लिबरल मीडिया और वर्ग को पाकिस्तानी धारावाहिकों एवं पाकिस्तानी फिल्मों से बहुत प्यार है। जिसका एक उदाहरण हमने मौला जट्ट फिल्म के बॉक्स ऑफिस आंकड़ों को देखकर देखा था। मगर इस बार यह प्यार कुछ अलग प्रकार का है, कुछ अलग किस्म का है। यह प्यार है औरतों के हक़ और आजादी को लेकर। याद रखें कि यह यही मीडिया है, जो भारत में मुस्लिम लड़कियों को हिजाब तक में समेटने के लिए बेचैन है और कभी भी तीन तलाक, हलाला जैसी रस्मों के बारे में मुंह नहीं खोलता है।
एक धारावाहिक आता है “कुछ अनकही”। और यह भारत में बहुत लोकप्रिय है। धारावाहिक कुछ यूं है कि एक आगा साहब की तीन बेटियाँ हैं, और सबसे बड़ी बेटी के निकाह के समय का यह दृश्य है। जिसमें लड़की की फूफो अर्थात बुआ काजी से कह रही है कि “प्लीज़ ये क्लॉज़ न काटें! यह औरतों की हिफाजत के लिए है।”
काजी का कहना होता है कि इन शिर्कों को ससुराल वाले हटा देते हैं। लड़की की सास कहती हैं कि हाँ, इनकी क्या जरूरत है, हम कौन सा लड़की को कोई दुःख देने वाले हैं।
तो ऐसे में लड़की की फूफो कहती है कि ये औलाद की कस्टडी, और तलाक के हक़ आदि मजहब में औरतों की हिफाजत के लिए डाले हैं, किसी को हक़ नहीं है इन्हें काटने का।
इस दृश्य पर पाकिस्तानी जनता की प्रतिक्रिया तो समझ में आती है, परन्तु आज तक जैसे चैनल जब यह लिखते हैं कि ऐसे धारावाहिक भारत में भी दिखाए जाने चाहिए, तो हंसी आती है। हंसी इसलिए आती है क्योंकि यह भारत का मीडिया है, जो मुस्लिम महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों और उसके कारणों पर मौन साध जाता है।
इसी धारावाहिक में जो एक वृहद विषय है, उस पर चैनल बात नहीं कर रहा है, क्योंकि वही कारण है जो उस अन्याय को दिखाता है, जो कहीं न कहीं मजहब में होता है और लडकियां इसकी पीड़ित हैं। भारत में भी पिछले दिनों इसका एक उदाहरण देखने को मिला था।
और वह अधिकार है, संपत्ति पर अधिकार। सारी लड़ाई इस धारावाहिक में संपत्ति पर अधिकार को लेकर है। इस धारावाहिक में एक दृश्य में एक व्यक्ति कहता है कि “हम लोग सर, जर, जमींन के लिए न बहन देखते हैं और न बाप!”
जिस धारावाहिक के एक दृश्य पर आजतक फ़िदा है, वह लड़कियों के अधिकार की लड़ाई पर बात नहीं कर रहा। सारा विमर्श ऐसा बना दिया जैसे कि पाकिस्तानी धारावाहिकों में “औरत” के हक़ को लेकर बहुत बड़ी बात कही गयी है।
इसी में जो आगा का परिवार है, वह भी संपत्ति में हक़ की बात कर रहा है। एक मकान पर आगा जी का कहना है कि उनके अब्बू ने यह मकान उनके नाम किया था। हालांकि कागजी कार्यवाही नहीं की गयी, मगर यह मौखिक रूप से उनके अब्बू ने उन्हें दिया है।
अब उसी मकान पर कब्जे के लिए अपने परिवार में ही मुक़दमे बाजी हो रही है, जिसमें वह यह कह रहे हैं कि मैं अपनी बेटियों का हक़ नहीं मरने दूंगा, मैं अदालत में यह केस लडूंगा, और उनकी बहन भी यही कहती है कि आप इस मकान को अकेले नही पचा सकते, भाई बहनों का हक़ नहीं मार सकते। एक भतीजा भी वहीं आया हुआ है, जो यह कहता है कि मकान पर उसका हक़ है।
लड़की जहां गयी है ससुराल में, उसकी सास भी बाप की दौलत में हक की बात करती दिखाई दे रही है।
मगर भारत के मीडिया के लिए उस धारावाहिक का महिमामंडन आवश्यक है। ऐसे में केरल की वह घटना स्वत: ही याद आ जाती है, जिसमें एक मुस्लिम दंपत्ति ने स्पेशल मैरिज एक्ट के अंतर्गत इसलिए दोबारा शादी की, कि उनकी दौलत का हक़ उनकी बेटियों के पास ही रहे। उनका वह हक़ कहीं न जाए, क्योंकि शरिया में यह लिखा है कि यदि कोई पुरुष वारिस नहीं है तो दो तिहाई दौलत बेटियों के पास जाएगी और शेष उनके भाइयों के पास। इसलिए अपनी बेटियों को हक़ दिलाने के लिए उन्होंने दोबारा निकाह किया।
मगर मीडिया ने इस विमर्श पर बात करना मुनासिब नहीं समझा। उसने हक़ के इस विमर्श को वहीं दबा दिया। आखिर क्यों? क्या कारण है और जब एक पाकिस्तानी धारावाहिक में कथित रूप से औरतों का हक़ दिखाया गया तो आज तक जैसे पोर्टल यह कहने लगे कि ऐसे धारावाहिक भारत में भी दिखाने की मांग हो रही है?
यह पूरा धारावाहिक मात्र हक़, हक़ और हक़ की बात करता हुआ दिखाई देता है। जो दृश्य साझा किया जा रहा है, वह भी हक़ माने केवल अधिकार की बात करता है। और ऐसे धारावाहिक की प्रशंसा उस देश और संस्कृति में की जा रही है, जहां पर अधिकार से ऊपर कर्तव्य को रखा गया है।
एक ऐसे धारावाहिक को महिमामंडित किया जा रहा है, जिसमें एक अमेरिका में बैठे भाई को यह तक सब्र नहीं है कि वह पाकिस्तान का एक मकान अपने भाई को दे दे, जिसे उसके अब्बा ने मौखिक रूप से ही सही, पर छोटे भाई के नाम कर दिया है। अर्थात अब्बा के बोलों का कोई महत्व ही नहीं है। बस हक़ की लड़ाई है। हक़ का ऐसा पहाड़ खड़ा कर दिया है, जिसके सामने कर्तव्य अर्थात फर्ज कहीं दिखते ही नहीं। बेटियों का हक़, बेटों का हक़ या फिर औलाद का हक!
और यही मीडिया है, यही लिबरल समाज है, जो कर्तव्यों की महागाथा रामकथा पर निरंतर प्रश्न उठाता है। भारत में अधिकारों का नहीं कर्तव्यों का विमर्श रहा है। यहाँ पर जमीन और दौलत के लिए पिता और भाई के विरुद्ध जाने की परम्परा सहज नहीं थी। यहाँ पर तो रामायण काल से ही पिता के वचनों को पूरा करने के लिए सारी संपत्ति को सहज त्याग देने की परम्परा रही है।
मुगलों के साथ संघर्ष में न अपनी मातृभूमि एवं स्त्रियों की रक्षा के लिए हंस कर सिर कटाने वाले कर्तव्यों की एक लम्बी श्रृखंला है। परन्तु उसी समय हक़ के लिए लड़ते मुग़ल हैं, जिनमें जहांगीर तो अपने हक़ के लिए अपने ही बेटे खुसरो को अंधा तक कर देता है। औरंगजेब अपने हक़ के लिए अपने भाइयों को मरवा देता है। और उधर माता जीजाबाई अपनी मातृभूमि के प्रति कर्तव्यों के प्रति समर्पण के साथ अपने पुत्र को ही ऐसा फौलाद बनाती हैं कि अपने अब्बा को “हक” के लिए कैद करने वाला औरंगजेब हिल जाता है।
मीडिया यह कैसा विमर्श तैयार कर रहा है? वह केरल वाली खबर दबा जाता है, उस पर यह पंक्ति नहीं लिखता कि “मुस्लिम महिलाओं के साथ मजहब में यह ठीक नहीं होता है। उनके हक़ पर्याप्त नहीं दिए जाते! मगर एक धारावाहिक में औरतों के हक़ की बात है तो वह महिमामंडित हो रहा है, वहीं कर्तव्यों की बात करने वाली न ही पुस्तकों पर बात होती है, और न ही ऐसे धारावाहिकों का विमर्श बनाया जाता है। जो मीडिया इस बात पर प्रफुल्लित हो रहा है कि ऐसे एक सीरियल में औरतों के हक़ की बात दिखाई गयी, वही मीडिया भारत में तीन तलाक, हलाला या फिर जहेज पर बात नहीं करता।
अहमदाबाद में एक मुस्लिम लड़की आयशा ने जहेज अर्थात दहेज़ और शौहर की बेवफाई के चलते लाइव आत्महत्या कर ली थी, मगर विमर्श नहीं बन पाया। मीडिया ने उस समाज से यह पूछने का प्रयास नहीं किया कि औरत के हक़ क्या हैं?
अपने देश में मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं को कट्टरपंथियों की दृष्टि से देखने वाला लिबरल मीडिया, किसी भी पाकिस्तानी धारावाहिक से प्रभावित होकर कैसे यह सोच भी सकता है कि ऐसे धारावाहिक भारत में भी बनने चाहिए, जिसमें हक के अतिरिक्त और कोई बात है ही नहीं! हक़ बहुत कहे जा रहे, मगर फर्ज? फर्ज नदारद! क्या मीडिया एक ऐसा विमर्श चलाना चाहती है जिसमें परिवार में केवल हक़ की लड़ाई होती रहे, फर्ज अर्थात कर्तव्य, जो भारतीय विचार के प्राण है, उसकी कहीं पर भी चर्चा न हो?
कर्तव्यों का निर्वहन ही नहीं बल्कि उनके लिए जीवन बलिदान करने वाले भारतीय बलिदानी मीडिया में विमर्श नहीं बन पाते हैं, और विमर्श में कौन स्थान पाता है वह धारावाहिक। जो सीमा पार का बना है, और उसमें भी जो उसकी जो मूल थीम है, उस पर बात नहीं होती कि कैसा भाई है जो अमेरिका में बैठे हुए भी पाकिस्तान में एक मकान पर नजर गढ़ाए है। बहन भी वहीं पर है कि हक़ दो, और आगा जी, इसलिए नहीं दे रहे क्योंकि उनके अब्बू ने मौखिक कहा था कि वह उन्हें दे दिया।
दुखद है कि पिता के दो वचनों की पूर्ति के लिए अयोध्या के राजपाट छोड़ने वाले प्रभु श्री राम के देश में लुटियन मीडिया कर्तव्यों के लिए हँसते हँसते बलिदान होने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के स्थान पर परिवार में दौलत के लिए आपस में भाइयों के मनमुटाव वाले धारावाहिक के विमर्श को पोषित कर रहा है।
भारत में मुस्लिम औरतों के अनिवार्य हिजाब, तीन तलाक, हलाला एवं जहेज जैसी कुरीतियों पर मौन रहने वाला लिबरल मीडिया पाकिस्तानी धारावाहिक के औरतों के हक़ का विमर्श चला रहा है, इससे बड़ी विडंबना क्या होगी?
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