स्वतंत्रता के बाद भारत के बहुसंख्यक हिंदू समाज ने अन्य समुदायों के प्रति जिस प्रकार सहिष्णुता और सामंजस्य का परिचय दिया है, वह प्रशंसनीय है, किंतु इन सबके प्रत्युत्तर में उसे निराशा व हताशा ही मिली है। कई दशकों से तुष्टीकरण के नाम पर हिंदू समाज के हितों के साथ कुठाराघात हुआ है।
वर्तमान समय भारतवर्ष के सांस्कृतिक-आध्यात्मिक पुनरुत्थान का कालखंड है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में केदारनाथ धाम में भाष्यकार भगवान जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य जी की मूर्ति की स्थापना, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, महाकाल लोक का निर्माण जैसे अनेक लोकोपकारी कार्य संपन्न हुए हैं। इन सद्कार्यों से संत समाज हर्षित, आह्लादित और आशान्वित है कि सरकार और न्यायालय मिलकर हिंदू धर्मालंबियों के साथ अनेक बहुप्रतीक्षित विषयों पर न्याय करेंगे।
स्वतंत्रता के बाद भारत के बहुसंख्यक हिंदू समाज ने अन्य समुदायों के प्रति जिस प्रकार सहिष्णुता और सामंजस्य का परिचय दिया है, वह प्रशंसनीय है, किंतु इन सबके प्रत्युत्तर में उसे निराशा व हताशा ही मिली है। कई दशकों से तुष्टीकरण के नाम पर हिंदू समाज के हितों के साथ कुठाराघात हुआ है। ऐसे अनेक विषयों में से एक महत्वपूर्ण विषय है हिंदू मठ-मंदिरों का सरकारी अधिग्रहण।
मंदिरों की संपत्ति पर नियंत्रण
भारत के कई बड़े और आर्थिक दृष्टि से संपन्न मंदिरों की संपत्ति सरकार के अधीन है। अकेले दक्षिण भारत के मंदिरों और धार्मिक संस्थानों के पास चौबीस लाख एकड़ कृषि भूमि और हजारों की संख्या में आवासीय और व्यापारिक भवन हैं। लगभग 100 करोड़ वर्ग फुट से ज्यादा शहरी औद्योगिक भूमि है। इस संपत्ति से जो लाभ मिल रहा है, उससे कहीं अधिक वहां की राज्य सरकारें आडिट शुल्क और प्रशासनिक शुल्क के नाम पर मंदिरों से सालाना वसूल रही हैं। इतना ही नहीं, वर्ष 1986 से 2017 के मध्य में मंदिरों की हजारों एकड़ भूमि अवैधानिक ढंग से बेच दी गई या उस पर कब्जा कर लिया गया।
ऐतिहासिक राम मंदिर के संदर्भ में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का अध्ययन करें तो अन्य सभी पक्षकारों के दावों को खारिज कर माननीय न्यायालय ने वह भूमि रामलला को दे दी, अर्थात् भगवान स्वयं ही उसके मालिक हैं। इस आधार पर देश के सभी मंदिरों की संपत्ति पर उन्हीं मंदिरों का अधिकार बनता है और सारा धन उन्हीं के रखरखाव, धर्म संस्कृति के विस्तार आदि में खर्च होना चाहिए।
इस समयावधि में अकेले तमिलनाडु में मंदिरों की 47000 एकड़, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में 25,000 एकड़ जमीन गायब हो गई है। वहीं केरल में सभी मंदिरों की जमीन सरकार ने अधिग्रहित कर ली और उसके बदले बहुत थोड़ी सी धनराशि मंदिरों को दे दी गई। उदाहरण के लिए अकेले पद्मनाभ स्वामी मंदिर की 17,500 एकड़ कृषि भूमि ले ली गई और उसके बदले में मंदिर ट्रस्ट को मात्र 47,500 रुपये सालाना दिये जा रहे हैं। ये केवल दक्षिण भारत के कुछ राज्यों के आंकड़े हैं। उत्तर भारत में और पूरे देश में बड़ी संख्या में राज्य सरकारों ने मंदिरों को अधिग्रहित कर रखा है।
किसका हो स्वामित्व?
हमारी संस्कृति में मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं, अपितु हिंदू धर्म की शिक्षा, कला, संगीत, साहित्य, वास्तु, स्थापत्य आदि विधाओं अथवा सम्पूर्ण संस्कृति के विस्तार और उत्कर्ष का केंद्र हुआ करते थे। कोई हिंदू मंदिर या तीर्थ स्थान जाता है तो जो भेंट वह अर्पित करता है, वह भगवान के लिए करता है, इसलिए मंदिरों की संपत्ति का उपयोग धार्मिक गतिविधियों में किया जाना चाहिए। जबकि राज्य सरकारें उसे ट्रेजरी का धन बताकर अन्य मदों में उपयोग करती हैं।
जैसे ऐतिहासिक राम मंदिर के संदर्भ में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का अध्ययन करें तो अन्य सभी पक्षकारों के दावों को खारिज कर माननीय न्यायालय ने वह भूमि रामलला को दे दी, अर्थात् भगवान स्वयं ही उसके मालिक हैं। इस आधार पर देश के सभी मंदिरों की संपत्ति पर उन्हीं मंदिरों का अधिकार बनता है और सारा धन उन्हीं के रखरखाव, धर्म संस्कृति के विस्तार आदि में खर्च होना चाहिए।
दुर्भाग्य यह है कि भोले-भाले श्रद्धालुओं द्वारा आस्था में भगवान को सौंपी गई इन प्रचुर धनराशि का अपव्यय किया जा रहा है।
कई जगह तो मंदिरों के पैसे से सरकारी कर्मचारियों के वेतन का भुगतान किया जा रहा है। कई जगह मंदिरों का नियंत्रण विधर्मियों के हाथ में है।
हमारी संस्कृति में मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं, अपितु हिंदू धर्म की शिक्षा, कला, संगीत, साहित्य, वास्तु, स्थापत्य आदि विधाओं अथवा सम्पूर्ण संस्कृति के विस्तार और उत्कर्ष का केंद्र हुआ करते थे। कोई हिंदू मंदिर या तीर्थ स्थान जाता है तो जो भेंट वह अर्पित करता है, वह भगवान के लिए करता है, इसलिए मंदिरों की संपत्ति का उपयोग धार्मिक गतिविधियों में किया जाना चाहिए।
संप्रदाय के हाथ में हो संप्रदाय का मंदिर
प्रत्येक मंदिर का वैशिष्ट्य होता है जो स्थान, मत, परंपरा, देवी-देवता, मंदिर का स्वरूप और मान्यताओं के आधार पर निश्चित किया जाता है। प्रत्येक मंदिर को उसके संप्रदाय को सौंप देना चाहिए। अथवा स्थानीय आस्थावान धर्म के अनुयायियों की एक समिति बनाकर
उनके हाथों मंदिर का नियंत्रण दिया जाना चाहिए। मंदिर पर सरकारी नियंत्रण उस स्थान, देवी-देवता, मान्यता, स्वरूप, महात्म्य को विकृत करेगा।
दूसरा तथ्य यह है कि ऐसा केवल हिंदू धर्मस्थानों की संपत्तियों के साथ किया जा रहा है। किसी भी चर्च या मदरसे का कभी भी सरकार द्वारा अधिग्रहण नही किया गया। यदि हिंदू मंदिरों का अधिग्रहण विवाद या अव्यवस्था की स्थिति में किया गया है तो मदरसे और चर्च के ऐसे कई मामले न्यायालय में लंबित पड़े हैं। किसी दरगाह, मस्जिद, चर्च या अन्य किसी आस्था के केंद्र पर सरकार ने अपना नियंत्रण क्यों नहीं स्थापित किया?
ऐसी स्थिति में सरकार कुछ समय के लिए मंदिरों के प्रबंधन को अपने हाथ में ले सकती है किंतु व्यवस्था ठीक करके उन्हें वापस समाज को सौंप देना चाहिए। दुर्भाग्य से आज देश के कई ऐतिहासिक, पौराणिक, ट्रस्ट, अथवा समाज के कई मंदिरों पर सरकार ने स्थायी नियंत्रण कर रखा है। इन मंदिरों की धनराशि के उपयोग का अधिकार सरकार को कैसे हो सकता है?
यदि ट्रस्ट अथवा मंदिर के स्वामित्व को लेकर विवाद की स्थिति है तो व्यवस्था ठीक करके मंदिरों को उनके संप्रदाय अथवा वहां के स्थानीय मतावलंबियों की समिति बनाकर तत्काल उन्हें सौंपना चाहिए अथवा देवस्थान के पैसों से अविलंब विश्वविद्यालय अथवा कॉलेज बनाए जाएं जिनमें वेद-उपनिषद अथवा हिंदू जीवन दर्शन के विषय में अध्ययन-अध्यापन का कार्य हो।
(लेखक जूनापीठाधीश्वर के आचार्य महामंडलेश्वर हैं)
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