पुस्तक कृत्रिम बुद्धिमत्ता की मदद से लिखी गई है तो उसके लेखक के रूप में किसका नाम जाएगा? क्या एआई को सह-लेखक के रूप में लिखा जाना चाहिए और अगर लिखा जाना चाहिए तो क्या उस साहित्य की वैसी ही अहमियत मानी जाएगी, जैसी पूरी तरह से मानवीय सृजन की मानी जाती है?
ऐसी अनगिनत परिस्थितियां और सवाल आने वाले हैं। मर्म यह कि साहित्य की दुनिया को कृत्रिम बुद्धिमत्ता की भूमिका पर गौर करने की जरूरत है। इन बदलावों को जानना-समझना आवश्यक है क्योंकि ऐसे शक्तिशाली नवाचारों का रास्ता रोकना संभव नहीं है। वे घटित होकर रहेंगे, जैसे बिजली, पहिया या कंप्यूटर। भारतीय साहित्य जगत पहले तकनीक की दृष्टि से उदासीनता बरतता रहा है, कम से कम हिंदी में तो यह स्पष्ट है। हाल के वर्षों में हमने ब्लॉगों की शुरूआत के समय, ई-बुक्स के आगमन के समय और आडियोबुक्स के प्रादुर्भाव के समय इसे देखा है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता का प्रभाव इनकी तुलना में दर्जनों गुना ज्यादा हो सकता है।
(लेखक माइक्रोसॉफ्ट में ‘निदेशक- भारतीय भाषाएं
और सुगम्यता’ के पद पर कार्यरत हैं)
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