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स्त्रीत्व का उत्सव सहजता बनाम वर्जना

भारतीय लोकमानस में जिन स्त्री विषयों को सहजता से लिया जाता है, पश्चिमी चेतना से प्रभावित विमर्श उसे वर्जना घोषित करता है। हालांकि स्त्री अधिकारों के नाम पर वह उन्हीं सुविधाओं की मांग करता है जिन्हें वह ‘प्रताड़ना’ घोषित कर चुका होता है। कथित प्रगतिशीलता इसी दोहरेपन में दम तोड़ रही है

by सोनाली मिश्रा
Apr 15, 2023, 09:34 am IST
in भारत, मत अभिमत, संस्कृति, तमिलनाडु
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जब से शिशु गर्भ में भ्रूण रूप में प्रवेश करता है, तभी से संस्कारों के माध्यम से प्रकृति के प्रति कृतज्ञता की यात्रा आरम्भ हो जाती है। शिशु जन्म लेता है, तो उसके स्वागत के लिए संस्कार है, शिशु प्रथम बार अन्न ग्रहण करता है तो उसके लिए संस्कार है, शिशु की शिक्षा के लिए संस्कार है, उपनयन संस्कार हैं।

साहित्य या विमर्श में एक धारा है और उसे प्रगतिशील कहा जाता है। प्रगतिशील इसलिए क्योंकि इसमें उन कथित वर्जनाओं पर विमर्श करना सम्मिलित है, जिनके विषय में प्रगतिशीलों का कथन है कि भारतीय लोक में उन पर बात नहीं होती एवं कथित प्रगतिशील साहित्य ही उस पर बात करता है।

वैसे ये वर्जनाएं क्या हैं, इस प्रश्न पर प्रगतिशीलता बहुत ही सुविधाजनक मौन साध लेती है। वह प्रायोजित एजेंडे के अनुसार ही विमर्श करती है और वर्जनाएं तय करती हैं तथा उन तमाम परम्पराओं को प्रताड़ना बनाकर प्रस्तुत करने लगती हैं, जिन्हें भारतीय लोकमानस में सहज रूप में लिया गया है।

वस्तुत: भारतीय लोकमानस में उन सभी विषयों को सहज रूप में लिया गया है, जिसे पश्चिमी चेतना से प्रभावित विमर्श वर्जना कहता है। भारत में तो विमर्श चला है, संरक्षण का, प्रेम का, परिवार का एवं उन तमाम शारीरिक अवस्थाओं का, जिन्हें पश्चिम जनित विमर्श वर्जनाएं कहता है। भारतीय लोक उत्साह से परिपूर्ण है, वह जन्म से लेकर मृत्यु तक की तमाम अवस्थाओं को संस्कारों के माध्यम से अपनाना एवं उनका आदर करना जानता है, उसमें रुदन नहीं है और हो भी नहीं सकता। उसमें कृतज्ञता है। कृतज्ञता है परम शक्ति के प्रति। कृतज्ञता है प्रकृति के प्रति एवं कृतज्ञता है जीवन के प्रति।

अत: जब से शिशु गर्भ में भ्रूण रूप में प्रवेश करता है, तभी से संस्कारों के माध्यम से प्रकृति के प्रति कृतज्ञता की यात्रा आरम्भ हो जाती है। शिशु जन्म लेता है, तो उसके स्वागत के लिए संस्कार है, शिशु प्रथम बार अन्न ग्रहण करता है तो उसके लिए संस्कार है, शिशु की शिक्षा के लिए संस्कार है, उपनयन संस्कार हैं। ऐसे ही तमाम संस्कारों से होते हुए लोकमानस जब स्त्रियों की ओर देखता है तो पाता है कि वे तो एक विशेष ही अवस्था से होकर गुजरती हैं। वे एक विशेष शारीरिक एवं उसके चलते मानसिक या कहें असमंजस की स्थितियों से होकर गुजरती हैं।

ऐसे में लोक ने उसके स्त्रीत्व के आरम्भ होने की अवस्था को सहज बनाने के लिए एवं वह किसी ‘टैबू’ से होकर न गुजरे, किसी असंतुलित विमर्श या पीड़ा या वेदना के विकृत विमर्श का हिस्सा न बन जाए, इसे संभवतया संज्ञान में लेते हुए कई ऐसे विमर्श आरम्भ कर दिए गए, जो सहज उल्लास से परिपूर्ण थे एवं जिनमें इस प्रक्रिया को भी सहजता से स्वीकार करने का भाव था।

यह इसी लोक में सम्भव था कि भूमि को भी रजस्वला मान उसके चार दिन आराम करने की बात कह उसके स्त्रीत्व का उत्सव मनाया जाए। देश के कई राज्यों में रज-पर्व मनाया जाता है जिसमें स्त्रियां धरती मां की इस पवित्र अवस्था का उसत्व मनाती हैं।

स्त्रीत्व के आरम्भ का उत्सव
यह अवस्था है, स्त्रीत्व के आरम्भ की अवस्था अर्थात् मासिक चक्र का आरम्भ। यह 12 वर्ष की आयु से लेकर 14 वर्ष की आयु में बच्चियों के जीवन में दस्तक दे देता है। जब यह दस्तक देता है तो पहले तो बच्चियों को समझ में भी नहीं आता है कि उनके साथ यह क्या हुआ? क्या कोई शारीरिक विकृति तो नहीं आरम्भ हो गई? क्या किसी आपदा ने तो दस्तक नहीं दे दी? क्या उनसे कुछ गलत कृत्य तो नहीं हो गया?

ऐसे तमाम प्रश्न उनके दिल में उत्पन्न होने लगते हैं, उनके हृदय में तमाम आशंकाएं जन्म लेती हैं। ऐसे में किसी भी जाग्रत समाज का क्या उत्तरदायित्व है? ऐसे में उस समाज का क्या उत्तरदायित्व हो सकता है जो चिकित्सा से लेकर दर्शन तक में इतना समृद्ध है कि प्रेरणा लेने के लिए समूचा विश्व कतार लगाकर आता रहता है? ऐसे में क्या उस लोक का यह दायित्व नहीं था कि वह अपनी बेटियों को संभालता एवं उन्हें उनके स्त्री होने की इस घटना के प्रति सहज रहना सिखाता। वह उन्हें बताता कि यह तो दरअसल प्रभु द्वारा दिए गए जन्म का सबसे सौन्दर्यपरक आयाम है। यह एक ऐसी घटना है, जिसके बाद वह स्वयं ही सृष्टि के समकक्ष जाकर खड़ी हो गई है।

हां, सृजन के आनंद के साथ प्रकृतिस्थ होने में समायोजन में कुछ समस्या हो सकती है। वह जो भीतर रक्त है और जब वह बाहर आ रहा है, तो उसके परिणामस्वरूप होने वाला जो शारीरिक परिवर्तन है, वह भीतर ही भीतर असहज कर सकता है, अत: उसे इतनी गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है, बस सहज रहना है एवं स्वयं में सजग रहना है।

यहां तक कि यह इसी लोक में सम्भव था कि भूमि को भी रजस्वला मानकर उन्हें भी चार दिनों तक आराम करने की बात की जाए, जब भूमि के स्त्रीत्व का उत्सव मनाया जाए। कई राज्यों में रज-पर्व मनाया जाता है, जिसमें स्त्रियां अपनी धरती मां की इस पवित्र अवस्था का उत्सव मनाती हैं।

दरअसल वे स्त्रीत्व का उत्सव मनाती हैं, उन्हें यह भान है कि धरती मां भी स्त्री हैं एवं वर्षा के आरम्भ अर्थात् सृष्टि के सृजन के आरम्भ में उसे भी उसी प्रक्रिया से होकर गुजरना है, जिस प्रक्रिया से हर स्त्री गुजरती है। लोक अपनी मां के रजस्वला होने का भी उत्सव मनाता है। ओडिशा में रज पर्व हर्षोल्लास से मनाया जाता है। असम में मां कामाख्या देवी के रजस्वला होने पर भी उत्सव मनाया जाता है। आद्या मां के 52 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ कामाख्या देवी में पांच दिवसीय अंबूवाची मेले का आयोजन मात्र इसीलिए किया जाता है क्योंकि मां रजस्वला हैं।

क्या कोई कल्पना कर सकता है लोक के मध्य स्त्रियों के स्त्रीत्व के इतनी महान सोच की? क्या कोई भी सभ्यता इस स्तर तक उच्चता प्राप्त कर सकती है कि वे अपने आराध्यों की शारीरिक अवस्था का उत्सव मनाए एवं वह भी ऐसा कि उसमें समस्त प्रकृति ही लयबद्ध हो जाए, समस्त जन ही आनंदित हो जाएं। ऐसा उत्साह बहुत ही कम देखने को मिलता है। यह किसी भी जाग्रत सभ्यता की महानता की सर्वोच्च स्थिति है कि जहां पर वह स्त्रियों के प्रति इतनी कृतज्ञता एवं आदर से भरी है।

यही कारण है कि लोक अपनी बेटियों को भी इस अवस्था के प्रति सहज करता है। वह अपनी बेटियों को इस बार में आश्वस्त करता है कि जो उसकी अभी अवस्था है, वह सृजन का प्रथम पायदान है। वह स्वयं में बन रही प्रकृति का प्रथम चरण है। यह कोई विकृति नहीं है, अपितु यह देह के साथ सहज होना है, देखो, भूमि भी तो रजस्वला होती है और देखो, हमारी आराध्या भी रजस्वला होती हैं।

तमिलनाडु में भी परम्परा
भारत में तमिलनाडु में एक ऐसी ही परम्परा है, जिसमें बेटियों को इस अवस्था के प्रति सहज किया जाता है। यह एक आश्वासन है कि वे अब प्रकृति को समझने के योग्य हो गई हैं एवं अब वे स्वयं में हो रहे निरंतर परिवर्तनों को अनुभव कर सकती हैं, उसी भांति जैसे पृथ्वी करती है।

तमिलनाडु में रजस्वला होने वाली लड़की को विशेष अनुभव कराया जाता है। समाज में उसका स्वागत किया जाता है तथा विशेष पूजा आदि की जाती है। इसे मंजल निरातु विजा कहा जाता है। इसमें लड़कियों को इस बात से अवगत कराया जाता है कि अब वे बड़ी हो रही हैं। अब उनके भीतर धारण करने की क्षमता आ रही है। परिवार के लोगों को कार्ड आदि से आमंत्रित किया जाता है। लड़की के चाचा नारियल, आम और नीम के पत्तों से झोंपड़ी बनाते हैं और फिर उसमें लड़की रहती है। लड़की के लिए अच्छे-अच्छे पकवान रखे जाते हैं।
इस पूरे समारोह को इतने भव्य तरीके से मनाया जाता है कि उसकी फोटोग्राफी भी की जाती है एवं लड़की को रेशमी साड़ी पहनाकर दुल्हन की तरह सजाकर नए जीवन के लिए तैयार कर दिया जाता है।

जब पहली बार कोई लड़की रजस्वला होती है तो उसका विशेष ध्यान रखा जाता है। जो भी पकवान बनते हैं, उन्हें इस प्रकार बनाया जाता हैं कि लड़की को वह पोषण प्राप्त हो कि उसकी देह में जो कमी हो गई है, उसकी पूर्ति हो सके।

इसमें लड़की को हल्दी से स्नान कराया जाता है। हल्दी के औषधीय गुण आज विज्ञान भी मानता है। हल्दी से स्नान करने से तमाम कीटाणु नष्ट हो जाते हैं, ऐसा अब हर कोई मानता है तो इस समारोह में लड़की के भोजन से लेकर उसकी व्यक्तिगत साफ-स्वच्छता एवं कीटाणुओं से रक्षा तक का प्रबंध किया जाता है।

अर्थात् एक लड़की के लिए यह ऐसा अवसर होता है जब उसे शारीरिक एवं मानसिक तथा आध्यात्मिक रूप से उस कर्तव्य के लिए तैयार किया जाता है, जो आने वाले जीवन में उसकी प्रतीक्षा में है। यह लड़की को सहज बनाने का अवसर होता है और यह मात्र तमिलनाडु में होता है, ऐसा भी नहीं है! कई राज्यों में लड़की को आने वाले जीवन के अवसरों के प्रति सहज बनाने के लिए ऐसी परम्पराएं मौजूद हैं। कर्नाटक, असम में भी ऐसी परम्पराएं हैं।

जहां पर परम्पराएं नहीं भी हैं, वहां पर भी लड़की को प्रथम बार रजस्वला होने पर यह अनुभव कराया जाता है कि वह प्रकृति होने की ओर अग्रसर हो रही है। हां, जहां पर ये परम्पराएं हैं, वहां ये उन्हें धार्मिक रूप से स्वच्छता का भान कराते हुए सहज कर दिया जाता है।

परंपराओं पर ‘लिबरल’ आपत्ति
ऊपर हमने देखा कि भारतीय लोक कैसे इतने बड़े विषय पर सहजता एवं उत्सव के विमर्श को लेकर चलता है। क्योंकि रजस्वला होने को उन्होंने धरा से जोड़ा है, और मां शक्ति से जोड़ा है। लोकमानस ने लड़की से कहा कि वह चूंकि प्रकृति है और प्रकृति भी तो रजस्वला होती है सो लड़की इस अवस्था के प्रति कर्तव्यों को लेकर सजग हो जाती है।

फिर भी एक वर्ग है जिसे हिन्दुओं के हर पर्व के साथ समस्या है। उसे यह समस्या है कि आखिर रक्षाबंधन पर बहन राखी क्यों बांधे? उसे यह समस्या है कि आखिर करवाचौथ पर ब्याहता महिला व्रत क्यों रखे? उसे यह समस्या है कि आखिर हर व्रत लड़कियां ही क्यों रखें? और उसके साथ यह भी समस्या है कि उस वर्ग को कोई परम्परा भी नहीं निभानी है परन्तु मंदिर में अवश्य जाना है और वह भी किसी लड़की के रजस्वला की अवधि में!

वह वर्ग, रजस्वला की इस अवस्था को, जिसमें स्त्री को कुछ विशेष आराम की आवश्यकता होती है, और जिसे लेकर समाज ने विशेष खानपान एवं आराम की व्यवस्था की है, उसे भी आम दिनों की ही भांति बना देना चाहता है। जिस अवस्था में लड़की की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना चाहिए, उन दिनों में वह ‘लिबरल’ वर्ग उसे जबरन बाहर जाने को लेकर आन्दोलन करने पर विवश करता है, ऐसा वह मात्र इसलिए करता है ताकि उस कर्तव्य बोध को समाप्त कर सके जो लोकमानस ने लड़की के साथ इस विशेष अवसर पर जोड़ा है।
वह उस विशेषता के बोध को समाप्त करना चाहता है, वह उस सम्मान को समाप्त करना चाहता है जो लोक ने कन्या से युवती बनने की गौरवपूर्ण यात्रा के सम्मान में लड़की को सौंपा है। वह वर्ग थोपी गयी छद्म संवेदना से परिपूर्ण कहानियां बनाता है। जहां पहले यह कार्य कहानियों के माध्यम से होता था, इन दिनों पोर्टल्स पर आ रही भिन्न ‘स्टोरीज’ के माध्यम से हो रहा है।

जहां पर परम्पराएं नहीं भी हैं, वहां पर भी लड़की को प्रथम बार रजस्वला होने पर यह अनुभव कराया जाता है कि वह प्रकृति होने की ओर अग्रसर हो रही है। हां, जहां पर ये परम्पराएं हैं, वहां ये उन्हें धार्मिक रूप से स्वच्छता का भान कराते हुए सहज कर दिया जाता है।

कथित प्रगतिशील पोर्टल्स, जो कहने को प्रगतिशील हैं, का कार्य लोक के ऐसे विमर्श को आघात पहुंचाना होता है जो दरअसल लड़कियों को सशक्त बनाने के लिए ही था। हर माह होने वाली शारीरिक असुविधा से बचने के लिए ही लोक ने यह विधान किया कि लड़की को रसोई में प्रवेश नहीं करने देना है, उससे कार्य नहीं करवाना है एवं उसे एक अकेले स्थान पर रहना है। यह हो सकता है कि कालान्तर में इसके पालन में कुछ कुरीतियां आ गयी हों, परन्तु वृहद रूप में देखने पर यह किशोरियों के आराम का ही एक रूप था।

अभी हाल ही में ऐसी ही मांग की गई कि लड़कियों को मासिक धर्म के दौरान नौकरी पर अनिवार्य अवकाश प्रदान किया जाए। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने याचिका खारिज कर दी, परन्तु यहां पर यह प्रश्न उठता है कि मासिक धर्म में यदि लड़की को रसोई के कामकाज से अवकाश देने के लिए समाज ने यह नियम बनाया कि उसे रसोई में प्रवेश नहीं करना है या फिर उसे बाहर नहीं जाना है, उसे घाट आदि पर नहीं जाना है तो वह ‘अन्याय’ हो गया, पक्षपात हो गया तो फिर अनिवार्य अवकाश क्या भेदभाव नहीं होगा? क्या कालान्तर में जाकर यह विमर्श नहीं उभरेगा कि मासिक के दौरान लड़कियां काम पर क्यों नहीं जा सकतीं? उनके साथ यह अस्पृश्यों जैसा व्यवहार क्यों? क्योंकि हर रीति का यदि अपने मूल रूप में पालन न किया जाए तो वह कुरीति में परिवर्तित हो ही जाती है।

‘फेमिनिज्म इन इंडिया’ हो या फिर ‘द न्यूजमिनट्स’ जैसे पोर्टल्स, इन्होंने एक सहज और लोक एवं प्रकृति के साथ आत्मसात हो जाने वाले विमर्श को ‘पिछड़ा’ ठहरा दिया है। और उसे ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे वह शोषण का ही रूप हो, परन्तु वह लोग जो कथित प्रगतिशील विमर्श कर रहे हैं, वे महिलाओं के लिए कितना अन्यायपूर्ण एवं घातक है, वह कल्पना से ही परे है।

यह महिलाओं के लिए इसलिए घातक है क्योंकि इसमें लड़कियां अपनी जड़ों से, अपने मूल से कटना आरम्भ कर देती हैं एवं वे उस रुई के फाहे को अपना शत्रु मान बैठती हैं जो उनके उस समय की शारीरिक पीड़ा को हरने के लिए संवेदना तथा विश्राम का मरहम लेकर खड़ा होता है, और वह उसे अपना मित्र मान बैठती हैं जो कथित आजादी के नाम पर वह झूठी संवेदना प्रस्तुत करता है और उन्हें लोक से काटकर बाजार के हवाले कर देता है। वह उन्हें उस उल्लास से दूर करता है, जो इस प्रकृति से तो जुड़ा ही है, जो लोक से जुड़ा है।

 

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