कम ही लोग जानते होंगे कि निष्काम कर्म की प्रेरणा देने वाली मानवीय जीवन की सर्वोत्तम आचार संहिता ‘’श्रीमद्भगवद्गीता’’ स्वस्थ, सुदीर्घ व उन्नत जीवन की सर्वोत्कृष्ट आहार संहिता भी है। श्रीमद्भगवद्गीता में योगिराज श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि आहार शुद्ध होने पर ही अंत:करण शुद्ध होता है और शुद्ध अंत:करण में ही ईश्वर में स्मृति सुदृढ़ होती है तथा स्मृति सुदृढ़ होने से हृदय की अविद्या जनित गांठे खुल जाती हैं। स्वस्थ और सुखी जीवन के लिए संतुलित आहार की आवश्यकता को भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के माध्यम से सारगर्भित रूप व्याख्यायित करते हैं। भगवद्गीता के छठे अध्याय के 17 वें श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- ‘’युक्ताहारविहारस्य युक्ताचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।‘’ अर्थात जिसका आहार और विहार संतुलित हो , जिसका आचरण अच्छा हो, जिसका शयन, जागरण व ध्यान नियम नियमित हो, उसके जीवन के सभी दु:ख स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। इस कारण हर व्यक्ति को अपने भोजन के बारे में सक्रिय रूप से चिंतन और विचार करना चाहिए। बहुत अधिक खाना या बिल्कुल न खाना, बहुत अधिक सोना या निरंतर जागना दोनों ही स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। कारण कि ऐसे लोग एकाग्रचित्त नहीं हो सकते और न ही ध्यान साधना कर सकते हैं।
गलत खानपान से बढ़े अवसाद के रोगी
आधुनिक बाजारवाद ने हमारे खानपान व सेहत पर व्यापक दुष्प्रभाव डाला है। पिज्जा, चाउमीन, बर्गर, हॉट डॉग, पेस्ट्री, समोसे, कोल्ड ड्रिंक जैसे ढेरों जंक फूड पेट सम्बन्धी रोग बढ़ा रहे हैं। विज्ञान और पर्यावरण केन्द्र की ओर से 33 बड़े ब्रांड पर किया गया अध्ययन कहता है कि जंक फूड की लत से हम जाने-अनजाने रोज ही तय मात्रा से अधिक नमक वसा व कार्बोहाइडेट का उपयोग कर रहे हैं। इससे शरीर के मेटाबोलिज्म के साथ मानसिक संतुलन भी बिगड़ रहा है। एक शोध से पता लगा है कि दुनिया भर में औसतन बच्चे हफ्ते में 3 दिन फास्ट फूड का सेवन करते हैं जो उनकी सेहत के लिए बहुत हानिकारक है। आधुनिक कम्पनियां अप्राकृतिक निर्जीव आहार का निर्माण करके हम सबकी आंखों में धूल झोंक रही हैं। वैज्ञानिक और आहार-शास्त्री भी व्यापारी उत्पादकों के हाथों में बिके हुए हैं। वे तरह-तरह के आविष्कार करके और नित नये आहार सिद्धांत निकालकर हमें रसोईघर की सिरदर्दी से दूर रखना चाहते हैं। यही नहीं, हाल के अध्ययनों में सामने आया है कि व्यक्ति का खानपान उसके मनोभावों को गहराई से प्रभावित करता है। अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट क्लीनिकल प्रोफेसर डॉ. ड्यू रामसे बताते हैं कि गलत खानपान अमेरिका में अवसाद के नए खतरे के रूप में सामने आया है।
गीता में व्यक्ति के व्यक्तित्व के हिसाब से आहार की तीन तरह की श्रेणियों का वर्गीकरण मिलता है- “आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रिय’’(17/7)। ये श्रेणियां हैं- सात्विक, राजसिक और तामसिक। मनुष्य के जीवन का इन तीनों का अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। सात्विक आहार वह आहार होता है जिसमें सत्व गुण की प्रधानता होती है। ऐसा आहार बिना किसी बैर भाव के किसी को पीड़ा पहुंचाए बिना प्राप्त किया जाता है। सात्विक भोजन से मन में शुद्ध विचार आते हैं और शुद्ध विचारों से मन शांत होता तथा चरित्र अच्छा बनता है और ऐसा व्यक्ति परमात्मा को प्रिय होता है। गोदुग्ध तथा गोघृत, छाछ, मक्खन, फल और सूखे मेवे, अंकुरित अन्न, हरी पत्तेदार शाक-सब्जियां एवं बिना लहसुन-प्याज का हल्का सुपाच्य ताजा बना भोजन सात्विक आहार के अंतर्गत आता है। वहीं तेज मिर्च-मसाले का वाला तला-भुना भोजन व तरह-तरह के मीठे-तीखे व्यंजन व पकवान राजसिक भोजन की श्रेणी में आते हैं। ऐसा भोजन मन को चंचल व विचलित करता है। जबकि जीवहत्या कर उसके मांस से बनाया गया भोजन तथा मदिरा, तम्बाकू आदि तामसिक आहार की श्रेणी में आता है। ऐसा भोजन आसुरी भोजन होता है जिसके सेवन से क्रूरता, क्रोध, लालच व आलस्य के मनोभाव विकसित होते हैं।
जानना दिलचस्प हो कि भगवान कृष्ण ने गीता में चार तरह के भोजन के बारे में बताया है। वे कहते हैं कि ऐसा भोजन उत्तम होता है जो चबाने, चूसने, पीने तथा चाटने योग्य होता है। वे कहते हैं कि ऐसा आहार इसलिए ग्रहण करना चाहिए क्यूंकि यह सब आसानी से पच जाते हैं और हमारी प्राणवायु तथा अपानवायु को संतुलित रखते हैं। अच्छी पाचन शक्ति व्यक्ति की चेतना को ऊंचा उठाने में सहायक होती है। आयुर्वेद में भी कहा गया है कि मनुष्य की सेहत के लिए सात्विक आहार सबसे अच्छा होता है। जानना दिलचस्प हो कि आधुनिक वैज्ञानिक शोध भी गीता के इस आहार सूत्र की वैज्ञानिकता की पुष्टि करते हैं।
भोजन के ज्ञान विज्ञान को परिभाषित करते हुए श्रीभगवान आगे कहते हैं कि पूर्ण एकाग्रचित्त होकर प्रसन्न भाव से परमात्मा को धन्यवाद देकर ही भोजन शुरू करना चाहिए। इस विधि से किया गया भोजन प्रसाद बन जाता है। “आरोग्यं भोजनाधीनम ” अर्थात आहार का प्रभाव, केवल स्थूल शरीर पर ही नहीं पड़ता, अपितु मन पर भी पड़ता है। वे कहते हैं कि तुम क्या हो, यह तुम्हारे भोजन से पता चलता है! भोजन की इसी महत्ता को प्रतिपादित करने के लिए महाभारत के युद्ध से पूर्व शांतिदूत बनकर हस्तिनापुर गये श्रीकृष्ण ने दुर्योधन का राजसी भोज त्यागकर महात्मा विदुर के घर का सात्विक ग्रहण करना अधिक पसंद किया था। इस तरह हम पाते हैं कि भगवद्गीता में आहार की पवित्रता पर अत्यधिक महत्व दिया है। योगेश्वर का प्रतिपादन है कि जब जीभ के साथ समझौता हो जाता है, तब आहार का विवेक चलता है। इसलिए भोजन वैसा करना चाहिए , जिससे शरीर के साथ मन-मस्तिष्क भी उन्नत बने। आहार का विवेक आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
गीता सिखाती है कि भोजन का हमारे नैतिक और आध्यात्मिक स्वभाव से गहरा सम्बन्ध है। जो भोजन हमारे शरीर को पुष्ट और संवर्द्धित करता है, उसका हमारे मन पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। इसीलिए हमारे यहां कहावत भी है – ‘’जैसा अन्न वैसा मन’’ और ‘’जैसा पानी वैसी वाणी’’। भोजन का हमारे प्राण और मन दोनों से सीधा सम्बन्ध है। गीता में सात्विक, राजसिक और तामसिक प्रकृति के व्यक्तियों के पसंद के अलग-अलग प्रकार के भोज्य पदार्थ बताये गये हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से भोजन सम्बन्धी सबसे महत्वपूर्ण विचार है कि इसके द्वारा हमारे शरीर में आश्चर्यजनक मनोवैज्ञानिक परिवर्तन घटित होते हैं। यही वजह है कि हमारे मनीषियों ने बिना सोचे विचारे भोजन का निषेध किया है। हम जिनके साथ हम भोजन करते हैं, उनके साथ हम एक तरह की आन्तरिकता का बोध करते हैं। भोजन बनाने व कराने वाले के प्रति भी हमारे हृदय में सहृदयता होती है, भले ही हम उसे पूरी तरह व्यक्त न करें । ऐसा क्यों होता है? निश्चय ही भोजन का प्रभाव केवल शरीर अथवा सतही मन की अपेक्षा और भी गहरा होता है।
अब आहार की प्रकृति की बात करते हैं। आजकल पूरी दुनिया में शाकाहार ब मांसाहार को लेकर बहस छिड़ी हुई है। पर्यावरण विज्ञानी व स्वास्थ्य विशेषज्ञ धरती को बचने के लिए शाकाहार अपनाने की सलाह दे रहे हैं क्यूंकि मांसाहार से भी ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारी सनातन संस्कृति की आहार सूत्रों की उपयोगिता अब पूरी दुनिया को समझ आ रही है। यह अनुभवजन्य तथ्य है कि शाकाहारी भोजन स्वस्थ जीवन में सहायक होता है। ऐसा आहार शरीर के अंगों को शीतल, शान्त और सन्तुलित बनाये रखता है जिससे वासनायें उत्तेजित नहीं होतीं। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे कि व्यक्ति को दिन के समय भरपेट भोजन करना चाहिए, पर रात में उसका भोजन अल्प रहे। साथ ही बीच-बीच में उपवास करना शारीरिक और मानसिक दोनों दृष्टियों से अत्यन्त लाभप्रद होता है।
भगवद्गीता के सतरहवें अध्याय के चार श्लोकों में भोजन के स्वरूप की व्याख्या की गयी है कि व्यक्ति जो भोजन पसंद करता है, वह उसकी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का होता है। सात्विक प्रकृति के व्यक्तियों को जो भोजन प्रिय होता है वह आयु बढ़ाने वाला, जीवन को शुद्ध करने वाला तथा बल, स्वास्थ्य, सुख तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है। इस श्रेणी के भोजन में दूध के व्यंजन, घी, गुड़, चीनी, चावल, दाल, जौ व गेहूं की रोटी, फल तथा सब्जियां शामिल हैं। नहा धोकर साफ सफाई से तैयार किया गया भोजन सात्विक होता जाते है। आध्यात्मिक मनीषी कहते हैं कि जब यह शुद्ध व शाकाहारी भोजन प्रभु का नाम लेते हुए श्रद्धाभाव व प्रसन्न मन से बनाया जाता है तो प्रसाद बनकर देह के लिए अमृत तुल्य हो जाता है। इसके विपरीत अत्यधिक तले-भुने व मिर्च मसाले वाले तीखे- मीठे, खट्टे, नमकीन व कड़वे व गरम आदि भोज्य पदार्थ राजसी प्रकृति के मनुष्यों को प्रिय होते हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बात करें तो केक-पेस्ट्री, पिजा-बर्गर, चाऊमिन जैसे फास्टफूड, डिब्बाबंद भोज्य पदार्थ और जैसे चाय-कॉफ़ी, चाकलेट, कोल्डड्रिंक आइसक्रीम आदि भी राजसिक आहार की श्रेणी में आते हैं। वहीं तामसी प्रवृति के व्यक्तियों को मांस, मछली, अंडा व शराब आदि प्रिय लगता है।
आधुनिक आहार विज्ञानियों की मानें तो मानव शरीर-रचना को देखने से यह ज्ञात होता है कि यह शाकाहार के अधिक अनुकूल है। आदिकाल से ही मानव का आहार मुख्यतः कंद-मूल, फल, शाक-भाजी, पत्तियां, बीज और मेवों का मुख्य स्थान रहा है। शिकागो विश्वविद्यालय के प्रो. जारडन के मतानुसार-‘‘पाषाण काल का मानव पकाने की कला से अनभिज्ञ था। प्राकृतिक अवस्था में ही प्रकृति के प्रांगण में सूर्य द्वारा पकाया हुआ आहार, बिना किसी प्रकार का परिवर्तन किये उपयोग करता था। इसलिए वह पूर्ण स्वस्थ था।’’ गांधीजी के मतानुसार-‘‘प्राकृतिक भोजन जिसमें अन्न, शाक-सब्जी आदि सभी पदार्थ शामिल हैं; आग पर पकाये हुए भोजन से निश्चय ही उत्कृष्ट और सामान्यतः मानव स्वास्थ्य के लिए उत्तम हैं।’’ डॉ. मैक्रिसन के कथानुसार-‘‘हुंजा घाटी के निवासी स्वस्थ एवं दीघार्यु होते हैं, क्योंकि वे सजीव खाद द्वारा उत्पन्न खाद्य, विशेषकर फल, हरी सब्जी, अन्न कण पर ही जीवित रहते हैं।’’
वैदिक युग में भारतवासियों का मुख्य भोजन ताजे फल व कच्चा व हरा अनाज था। चना हरा मटर, धनिया, पुदीना, हरी-ताजी साग-सब्जी, पत्तागोभी, खीरा, ककड़ी, मूली, चुकन्दर, लौकी, खरबूजा, तरबूज, पपीता आदि ताजे फल थे। कच्चे आहार में कच्चे पेय-जैसे कि गन्ने का रस, नारियल का पानी, ताड़ या खजूर के पेड़ का रस, कच्चा दूध, फल, रस, शहद आदि थे। रात्रि का पक्का अन्न (आहार)-जैसे कि सूर्य की गरमी से पके हुए बेर, बेल आदि मौसमी फल तथा अनाज थे। यह कच्चा-पक्का अन्न वे बिना पकाये उसे प्राकृतिक अवस्था में ही खाते थे और धूप में पके अनाज (गेहूं, चना, दालें आदि) को अंकुरित कर लेते थे। ऐसे कच्चे-पक्के अन्न (प्राकृतिक आहार) के कारण ही प्राचीन ऋषि मुनियों ने सैकड़ों वर्षो तक स्वस्थ जीवन जीकर कई अनुपम ग्रंथ वेद, शास्त्र, उपनिषद तथा ज्ञान-विज्ञान के दुर्लभ ग्रन्थ रच डाले, जिन पर आज भी भारत को गर्व है।
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