अंग्रेज, सावरकर को मृत्युदंड देने का जोखिम नहीं उठा सकते थे। इसलिए, अंग्रेजों ने हेग इंटरनेशनल आर्बिट्रेशन में सावरकर केस आरंभ होने से पहले ही सावरकर को दो आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
राष्ट्रविरोधी तत्व वीर सावरकर के जिस कथित माफीनामे को लेकर इतनी उछलकूद कर रहे हैं, वह तथाकथित माफीनामा लगभग सौ वर्ष पुराना है। स्वयं वीर सावरकर को गुजरे लगभग 57 वर्ष हो चुके हैं। वीर सावरकर स्वतंत्र भारत में किसी भी संवैधानिक पद पर आसीन नहीं रहे। शासकों द्वारा स्वाधीन भारत में भी उन्हें वैसे ही रखा गया, जैसे पराधीन भारत में रखा गया था, और वे उतने ही प्रताड़ित भी रहे। न उनकी कोई संतान राजनीति में है, न किसी पद पर आसीन है। फिर भी लगभग 20-215 वर्ष से राष्ट्रविरोधी खेमा वीर सावरकर के पीछे हाथ धोकर पड़ा है। इसका राज क्या है? क्या वीर सावरकर ने सच में माफी मांगी थी ? अगर मांगी थी तो उसके कारण क्या थे? उनका उद्देश्य क्या था? क्या वह कथित माफीनामे सावरकर ने देश से छिपाकर रखे थे? इन सभी तथ्यों की जांच भी इस लेख के संलग्न उद्देश्य हैं।
माफीनामे का अर्थ क्या होता है?
सर्वप्रथम हमें यह समझना आवश्यक है कि असल में माफीनामे का अर्थ क्या होता है?
- जिसमें स्पष्ट रूप से किए हुए कामों पर खेद जताते हुए पछतावा प्रकट किया जाता हो।
- उस काम में सम्मिलित अपने साझीदारों के नाम उजागर किए गए हों।
- उस कार्य का राज प्रकट किया गया हो।
- बिना शर्त ‘उस काम को दोबारा नहीं करूंगा’ की हामी भरी हो।
- रिहाई के पश्चात उस काम से व उन सहयोगियों से नाता तोड़ा गया हो।
- उस समय के देशभक्त सहयोगियों ने भी माना हो कि, ‘यह व्यक्ति क्षमाप्रार्थी’ है।
- शत्रु राष्ट्र ने भी यह माना हो कि उपरोक्त व्यक्ति बदल गया है।
उपरिलिखित सभी मुद्दे जिसमें मिलते हैं, उसे ही माफीनामा कहते हैं। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि राजनीतिक परिस्थितियों में तात्कालिक माफीनामे की आवश्यकता रहती है। और तो और, वह परिस्थिति युद्धजन्य हो; तो यह आवश्यकता और भी बढ़ती है।
सावरकर के समक्ष माफी मांगने का अवसर क्यों आया होगा?
उत्तर स्पष्ट है, वीर सावरकर को दो आजीवन कारावास की सजा हुई थी। उन्हें ऐसी अमानवीय सजा देने का एक ही कारण था; उन्होंने अंग्रेजों को भारत से भगाने हेतु व्यापक, बहुआयामी व सक्रिय योजना बनाई थी। उसके लिए वे खुलेआम सशस्त्र क्रांति की वकालत कर रहे थे। उन्होंने बहुत ही छोटी आयु में विभिन्न पुस्तकें लिखकर और भाषण देकर सशस्त्र क्रांति के दर्शन की रचना की थी। सशस्त्र क्रांति का यह दर्शन दुनिया भर में फैले सभी भारतीय क्रांतिकारियों के लिए मार्गदर्शक था। सावरकर के काम को अंग्रेज आतंकवादी, अराजकता फैलाने वाला और वैकल्पिक रूप से राजद्रोही मानते थे। इसीलिए सावरकर की सभी गतिविधियों का अर्थ अंग्रेजों ने यह निकाला कि ‘सावरकर ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी है और उसी के आधार पर सावरकर को दो आजीवन कारावास की सजा दी।
ध्यान से देखें तो गांधी, तिलक जैसे नेताओं की बात तो दूर, वासुदेव बलवंत फड़के जैसे महान क्रांतिकारी को भी अंग्रेजों ने इतनी अमानवीय सजा नहीं दी थी। यह सजा ही सावरकर की देशभक्ति का प्रबल प्रमाण है और उनकी कथित क्षमायाचना का कारण भी। क्षमापत्र की दुहाई देनेवाले इस अमानवीय सजा को कैसे भूल जाते हैं? यह उनकी चुनिंदा स्मृति व पक्षपाती प्रवृत्ति ही है। इस पर कुछ लोग पूछेंगे कि अगर सावरकर इतने खतरनाक थे तो, अंग्रेजों ने सावरकर को मृत्युदंड की सजा क्यों नहीं सुनाई? सच यह है कि अंग्रेज चाहकर भी सावरकर को फांसी की सजा नहीं दे पा रहे थे। उनकी मजबूरी के कारण निम्नलिखित थे –
- सावरकर ने मार्सिले नामक फ्रांसीसी बंदरगाह पर छलांग लगाकर अंग्रेजों के समक्ष अंतरराष्ट्रीय पेचीदगी खड़ी कर दी थी।
- उसी के चलते फ्रांस सरकार ने ब्रिटिश सरकार से सावरकर को फ्रांस को सौंपने की मांग की थी।
- सावरकर के हस्तांतरण हेतु हेग इंटरनेशनल आर्बिट्रेशन में फ्रांस द्वारा ब्रिटेन के खिलाफ याचिका दायर की गई थी।
- फ्रांस की इस ब्रिटिश विरोधी भूमिका को जर्मनी, इटली, स्विट्जरलैंड, बेल्जियम, चेकोस्लोवाकिया जैसे कई यूरोपीय देशों का समर्थन प्राप्त था।
- इंग्लैंड तथा यूरोप में सावरकर की मुक्ति हेतु गाय डी एल्ड्रेड जैसे अंग्रेजी युवा पत्रकार व लेखक के नेतृत्व में एक आंदोलन आकार ले रहा था जो इंग्लैंड से लेकर सुदूर अमेरिका तक फैल चुका था।
- महज 27 वर्ष की आयु में सावरकर पूरे यूरोप और अमेरिका में ‘भारत के जोसेफ मेजिनी, गैरीबाल्डी, कोवूर’ के रूप में उभर चुके थे।
इन सभी पहलुओं का विचार करते हुए अंग्रेज, सावरकर को मृत्युदंड देने का जोखिम नहीं उठा सकते थे। इसलिए, अंग्रेजों ने जल्दबाजी में हेग इंटरनेशनल आर्बिट्रेशन में सावरकर केस आरंभ होने से पहले ही सावरकर को दो आजीवन कारावास की सजा सुनाई। समूचे केस के दौरान सावरकर ने यह न्यायिक रुख अपनाते हुए कि ‘ मैं फ्रांस का बंदी हूं और हेग के न्यायालय का फैसला आने से पूर्व मुझ पर अंग्रेजों का कोई अधिकार नहीं’ केस में हिस्सा नहीं लिया था। हालांकि, अंग्रेजों ने एकतरफा कार्रवाई करते हुए उन्हें दंडित किया।
सावरकर को दो आजीवन कारावास की सजा सुनाकर, इंग्लैंड अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में यह प्रदर्शित करना चाहता था कि सावरकर कितना बड़ा व खतरनाक अपराधी है। आजीवन कारावास के बजाय अगर सावरकर को फांसी दे दी गई होती, तो एक महान शहीद के रूप में सावरकर की छवि पूरे यूरोप में और अधिक छा जाती। परिणामस्वरूप इंग्लैंड के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय आक्रोश पैदा होता। फ्रांस जैसा सहयोगी इंग्लैंड के खिलाफ जाता। और इन तमाम घटनाक्रमों में हेग की अदालत में ब्रिटेन का दावा कमजोर पड़ जाता। इन सबसे बचने के लिए इंग्लैंड ने सावरकर को मौत के बदले दो आजीवन कारावास की सजा देकर एक तीर से कई निशाने साधे।
क्या सच में सावरकर ने माफीनामा लिखा था?
माफी की ऊपर बताई गई परिभाषा को ध्यान में रखते हुए; इस प्रश्न का सीधा उत्तर ‘नहीं’ है! हालांकि, सावरकर ने ब्रिटिश सरकार को लगभग 11 दया पत्र भेजे थे। इनमें से पहला डोंगरी की जेल से लिखा गया था। अंडमान से पहला दयापत्र तारीख 30 अगस्त 1911 और आखिरी 6 अप्रैल 1920 को भेजा गया था। अगले दो दयापत्र रत्नागिरि जेल से हैं। दयापत्र भेजने का अधिकार आजीवन कारावास की सजा काट रहे कैदियों को रहता है, और सभी उसका लाभ उठाते हैं। इन दयापत्रों को एक निर्धारित प्रारूप में ही भेजना होता है। सावरकर द्वारा भेजे गए दयापत्रों के पीछे निम्नलिखित कारण थे-
1) अंडमान में सावरकर की कैद लगभग 3580 दिनों की थी।
2) सावरकर को उनके कारावास के दौरान गांधी, नेहरू और भगत सिंह आदि को दी गई बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित कर दिया गया था।
3) सावरकर को मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा था।
4) सावरकर मूलत: एक वकील थे। इसलिए उन्हें ब्रिटिश कानून का पूरा ज्ञान था। उसका फायदा न उठाना गलत होता।
इसके अलावा सावरकर की नीतियों में ‘शत्रु से भी सत्य, अहिंसा, ईमानदारी और नीति से पेश आना चाहिए’ – ऐसे वैचारिक भ्रम का स्थान नहीं था। दुश्मन को किसी भी तरह से कुचल देना चाहिए, ऐसी उनकी धारणा थी जो कृष्णनीति या शिवनीति की उपज थी। औरंगजेब द्वारा आगरा की कैद से भागने हेतु छत्रपति शिवाजी महाराज ने भी सभी चालें चलीं थीं, उन्हीं हथकंडों की यह रूपांतरित आवृत्ति थी।
सावरकर ने दयापत्रों की जानकारी छिपाई थी?
अधिकांश विरोधियों का दावा होता है कि ‘हमने सावरकर के दयापत्रों की खोज की। उन्हें भारतीय जनता के सम्मुख लाए। जो उन्होंने वह छिपाकर रखे थे ‘आदि‘। तथ्य ठीक इसके विपरीत है। इन दयापत्रों का विवरण और इनमें क्या लिखा है, इसका विवरण विनायकराव ने अपने छोटे भाई को लिखे पत्र में दिया है। ये सभी पत्र समग्र सावरकर साहित्य के दूसरे भाग में प्रकाशित हुए हैं। इसके अलावा, सावरकर लिखित प्रसिद्ध पुस्तक ‘मेरा आजीवन कारावास’ में भी इनका विस्तृत वर्णन है। मतलब साफ है कि सावरकर ने इन दयापत्रों को अपने देशवासियों से छिपाया नहीं, बल्कि सबसे पहले उन्हें जनता के सामने पेश किया था। इसका अर्थ सावरकर ने भारतीय जनता से नहीं अपितु ब्रिटिशों से धोखा किया था, जो उनकी अकलंकित देशभक्ति का प्रमाण है।
क्या था सावरकर के इन दयापत्रों में?
डोंगरी से लिखी पहली अर्जी में , ‘क्या मैं एक ही उम्र कैद में दोनों उम्र कैद की सजा काट सकता हूं?’ यह प्रश्न सावरकर ने पूछा था। कानून के जानकारों को ज्ञात होगा कि एक जीवन में केवल एक जन्म होने से एक ही उम्रकैद की सजा भुगती जा सकती है। आजीवन कारावास का मतलब मृत्यु तक जेल में बंद रहना नहीं होता। बल्कि व्यक्ति जीवन की उम्मीद के वर्ष जेल में बिताना होता है। उस समय यूरोप में उम्रकैद की सजा 14 वर्ष थी। सावरकर जानते थे कि उन्हें दी गई 50 वर्ष की सजा यूरोप में साढ़े तीन आजीवन कारावास के बराबर की है।
साथ ही अगर किसी व्यक्ति को तीन अलग-अलग मामलों में 14, 07 और 03 वर्ष की सजा सुनाई जाती है; तो उसे 14+7+3=24 अर्थात चौबीस वर्ष की सजा काटने की आवश्यकता नहीं होती। कानून के इस ज्ञान के कारण ही सावरकर ने पहला दया पत्र लिखा था। इसके जवाब में, अप्रैल 1911 में, ब्रिटिश सरकार द्वारा सावरकर को, ‘पहले आजीवन कारावास के 25 वर्ष समाप्त होने दें, उसके बाद हम दूसरे आजीवन कारावास के बारे में सोचेंगे।’ ऐसी कठोर सूचना दी गई थी। सोचिए अगर कोई हमें ‘सिर्फ 25 दिन इंतजार करो, बाद में देखेंगे’- ऐसा कहता है तो भी हमारा धैर्य समाप्त हो जाता है। और यह वीर देशभक्त? ब्रिटिश सरकार उनसे 25 वर्ष बाद सोचने की बात करती है, तब भी अडिग रहता है।
1913 में भेजी गई याचिका में सावरकर ने कहा था कि, ‘अगर मेरे राष्ट्र को रचनात्मक प्रगति करने का मौका दिया जाए तो मैं खुद और मेरे साथी क्रांतिकारी भी शांति के रास्ते को अपनाने को तैयार होंगे।’ इस याचिका की पृष्ठभूमि को स्वयं सावरकर ने मेरे आजीवन कारावास में वर्णित किया है। साथ ही अपने अनुज नारायणराव को लिखे पत्र में विस्तृत विवरण भी दिया है। इस याचिका को सामने कर राष्ट्रविरोधी खेमा दावा करता है कि ‘सावरकर ने अंग्रेजों के सामने समर्पण किया था।‘ गृहमंत्री सर रेजिनाल्ड क्रेकॉर्ड अंडमान गए थे। सावरकर से मिलकर विस्तृत चर्चा की थी। उन्हीं के सुझाव पर सावरकर ने उपरोक्त याचिका लिखी थी। अपनी रिपोर्ट में वे लिखते हैं, ‘सावरकर ने कोई खेद या पश्चाताप व्यक्त नहीं किया… अगले 10, 15 या 20 वर्ष ही बताएंगे कि सावरकर कितने खतरनाक रहेंगे।’ सावरकर को अंग्रेज कितना बड़ा खतरा मानते थे, यह तथ्य क्रेकार्ड के इसी वाक्य से पता चलता है।
वर्ष 1914 में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भेजे गए एक लंबे पत्र में सावरकर ने मांग की थी कि ‘भारत को औपनिवेशिक स्वायत्तता दी जानी चाहिए जिसमें भारतीयों का बहुमत होना चाहिए। इसके बदले भारतीय क्रांतिकारी द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजों का सहयोग करेंगे।‘ इस पत्र को दिखाते हुए विरोध करने वाले चिल्लाते हैं कि, ‘1914 के माफीनामे में सावरकर ने युद्ध में अंग्रेजों की मदद करने का वादा किया था।‘ इस पत्र को क्षमा कहना भी हास्यास्पद है। यह सीधा सौदा था, न कि माफीनामा।
5 अक्टूबर, 1917 को अंग्रेजों को लिखे दयापत्र में सावरकर ने कहा था, ‘सभी राजकैदियों को रिहा किया जाना चाहिए। भले ही मुझे इससे बाहर रखा जाए।’ ‘राज बंदियों की रिहाई के लिए सावरकर की ओर से दया पत्र’ लिखा गया। (जिसमें उन्हें स्वयं को क्षमा करने की आवश्यकता नहीं है)’ की टिप्पणी भी है। इस अर्जी को माफी का पत्र कहने का साहस कोई मंदबुद्धि ही कर सकता है।
सावरकर ने 4 अगस्त, 1918 को लगभग इसी आशय का दयापत्र भेजा था जिसमें ‘यदि सरकार को मेरी वजह से अन्य कैदियों को रिहा करना मुश्किल लगता हो, तो मैं स्वयं ही बहुत खुशी से अपना नाम हटाने की सहमति देता हूं।’ ऐसा स्पष्टता से लिखा था जो वीर सावरकर के उदारमना व्यक्तित्व का परिचायक है।
1920 में सावरकर ने तीन दया पत्र भेजे थे। इसमें सुझाव दिया था ‘जिन भारतीय क्रांतिकारियों को विदेश में निर्वासित होना पड़ा था, उन्हें भी माफी के दायरे में सम्मिलित किया जाना चाहिए।‘ वे इसमें से भी अपना नाम हटाने को तैयार थे। सावरकर का यह वक्तव्य उनका ध्यान मात्र जेलों में बंद देशभक्तों के प्रति ही नहीं अपितु विदेशों में निर्वासित देशभक्तों के प्रति भी कितना सजग व संवेदनशील था इसी का परिचायक है।
सावरकर के इन सभी दया पत्रों पर नजर डालें, तो स्पष्ट हो जाता है कि इनमें से कोई भी पत्र माफी की परिभाषा में फिट बैठता ही नहीं है। इसके विपरीत, इन सभी दयापत्रों की भाषा शर्तों से भरी पड़ी हैं। कहीं भी पूर्व क्रांतिकारी कार्य पर पछतावा नहीं, न क्रांतिकार्य का और न किसी क्रांतिकारी का राज खोला है। अराष्ट्रीय तत्वों द्वारा बार-बार माफीवीर कहे जाने वाले सावरकर लगभग प्रत्येक दयापत्र में ‘क्षमा याचना से स्वयं का नाम स्वयं ही हटाने को तैयार दिखते हैं।‘ फिर भी वे क्षमाप्रार्थी, माफीवीर? इन तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की विषाक्त सोच को क्या कहें?
एक बात और, इन सभी दयापत्रों की आड़ में सावरकर भारतीय क्रांतिकारियों के नेता के रूप में सरकार से पत्राचार कर रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता हैं। इसमें खुद को भी अंडमान से बाहर निकालने की योजना थी। इसका कारण स्पष्ट था, अंडमान में पड़े रहने के कारण राजनीतिक कार्य अपने-आप रुक गया था। अंग्रेजों की कुछ शर्तों को अस्थाई रूप से स्वीकार कर बाहर आने से देश के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं अन्य क्षेत्रों में खुलकर काम किया जा सकता था, तथा राजनीतिक कार्य भी गुप्त रूप से किया जा सकता था।
विरोधियों का आरोप है कि सावरकर ने ब्रिटिश सरकार के साथ अपने पत्राचार में सम्मानजनक और विनम्र भाषा का प्रयोग क्यों किया?
जिनकी भयानक एड़ी के नीचे हमारा राष्ट्र कुचला हुआ था, जिनके जेल में आप पड़े हो, उनसे ही अपना काम करवाना चाहते हो, तो आपको भाषा तो सम्मानजनक और विनम्र ही रखनी होगी। उसके द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को कम से कम ऊपरी तौर पर स्वीकारना चाहिए। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति ऐसा ही करेगा।
यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि, सावरकर का उक्त लेखन जेलों से था, न कि नासिक, पुणे, लंदन जैसे मुक्त व स्वतंत्र वातावरण से। बिना दबाव के; मुक्त वातावरण में पितामह दादाभाई नौरोजी स्वयं को ‘अंग्रेजों की वफादार संतान’ कहते थे और राष्ट्रपिता गांधी जी स्वयं को ‘ब्रिटिश साम्राज्य का हितचिंतक’ कहते थे। अब खुद ही तुलना कर सोचें कि सावरकर के उक्त वक्तव्य का मूल्य कितना होगा?
जैसे दयापत्र मैंने भेजे, आप भी भेजो, यहां से बाहर जाकर फिर से देशसेवा में रत हो जाओ— यह सन्देश सावरकर दूसरे राजकैदियों को भी देते थे। कुछ लोगों को लगता है कि वीर सावरकर एक कट्टर देशभक्त थे, लेकिन अंडमान में हो रहे उत्पीड़न से तंग आकर उन्होंने शायद माफीपत्र भेजे हों। क्या वास्तव में अंडमान में हो रहे अत्याचार से सावरकर का मनोबल टूटा था?
पचास वर्ष की उम्रकैद का मतलब 27 वर्ष के युवा सावरकर को जब रिहा किया जाएगा, तब उनकी आयु लगभग 77-78 वर्ष की होगी। यह मात्र सोच कर ही अन्य कोई हिम्मत हार जाता; लेकिन सावरकर ने इसे साहस के साथ स्वीकार किया, साहस के साथ सहन किया। ‘कभी-कभी मन निराशा से भर जाता है, मन में आत्महत्या के विचार आते हैं।‘ ऐसी स्वीकारोक्ति सावरकर अपनी आत्मकथा में देते हैं। लेकिन उन्होंने इसे कभी अंग्रेजों के सामने व्यक्त नहीं किया। विवेक से इन पर काबू पाया।
अंग्रेज अधिकारियों की रिपोर्ट बताती है कि, ‘सावरकर अंडमान में हो रहे उत्पीड़न से विचलित नहीं हुए थे।’ 1919 में चीफ कमिश्नर मॉरिसन ने सावरकर बंधुओं के बारे में लिखा था, ‘ वे बाबाराव को नहीं जानते और यह नहीं कह सकते कि वें सजा से टूट चुके हैं या घिस गए हैं।‘ लेकिन विनायक सावरकर टूटे या थके हुए बिल्कुल नहीं दिखते।’
सावरकर की छवि अंडमान के अन्य कैदियों के लिए एक कट्टर देशभक्त नायक की थी। इसका पुख्ता प्रमाण बंगाली क्रांतिकारी उल्लासकर दत्त की आत्मकथा में वर्णित एक घटना में मिलता है, जिन्हें अंडमान में अपनी सजा काटने के दौरान पागलपन का दौरा पड़ा था। उल्लासकर दत्त लिखते हैं, ‘उस दिन मुझे 107 डिग्री बुखार था। फिर भी मैं बंधा और जंजीरों में जकड़ा था। मुझे ग्लानि आने लगी, मुझे यह महसूस होने लगा, जैसे बंदीपाल बारी मुझसे कह रहा है, ‘आओ मेरे साथ द्वंद्वयुद्ध खेलो! अगर तुम्हारे पक्ष में कोई प्रतिनिधि है, तो उसे बुलाओ।’ मुझे तुरंत विनायक सावरकर की याद आयी। मैंने तुरंत उन्हें बुलाया। बारी ने सावरकर की ओर दस्ताना फेंका। बारी और सावरकर में द्वंद्व युद्ध शुरू हो गया। सावरकर ने एक ही झटके में बारी को चित कर दिया।’
कल्पना करो! मानसिक तनाव की चरम सीमा पर, जब भ्रम व मतिभ्रम होता है। जो चेतन मन में नहीं बल्कि अवचेतन या अचेतन मन में होता है, उस अवस्था में भी उल्लासकर दत्त जैसे क्रांतिकारी के अवचेतन मन में अकेले विनायक ही थे जो बारी का मुकाबला कर सकते थे। इस घटना के प्रकाश में क्या आप ये कह सकते हैं? सावरकर थक चुके थे और टूट चुके थे, इसलिए उन्होंने क्षमायाचना के पत्र लिखे।’ नहीं! दया पत्र विशुद्ध रूप से कूटनीति थी।
क्या ब्रिटिश सरकार ने सावरकर की माफी पर विश्वास किया?
वर्ष 1913 में ब्रिटिश गृहमंत्री सर रेजिनाल्ड क्रेकॉर्ड ने सावरकर की दया याचिका के संदर्भ में लिखा है, ‘मेरे हाथ में सावरकर की दया याचिका है। यहां उन्हें कुछ आजादी देना असंभव है।’ उन्होंने आगे लिखा, ‘सावरकर इतने महत्वपूर्ण नेता हैं कि हिंदी अराजकतावादियों का यूरोपीय समूह उनकी रिहाई की साजिश रचेगा और इसे तेजी से अंजाम दिया जाएगा।’
लगभग दस वर्ष बाद 1923 में, एक गृह लेखा अधिकारी, जे.ए. शीलीर्ड, जब सावरकर से मिले, तो उन्होंने सरकार से टिप्पणी की कि, ‘सावरकर पर भरोसा करना और यह आशा करना कि वे सरकार के साथ सहयोग करेंगे, भ्रम होगा। सशस्त्र क्रांतिकारी कुछ भी नया नहीं सीखते और कभी नहीं बदलते।’ एक महीने बाद, सावरकर से मिलने के बाद, गृहमंत्री मौरिस हेवर्ड ने बॉम्बे के गवर्नर को यह कहते हुए लिखा, ‘मुझे यह स्वीकार करना होगा कि मुझे सावरकर पर भरोसा नहीं है। सावरकर को रिहा करना सही नहीं होगा।’ उसके बाद मुंबई के गवर्नर जॉर्ज लॉयड भी सावरकर से मिलने गए। उन्हें भी सावरकर पर भरोसा नहीं था। लेकिन उन्हें लगा कि एक अच्छी नीति के तौर पर सावरकर को सख्त शर्तों पर रिहा किया जाना चाहिए।
सावरकर की शाही क्षमा के बारे में, टिप्पणी करते हुए सर प्रभाशंकर पाटनी लिखते हैं, ‘एकबार शैतानों, दुरात्माओं पर भी दया कर सकते हैं, लेकिन सावरकर भाइयों पर नहीं।’ इससे पता चलता है कि अंग्रेजों की नीति सावरकर के प्रति कितनी क्रूर थी। और उनके मन में सावरकर बंधुओं का खौफ कितना गहरा था ।
यदि बारीकी से देखें तो 1913 से 1923 के बीच, लगभग 11 वर्षो के कारावास के दौरान भी, ‘सावरकर पहले जितने प्रखर क्रांतिकारी थे, उतने ही प्रखर क्रांतिकारी आज भी हैं।’ यह प्रतिक्रिया तत्कालीन दो – दो गृह मंत्रियों ने दी है। इतना ही नही, 1920 में ब्रिटिशों के भारत सरकार के सचिव एच. मैक्फर्सन सावरकर के संदर्भ में लिखते हैं, ‘विनायक ही असली खतरनाक व्यक्ति है, और उसे रिहा करने से जुड़ा ऐतराज उसके अपराध में ना होकर, उसके स्वभाव से जुड़ा है।’ मैक्फर्सन की टिप्पणी उसके सावरकर के सटीक आकलन को ही दर्शाती हैं। इन सबका अर्थ यह हुआ कि ब्रिटिश सरकार सावरकर के दयापत्रों को माफीनामों के तौर पर नहीं देख रहीं थी, बल्कि कूटनीति के तहत मान रहीं थी। इसपर कोई कुछ भी अनर्गल प्रलाप करे, लेकिन तथ्य पूर्णत: स्पष्ट हैं।
अंग्रेज सावरकर पर भरोसा करने को तैयार नहीं थे – शचींद्रनाथ सान्याल का यह देखना उचित होगा कि तत्कालीन देशभक्तों ने सावरकर के दया पत्रों के बारे में क्या लिखा। ‘सावरकर को सरकार को दयापत्र भेजते रहना चाहिए।’ ऐसा मंतव्य गांधी द्वारा सावरकर के छोटे भाई नारायणराव सावरकर को भेजे गए एक पत्र में व्यक्त किया गया था। और यंग इंडिया में उसे प्रकट रूप से दोहराया था।
भगतसिंह के गुरु और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के संस्थापक सदस्य, शचींद्रनाथ को अगस्त 1916 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। अंग्रेजों को दयापत्र सौंपने के बाद, मात्र साढ़े तीन वर्ष के कारावास के बाद फरवरी 1920 में उन्हें रिहा कर दिया गया। सावरकर जैसी कोई भी पाबंदी उन पर नहीं लगाई गई। वे अंडमान में सावरकर के साथ थे। वह सावरकर की मुक्ति के लिए काम कर रहे थे। इस संदर्भ में वे अपनी आत्मकथा बंदी जीवन में लिखते हैं, ‘जिस प्रकार का दया पत्र मैंने दिया था, उसी प्रकार का विनायक सावरकर ने दिया था। मुझे रिहा किया गया लेकिन उन्हें क्यों नहीं?’ जब मैंने वी.सी. चटर्जी से यह सवाल पूछा, तो उन्होंने मुझसे कहा, ‘बात असल में यह है कि मरहठों के ऊपर अंग्रेजों का बिल्कुल विश्वास नहीं है। बंगालियों के ऊपर अंग्रेजी सरकार भरोसा कर रही है कि बंगाली जैसा कहेंगे वैसा करेंगे, लेकिन मरहठे ऐसा कभी नहीं कर सकते।’
‘एकबार शैतानों, दुरात्माओं पर भी दया कर सकते हैं, लेकिन सावरकर भाइयों पर नहीं।’ इससे पता चलता है कि अंग्रेजों की नीति सावरकर के प्रति कितनी क्रूर थी। और उनके मन में सावरकर बंधुओं का खौफ कितना गहरा था ।
-प्रभाशंकर पाटनी
सान्याल आगे लिखते हैं कि यह सुनकर मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। क्योंकि अंग्रेजों ने कूटनीति के मामले में मराठों को बंगालियों से ऊंचा दर्जा दिया था। दो बार आजीवन कारावास की सजा पाए सान्याल जैसे श्रेष्ठ क्रांतिकारी के बयान पर और अधिक स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता नहीं है।
दयापत्रों के अलावा सावरकर को मुक्त करने के अन्य प्रयास
अंग्रेजों का कहना है कि जर्मन युद्धपोत एमडेन सावरकर को छुड़ाने के इरादे से अंडमान के करीब आ गया था। 1920 में गांधीजी और 1921 में इलाहाबाद के नेता और कुछ अन्य अखबारों और नेताओं ने सावरकर की रिहाई की मांग की। शचीन्द्रनाथ सान्याल और नारायणराव सावरकर ने कांग्रेस अधिवेशन में सावरकर की रिहाई का प्रस्ताव पारित किया था। नारायणराव ने सावरकर बंधुओं की रिहाई के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाया था। उन्होंने अंग्रेजों को लगभग 75,000 हस्ताक्षरों का एक बयान प्रस्तुत किया था। यह सावरकर को अंडमान से भारत लाने का प्रयास था। रत्नागिरी की स्थानबद्धता से बाहर निकालने की कोशिश और अलग थी। हम इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि ‘अंडमान से सावरकर को मुक्त करो’ कहने वाले गांधीजी ‘रत्नागिरी से सावरकर को मुक्त करने’ की मांग पर बात चुप्पी साधे बैठे थे। क्योंकि रत्नागिरि में सावरकर से मुलाकात के बाद कूटनीति में निपुण गांधीजी ने बराबर भांप लिया था कि ‘लंदन में जिस उग्र क्रांतिकारी युवा सावरकर से वे मिले थे, वह उग्र क्रांतिकारी सावरकर अंडमान के बाद भी ज्यों का त्यों है।’
सेलुलर जेलों को बंद करने पर सावरकर की रिहाई
1920 के आसपास, सावरकर बंधुओं को छोड़कर लगभग सभी राजबंदियों को अंडमान से रिहा कर दिया गया था। अंडमान में केवल सावरकर भाई और कुछ क्रांतिकारी रह गए थे। 1919 से 1921 के बीच अंग्रेज सरकार सेलुलर जेलों को बंद करने की सोच रही थी। उसकी कार्यवाही भी शुरू हो गई थी। मूलत: भारतीय जेल बंद करने के विचार से सावरकर बंधुओं को अंडमान से मुख्यभूमि भारत लाया गया था। उसके बाद भी उन्हें करीब तीन वर्ष तक अलीपुर, यरवदा, रत्नागिरी जैसी जेलों में रखा गया।
14 वर्ष की उम्रकैद के बाद 13 वर्ष की नजरकैद
1924 में जेल से रिहा होने के बाद, वीर सावरकर को उनके बड़े भाई बाबाराव सावरकर की तरह, शचींद्रनाथ या बरिंद्र घोष की तरह पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दी गई थी। गांधी और नेहरू की तरह राजनीति करने पर पाबंदी थी। राजनीति पर टिप्पणी करने को भी सावरकर को प्रतिबंधित कर दिया गया था। सावरकर को तेरह वर्षों तक रत्नागिरी जैसे दूरस्थ शहर में स्थानबद्ध करके रखा था। इन तेरह वर्षों के दौरान कई बार, अंग्रेजों ने सावरकर के घर की तलाशी ली, सावरकर से स्पष्टीकरण मांगा, उन्हें फिर से अंडमान भेजने की धमकी दी, अस्थायी रूप से कैद किया। ये तथ्य इस बात परिचायक हैं कि ब्रिटिश सरकार सावरकर के प्रति कितनी सतर्क और सचेत थी।
क्या दूसरे क्रांतिकारियों ने भी ऐसे दया पत्र भेजे थे?
हाँ, शचीन्द्रनाथ सान्याल, श्री अरविन्द घोष के भाई बरिन्द्र घोष, भाई परमानंद, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खाँ वारसी आदि अनेक क्रांतिकारियों ने ऐसे दया पत्रों का प्रयोग कर मुक्ति पाने का प्रयास किया है। ऐसा प्रयास क्रांतिकारियों की अंग्रेजों के प्रति वफादारी नहीं दिखाता, बल्कि कूटनीति दिखाता है। ‘जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ कुछ नहीं किया, अंग्रेजों की मदद करते रहे, अंग्रेज उन्हें सजा क्यों देंगे? और अगर सजा ही नहीं तो दया भेजने की नौबत उन पर आएगी?’ इस मुद्दे पर विचार करें तो दयापत्र भेजने वाले देशभक्त हैं। यह समझने में देर नहीं लगेगी।
यहां कुछ लोग कहेंगे कि कई ऐसे थे जिन्हें सजा मिली थी। परन्तु उन्होंने इसकी शिकायत नहीं की, न ही उन्होंने दया की याचना की। हां, भारत में जन्मे ऐसे वीर भी हैं। उनकी शुद्ध और असीम देशभक्ति को कोई नकार नहीं सकता और न ही नकारना चाहिए। लेकिन जब अंतिम लड़ाई जीतनी हो, तो यह सोचना होगा कि क्या नेता ऐसा होना चाहिए जो फांसी पर जाने का भावनात्मक आनंद लेता हो या एक कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति होना चाहिए, जो कृष्णनीति और शिवनीति का पालन कर मातृभूमि को अंतिम जीत तक लेकर जानेवाला हो?
क्या दया पत्रों के अनुसार सावरकर का व्यवहार था?
सीधा – सा जवाब है ‘नहीं’। जब वे स्थानबद्ध थे, तब उनके पुराने सहयोगी सेनापति बापट, वी.वी.एस. अय्यर, भाई परमानंद सावरकर से चर्चा करने रत्नागिरी पहुंचे थे। सावरकर से मिलने के बाद अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले पुराने क्रांतिकारी फिर क्रांतिकारी कार्यों की ओर मुड़ गए। भगत सिंह, राजगुरु जैसे दिग्गज क्रांतिकारी सावरकर से मुलाकात और परामर्श करने रत्नागिरि पहुंचे थे। रत्नागिरि में वामन चव्हाण, पवार जैसे युवा सशस्त्र क्रांतिकारियों का पैदा होना, सावरकर की ही देन थी। वासुदेव बलवंत गोगटे जैसे युवा सावरकर से मिले और क्रांतिकारी कार्यों में शामिल हो गए। गोगटे ने हाटसन को गोली मार दी थी। हाटसन बाल बाल बच गया था। वासुदेव बलवंत गोगटे और वामन चव्हाण ने उल्लेख किया है कि उन्हें सावरकर से सशस्त्र क्रांति की प्रेरणा मिली थी। इन गतिविधियों से पता चलता है कि सावरकर का व्यवहार तथाकथित क्षमा याचना के अनुरूप नहीं था।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अपनाई गई ‘सैन्यीकरण की नीति अभिनव भारत का ही एक कार्यक्रम था, जिसे हिंदू महासभा के मंच से चलाया गया था।’ यह बात सावरकर जी ने स्वयं कही थी। यह एक ज्ञात इतिहास है कि आजाद हिंद सेना का उदय इस सैन्यीकरण से हुआ था। इन सभी के मुद्देनजर मानना पड़ेगा कि सावरकर की तथाकथित क्षमायाचना को, जिसे अंग्रेज झूठा समझते थे, उनका अनुमान सही था।
राष्ट्रविरोधी तत्वों के निशाना सावरकर ही क्यों?
नब्बे के दशक में जब हिंदुत्व की लहर छाने लगी तब राष्ट्रविरोधी तत्व सावरकर पर हमला बोलने लगे। उन्हें पता हैं, अटल बिहारी से लेकर मोदी, शाह, आदित्यनाथ तक; भाजपा अथवा हिंदुत्व की असली ताकत सावरकर के विचारों में है। सावरकर ही हैं जो साहित्य जगत से लेकर सामाजिक क्रांति, कोरी बौद्धिकता, सशस्त्र क्रांति तक उनके कुटिल क्रियाकलापों में आड़े आने वाले हैं। राष्ट्रवादी कहलाने के बावजूद कोई भी तथाकथित प्रगतिशील सावरकर की प्रगतिशीलता के सामने टिक नहीं पाता। ‘साम्यवादियों की बौद्धिकता हिंदुओं की हर जगह भर्त्सना करती है लेकिन मुस्लिम, ईसाई मतांधता के सामने झुक जाती है।’ यह हमारा नहीं, हमीद दलवई जैसे मुस्लिम सत्यशोधक का मंतव्य है। लेकिन सावरकर ही ऐसे बुद्धिनिष्ठ विचारक हैं, जो हिंदुओं के साथ साथ इस्लाम, ईसाई सभी धर्ममतों की खाल खींचते हैं। इतनी विशुद्ध बौद्धिकता राष्ट्रद्रोहियों की तथाकथित बौद्धिकता की राजनीतिक जमीन खिसका सकती है, यह टुकड़े-टुकड़े गैंग को पता है।
सामाजिक क्रांति की बात करें तो सावरकर ही ऐसे हैं जिन्होंने जातिव्यवस्था को पूर्णरूपेण नकारा था। सावरकर के सामाजिक क्रांति की भूरि-भूरि प्रशंसा डिप्रेस्ड क्लास के महर्षि वि.रा. शिंदे व डॉ. अम्बेडकर ने भी की है। ‘स्वाधीनता संग्राम में हिंदूवादी संघटनों की भूमिका नहीं थी- यह कहने वालों को करारा जवाब देने वाले सशस्त्र क्रांतिकारी वीर सावरकर ही हैं। इतना ही नहीं, भारत में साम्यवाद की नींव रखने वाले मानवेंद्रनाथ राय, कामरेड डांगे एवं नम्बूदिरीपाद सरीखे शीर्षस्थ वामपंथी नेता भी सशस्त्र क्रांतिकारी सावरकर के गुरुत्व की गरिमा मानते हैं। याने यहां भी पाला सावरकर से ही पड़ता है। भारतीय इतिहास को तोड़मरोड़ कर पेश करने जाएं तब भी हिंदुओं का विश्वविजयी इतिहास लिखने वाले इतिहासकार सावरकर उनके अराष्ट्रीय मंसूबों पर पानी फेर देते हैं। बात साफ है, हर मुकाम पर उनका पाला वीर सावरकर से पड़ता हैं। और तर्ककठोर, बुद्धिनिष्ठ, प्रतिभासंपन्न सावरकर उन्हें परास्त कर देते हैं।
इसीलिए सारे राष्ट्रविरोधी, हिंदुत्वद्वेषी तत्व वीर सावरकर को अपना निशाना बनाते हैं। यह टुकड़े-टुकड़े गैंग सावरकर के विचारों पर, उनके हिंदुत्व पर नहीं, बल्कि ऐसी घटनाओं को निशाना बनातीं है, जो कानूनी कार्यवाही से या प्रशासकीय चीजों से संबंधित हो। आजीवन कारावास से छूटते वक्त दी जाने वाली मर्सी पिटीशन एक कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा है।
जो हिंदुत्व विरोधी, टुकड़े-टुकड़े गैंगवाले यह आस लगाए बैठे हैं कि सावरकर के बदनामी से सावरकर पराभूत होगा, हिंदुत्व परास्त होगा, उन्हें न सावरकर का पता है न हिंदुत्व की पहचान है। लगभग सौ वर्ष पहले 27 वर्ष के युवा सावरकर को विस्मृति में गाड़ने हेतु सर्वशक्तिमान अंग्रेजों ने पचास वर्षों तक बंदी बनाकर अंडमान में भेज दिया। लेकिन हुआ बराबर उलटा; कारावास से सावरकर विस्मृत होने के बजाय सावरकर के वास्तव्य से अंडमान का सेल्युलर जेल विश्वविख्यात हुआ। वीर सावरकर अकेले पड़ें, इसीलिए उन्हें राजनीति से दूर कर, दुर्गम रत्नागिरी में स्थानबद्ध कर दिया। वहां भी उल्टा ही हुआ।
सावरकर के निवास से रत्नागिरी पूरे राष्ट्र को ज्ञात हुई। उस दुर्गम, निर्जन रत्नागिरी में सावरकर से मिलने गांधी, सरदार भगत सिंह, युसूफ मेहर अली, वी.वी.एस. अय्यर, महर्षि वि.रा. शिंदे, डॉ. हेडगेवार जैसे कद्दावर राष्ट्रपुरुष पहुंच गए। सावरकर को विस्मृत करना तो दूर, रत्नागिरी का नाम इतिहास में अमर हो गया। सावरकर को बदनाम करने का षड़यंत्र जिस नेहरू सरकार ने किया था, आज वह युवाओं की दृष्टि में गलत साबित हो गई व सावरकर महान पथदर्शक बन गए। दुर्भाग्य से इतिहास भूलकर नेहरू के पोते पुराना इतिहास दोहरा रहे हैं। उनका अंजाम आने वाला कल ही नहीं, निकट वर्तमान ही देखेगा।
(व्यवसाय से मनोचिकित्सक लेखक दशग्रंथी
सावरकर सम्मान पत्र से सम्मानित हैं, जो पीएचडी समतुल्य है।)
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