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होम भारत

शोभायात्रा पर पथराव की मजहबी पृष्ठभूमि

पत्थरबाजी इस्लामी मजहबी रिवाज से जुड़ी हुई है, जो अरबी संस्कृति में काफी पहले से रही है। पत्थरबाजी शैतानों और इस्लाम का विरोध करने वालों के खिलाफ छेड़ा गया एक प्रतीकात्मक युद्ध है। मुसलमानों का एक वर्ग भारत, भारत सरकार और हिंदुओं को शैतान के रूप में देखता है

by सुमीत मेहता
Apr 11, 2023, 07:51 am IST
in भारत, विश्लेषण
पश्चिम बंगाल के शिबपुर में शोभायात्रा के दौरान पत्थरबाजी करते मुसलमान

पश्चिम बंगाल के शिबपुर में शोभायात्रा के दौरान पत्थरबाजी करते मुसलमान

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भारत में मुसलमानों का एक वर्ग भारत को, भारतीयों को यानी हिंदुओं को, भारतीय राज्य को, भारत सरकार को और इसके अधिकारियों को शैतान के रूप में देखता है, जिसमें कानून और व्यवस्था लागू करने वाले अधिकारी भी शामिल हैं।

रामनवमी पर देश के कई राज्यों में इस बार भी हिंसा हुई। हिंदुओं की शोभायात्रा पर मुसलमानों ने कई जगह पथराव किया। त्थरबाजी भारत में या गैर-इस्लामी दुनिया में या दारुल हरब में (शाब्दिक अर्थ : ‘युद्ध भूमि’)- माने ऐसे देश या स्थान, जहां शरीयत लागू न हो तथा जहां अन्य आस्थाओं वाले या अल्लाह को न मानने वाले लोगों का बहुमत हो, कोई नई घटना या नया चलन नहीं है। भारत में मुसलमानों का हिंदुओं के धार्मिक आयोजनों पर पथराव करना केवल स्थानीय हिंसा नहीं है।

पत्थरबाजी और इस्लामी मान्यता
कई प्रेक्षकों का मानना है कि पत्थरबाजी उस इस्लामी मजहबी रिवाज से भी जुड़ी हुई है, जिसे रमी अल-जमरात या शैतान को पत्थर मारना कहा जाता है। रमी अल-जमरात की रस्म मक्का की हज यात्रा का अभिन्न अंग है। इस रस्म में मुस्लिम हाजी तीन दीवारों पर कंकड़ फेंकते हैं, जिन्हें जमरात कहा जाता है। ये तीन दीवारें मीना शहर में स्थित हैं, जो मक्का के पूर्व में है। ये तीन दीवारें पूर्व से शुरू होती हैं। पहली या सबसे छोटी दीवार को अल-जमराह अल-उला या अल-जमराह अस-सुघरा कहा जाता है। इसके बाद अल-जमराह अल-वुस्ता नाम की दूसरी दीवार है। अंतिम और सबसे बड़ी दीवार को अल-जमराह अल-कुब्रा या जमरत अल-अकाबा कहा जाता है। 2004 हज से पहले इन तीन दीवारों के स्थान पर तीन खंभे थे। 2004 में पत्थर मारने की रस्म के दौरान मची भगदड़ में जब 251 हाजी मारे गए और 244 घायल हो गए, तो सऊदी सरकार ने तीन स्तंभों के स्थान पर तीन दीवारें बनवा दीं।

इस्लाम विरोधियों के विरुद्ध प्रतीकात्मक युद्ध
रमी अल-जमरात की इस रस्म के अनुसार, धू-अल-हिज्जा के महीने के 10वें दिन हज करने वाले हाजियों को बड़े वाले स्तंभ (अब दीवार) पर सात कंकड़ मारने चाहिए। यह काम होने के बाद हाजियों को सिर मुंडवाना पड़ता है। इसके बाद के दो दिनों में हाजी को तीन दीवारों पर सात-सात कंकड़ मारने होते हैं। ईद के बाद फिर तीन जमरात को पत्थर मारे जाते हैं, जिसका अर्थ है कि किसी को अपने आंतरिक तानाशाह, शैतान के बाहरी तानाशाह यानी जिन्न से शैतान और इनसानों में से शैतान को रौंदना चाहिए। ‘इनसानों में से शैतान’ कुछ और नहीं, बल्कि दीन यानी इस्लाम के दुश्मन होते हैं। तीन जमरात को पत्थर मारना और कुछ नहीं, बल्कि शैतानों और इस्लाम का विरोध करने वालों के खिलाफ छेड़ा गया एक प्रतीकात्मक युद्ध है।

रोचक बात यह है कि कुरान में पत्थरबाजी का सीधा उल्लेख नहीं है। पथराव का सीधा उल्लेख तब का है, जब मुहम्मद के शुरुआती वर्षों के दौरान उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया था। इसका उल्लेख उनके साथियों ने हिजरत के बारे में बात करते हुए किया है, जब उन पर सड़क पर चलते हुए पथराव किया गया था।

हावड़ा में जिहादियों ने हिंदू श्रद्धालुओं पर ईंट-पत्थर के साथ कांच की बोतलें फेंकीं, गाड़ियां फूंक दीं और दुकानें लूट लीं

इस्लाम किसी भी तरह की मूर्तिपूजा या बुतपरस्ती का कड़ा विरोध करता है, जबकि हिंदू धर्म में मूर्तिपूजा उसकी प्रमुख प्रथाओं में से एक है। इस्लाम इसे ‘शिर्क’ के रूप में देखता है। ‘शिर्क’ का अर्थ है- मूर्तिपूजा, बहुदेववाद और अल्लाह के अलावा किसी भी अन्य की पूजा। मुस्लिम आक्रमणकारियों और बाद में कन्वर्ट होने वाले मुसलमानों द्वारा मंदिरों और मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ने की एकमात्र वजह यही है।

हदीस में पत्थर मारने का हुक्म
खंभों पर पत्थर मारने का रिवाज अपने स्थान पर है, लेकिन कुरान में किसी जीवित व्यक्ति या जीव को पत्थर मार कर जान से मारने का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं है। हालांकि कुरान को सीधे इस्लामी रिवाजों या कानूनों का स्रोत कम माना जाता है और इस क्षेत्र में हदीथों (हदीसों) की भूमिका अधिक है। जैसे कि कुरान के सूराह 4:34 और 24:2 की व्याख्या पति से धोखा या दुर्व्यवहार करने वाली महिला को संगमार की सजा देने के तौर पर की जाती रही है। यह हदीस में भी है और इसे सुन्नाह भी माना जाता है।

इसी तरह, व्यभिचार की दोषी या आरोपी महिला को लोगों द्वारा पत्थरों से मारने की बात बाइबिकल कानून में स्पष्ट रूप से कही गई है। हालांकि उसके निषेध का भी उल्लेख किया गया है। लेकिन हदीसों में पत्थर मारने का स्पष्ट हुक्म है। इसमें कहा गया है कि पत्थर मारने की आयत पहले कुरान में थी, लेकिन बाद में आयशा के घर में उसके तकिए के नीचे रखी उस आयत को एक बकरी खा गई थी। इसके आधार पर इस्लामी विद्वानों का कहना है कि पत्थर मारने का हुक्म कायम है, चाहे कुरान में इसकी आयत मौजूद हो या न हो।

सहीह दारुस्सलाम में तो आरोपी गुलाम महिला को सौ कोड़े मारने के बाद संगमार करने की बात कही गई है और साफ लिखा है कि ऐसा मुहम्मद के सुन्नाह के मुताबिक किया गया है। (सहीह दारुस्सलाम, किताब 5, हदीथ 369) सहीह दारुस्सलाम, (सुन्नाह इब्न मजाह, 2556) किताब 20, हदीथ 24 में इब्न उमर के हवाले से कहा गया है कि ‘पैगंबर ने दो यहूदियों को पत्थर से मारा और उन्हें पत्थर मारने वालों में मैं भी शामिल था। मैंने देखा था कि पुरुष ने महिला को पत्थरों से बचाने की कोशिश की थी।’ सहीह अल-बुखारी और सहीह मुस्लिम में कई स्थानों पर संगमार करके जान लेने की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन किया गया है। (सहीह अल-बुखारी 3:50:885, 3:49:860, 8:82:842, 9:89:303, 8:82:824, 8:82:809 9:92:432 सहीह मुस्लिम, 8:3435, 17:4216, 17:4191, 17:4212।) सहीह अल-बुखारी में अबू हुरैरा के हवाले से कहा गया है कि हजरत मुहम्मद ने एक व्यक्ति का संगमार करने का हुक्म खुद दिया था। (किताब 86, हदीथ 53)

निशाने पर भारत और हिंदू
जो भी हो, इसमें संदेह नहीं कि पत्थरबाजी को इस्लामी समुदायों में व्यापक स्वीकार्यता प्राप्त है। पीईडब्ल्यू रिसर्च सेंटर द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, अपने ही समुदाय के व्यभिचार के दोषी व्यक्ति (महिला) को सजा के रूप में पत्थरों से मारने का मिस्र में 82 प्रतिशत, जॉर्डन में 70 प्रतिशत, इंडोनेशिया में 42 प्रतिशत, पाकिस्तान में 82 प्रतिशत और नाइजीरिया में 56 प्रतिशत मुसलमानों ने समर्थन किया है। लेकिन बात सिर्फ पति के नियंत्रण से बाहर रही महिला की नहीं है।

रामनवमी पर हिंसा का इतिहास

  • 1680 में संभाजी महाराज ने तुर्कों को पंडाल जलाने व अशांति फैलाने से रोकने के लिए सख्त आदेश दिए थे।
  • 30 मार्च, 1871 बरेली में हिंदू रामनवमी पर श्रीराम की प्रतिमा को स्नान कराने ले जा रहे थे। लौटते वक्त कुछ मुसलमानों ने जुलूस पर हमला किया। इस हिंसा में पुजारी समेत 7 लोग मारे गए, 158 घायल हो गए।
  •  1979 में जमशेदपुर में रामनवमी पर भीषण हिंसा हुई थी, जिसमें 108 लोगों की मौत हुई थी। मुसलमानों ने मस्जिद से वनवासियों के जुलूस पर पत्थर फेंके थे।
  •  20 मार्च, 1991 को उड़ीसा के भद्रक में रामनवमी जुलूस के मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र के पास गुजरने पर पत्थरबाजी से हिंसा शुरू हुई।
  •  5 अप्रैल, 2006 को अलीगढ़ में रामनवमी जुलूस पर हमले से हिंसा भड़क गई, जिसमें 5 लोगों की मृत्यु हुई।
  •  2009 में महाराष्ट्र के पूसाद में रामनवमी जुलूस पर पत्थरबाजी से हिंसा भड़की, 70 दुकानें जला दी गईं।
  •  2014 में कानपुर में पुलिस-प्रशासन ने रामनवमी जुलूस की अनुमति नहीं दी।
  • 2016 में झारखंड के हजारीबाग में रामनवमी के आखिरी दिन हिंसा भड़की। दुकानें लूटी गईं। पथराव में कई पुलिसकर्मी जख्मी हुए।
  •  2018 में पश्चिम बंगाल के रानीगंज में रामनवमी जुलूस में लाउडस्पीकर के उपयोग पर मुस्लिम समुदाय ने आपत्ति जताई। पुलिसकर्मियों पर र्इंट-पत्थरों व देसी बमों से हमला हुआ, जिसमें डीसीपी समेत कई घायल हुए।
  •  2019 में पश्चिम बंगाल के आसनसोल में रामनवमी जुलूस पर पत्थरबाजी से हिंसा भड़की।
  •  2019 में राजस्थान के जोधपुर में रामनवमी जुलूस पर मुसलमानों के पथराव में दो पुलिसकर्मी जख्मी, वाहन भी फूंके।
  •  10 अप्रैल, 2022 को गुजरात के खंभात, हिम्मतनगर, झारखंड के बोकारो, लोहरदगा, मध्यप्रदेश के खरगोन, महाराष्ट्र के अमरावती, पश्चिम बंगाल के हावड़ा, गोवा में रामनवमी जुलूसों पर हमले से हिंसा भड़की, जिसमें कई लोग घायल हो गए।

वास्तव में अपने विरोधियों पर पथराव करना, विरोधियों पर थूक देना, सार्वजनिक स्थानों पर सजा देना आदि सारी बातें अरब संस्कृति में काफी पहले से रही हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम को मानने वाले लोग भी अरब की इस पुरानी संस्कृति की देखादेखी करने की कोशिश करते आ रहे हैं। भारत में मुसलमानों द्वारा हिंदुओं, भारतीय राज्य, भारतीय सुरक्षा बलों और भारत सरकार के साथ काम करने वाले अधिकारियों पर की जाने वाली पत्थरबाजी की घटनाओं का यही गहरा मजहबी संबंध है। विरोध के इस रूप की परिकल्पना करने वाले व्यक्ति ने अगर हज के दौरान किए जाने वाले रमी अल-जमरात के रिवाज से प्रेरणा ली हो, तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं होगी।

भारत में मुसलमानों का एक वर्ग भारत को, भारतीयों को यानी हिंदुओं को, भारतीय राज्य को, भारत सरकार को और इसके अधिकारियों को शैतान के रूप में देखता है, जिसमें कानून और व्यवस्था लागू करने वाले अधिकारी भी शामिल हैं। मदरसों में बच्चों को यह सिखाए जाने की सूचनाएं एजेंसियों को हैं कि ‘इस्लाम में यह बात साफ तौर पर और बिना अपवाद कही गई है कि सभी गैर-इस्लामी देवी-देवता और धर्म शैतान हैं।’

इस्लाम किसी भी तरह की मूर्तिपूजा या बुतपरस्ती का कड़ा विरोध करता है, जबकि हिंदू धर्म में मूर्तिपूजा उसकी प्रमुख प्रथाओं में से एक है। इस्लाम इसे ‘शिर्क’ के रूप में देखता है। ‘शिर्क’ का अर्थ है- मूर्तिपूजा, बहुदेववाद और अल्लाह के अलावा किसी भी अन्य की पूजा। मुस्लिम आक्रमणकारियों और बाद में कन्वर्ट होने वाले मुसलमानों द्वारा मंदिरों और मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ने की एकमात्र वजह यही है।

ऐसे में भगवान राम नाम के गैर-इस्लामी ईश्वर की पूजा और उनके जन्मोत्सव को शैतान की पूजा से जुड़ा हुआ माना जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसे सिर्फ एक शिर्क माना जाता है और इसके पीछे निहित ‘मुस्लिम क्षेत्र’ से शैतान को भगाने के लिए पथराव करने की प्रेरणा एक स्वत: स्पष्ट प्रक्रिया है।

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