तुलसी को ‘राजाराम’ प्रिय नहीं हैं। वे अपने काव्य में लगातार राम के ‘लोकनायकत्व’ को निखारते हैं। वे राम को राजा की जगह ‘लोकनायक’ बनाते हैं। राम का लोकतंत्रीकरण करते हैं। इसीलिए राम के राज्याभिषेक पर तुलसी जनस्वीकृति चाहते हैं। इस जनस्वीकृति के लिए वे राम को पूरे देश में घुमाते हैं। समाज के सभी वर्गों से संपर्क कराते हैं।
तुलसी का साहित्य, लोकतंत्र, लोकमंगल और आदर्श राज्य व्यवस्था की अभिव्यक्ति है। उनका रामचरितमानस लोकतांत्रिक मूल्यों की आधारशिला है। उन्होंने ‘रामराज्य’ नाम की जिस वैचारिकी का सूत्रपात किया, दुनिया के लगभग हर लोकतंत्र का अंतिम लक्ष्य वही है। लोकतंत्र के सारे सूत्र इसी रामराज्य से निकलते हैं। तुलसी का रामराज्य समतामूलक है। रामचरितमानस में राज्य की अनीति के प्रति क्रोध है। राजतंत्र के उत्कर्ष का अस्वीकार है। जनतंत्र की नई अवधारणाएं हैं और लोकतंत्र के चरम आदर्शों की कल्पना है। वे लोकमंगल के ध्वजवाहक हैं। जन-मन के कवि हैं। तुलसी ने वाल्मीकि और भवभूति के राम को पुर्नस्थापित नहीं किया। उनका राम सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के भारत की विषमताओं को तोड़ता एक लोकतांत्रिक नायक है।
तुलसी को ‘राजाराम’ प्रिय नहीं हैं। वे अपने काव्य में लगातार राम के ‘लोकनायकत्व’ को निखारते हैं। वे राम को राजा की जगह ‘लोकनायक’ बनाते हैं। राम का लोकतंत्रीकरण करते हैं। इसीलिए राम के राज्याभिषेक पर तुलसी जनस्वीकृति चाहते हैं। इस जनस्वीकृति के लिए वे राम को पूरे देश में घुमाते हैं। समाज के सभी वर्गों से संपर्क कराते हैं। चौदह वर्ष राम सपत्नीक जनता के बीच रहते हैं। घास पर सोते हैं। पैदल चलते हैं। झोंपड़ी में रहते हैं।
निषाद को मित्र बनाते हैं। वनवासियों को गले लगाते हैं। कंदमूल खाते हैं। इस अभियान में जनसामान्य, ऋषि-मुनियों और बौद्धिक वर्ग से उनके नेतृत्व को स्वीकृति मिलती है। तुलसी शासक और जनता के आपसी रिश्ते को परिभाषित करते हैं। राज्य और जनता के बीच सम्पर्क सेतु राम हैं। इसी आधार पर लोकतांत्रिक समाज बनता है।
तुलसी अपने लोकतंत्र में राम को व्यक्ति नहीं, आदर्श और मूल्य के तौर पर गढ़ते हैं। वे वनवासी राम के भक्त हैं। वे करुणार्द्र हैं, दयालु प्रजा के लिए सहायता मांगते, सहायता देते, सबको अपनाते हैं। राज सिंहासन पर बैठे राम की, तुलसी इस कदर उपेक्षा करते हैं, कि पूरे राज्याभिषेक को अपनी कथा में जल्दी से निबटा देते हैं।
रामकथा के अंत में तुलसी राम को राजसिंहासन पर बैठाकर महाकाव्य का सुखांत नहीं करते। वे राम को लोक के बीच ले जाते हैं। अयोध्या की अमराई में भरत अपना गमछा बिछाकर उन्हें जमीन पर बिठाते हैं। राम, राज्य के आडम्बर से थक चुके हैं। राजा बनते ही राम थके हुए लगते हैं। उन्हें सिंहासन से दूर कहीं जनता के बीच जाना है। तुलसी राम को सिंहासन से उतार अयोध्या के उपवन में ले जाते हैं। राम यहीं बैठ ऋषि, मुनियों से संवाद करते हैं। यही तुलसी का ‘लोकतान्त्रिक दर्शन’ है। राम के सारे काम जनहित में हैं- कृपासिंधु जनहित तनु धरहीं। तुलसी के काव्य में किसान जीवन प्रभावी है। उसमें अन्न, जल, कांस, फसल, धान, खेत, बादल, ओले, वर्षा, द्रव आदि सब हैं।
अत्याचार के विरुद्ध लोकशक्ति
इस लोकतंत्र में प्रजा दैहिक, दैविक, भौतिक ताप से मुक्त है : ‘दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥’ रावण कुलीन था। परशुराम ब्राह्मण थे। बाली शक्तिशाली अत्याचारी था। राम की लोकपक्षधरता इन सबसे टक्कर लेती है। राम इन सबका नाश करते हैं। जनबल से, लोकशक्ति से। सेना के जरिए नहीं। राम की शक्ति जनता की शक्ति है। लोकशक्ति है। इसी के साथ वे अपने वन अभियान पर निकलते हैं। राम का वन गमन भी उनका लोकतंत्रीकरण है। राम राजा थे। चुने हुए जनप्रतिनिधि नहीं थे। तुलसी की सोच देखिए। देश की गरीबी, लाचारी और लोकमन को जानने के लिए वे उन्हें वन ले गए। जिस देश की अधिकांश जनता जंगलों, झोंपड़ियों में रहती है, उनका राजा राजप्रासाद या सुसज्जित महलों में रहकर उनकी मुश्किलों को नहीं समझ सकता।
राम घर से निकलते ही वनवासी का ‘वल्कल वस्त्र’ पहनते हैं। उन्हें इतनी मुश्किल झेलने की जरूरत क्या थी? राजा दशरथ उनके लिए दंडकारण्य में एक महलनुमा निवास तो बनवा ही सकते थे। वे चाहते तो अपनी ससुराल जनकपुरी, रिश्तेदारों और पड़ोसियों की सेना लेकर लंका पर आसानी से चढ़ाई कर सकते थे। पर उन्होंने ऐसा न कर वनवासियों और गिरिजनों को संगठित किया। लोक स्वीकृति के लिए लोकशक्ति को संगठित किया।
लोकतंत्र का बीजमंत्र
वनवास को स्वीकारने के बाद राम, लक्ष्मण को अयोध्या में ही रोकना चाहते हैं। उसके लिए वे जो कारण बताते हैं, वही हमारे ‘लोकतंत्र का बीजमंत्र’ है। राम लक्ष्मण से कहते हैं, ‘पिता मोह में हैं। बूढ़े भी हो चले हैं। ऐसे में वे प्रजा को सुखी न रख पाए तो उन्हें नरक मिलेगा। इसलिए हे लक्ष्मण! तुम्हें अयोध्या में रुक कर प्रजा की चिंता करनी चाहिए।’ ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।।’ यहां दुखी पिता को संबोधित करते पुत्र राम नहीं, तुलसी का नीति पक्ष बोल रहा है। जिसके राज्य में प्रजा सुखी नहीं है, वह राजा नरक में जाएगा। तुलसी पूरे होशोहवास में कर्तव्य से च्युत राजाओं के पतन की भविष्यवाणी करते हैं। देश का मुखिया, शासक कैसा हो? इस पर विचार करते हुए तुलसी अपनी समकालीन लुटेरी शासन व्यवस्था पर कड़ा प्रहार करते हैं।
चित्रकूट से विदा होते हुए भरत को राम का सबसे बड़ा उपदेश है। जो तुलसी के लोकतंत्र का प्राण है। राम, राजा और प्रजा के संबंधों पर कहते हैं, ‘मुखिया मुख सो चाहिए खान पान कहुं एक। पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।।’ राजा को मुख जैसा होना चाहिए जो खाने में अकेला हो। पर हर अंग को उससे पोषण एक जैसा मिलता रहे। यानी शासन पक्षपाती, अन्यायी न हो। इस लिहाज से राम हमारे पहले ‘लोकतंत्रीय पुरुषोत्तम’ हैं। तुलसी राम के जरिए एक ऐसा लोकतंत्र रचते हैं जो नीति का शिलालेख है। जिसे अपना पाना आज की राजनीति के लिए भी आसान नहीं है। पूरे रामचरितमानस में जहां राजा के धर्म की बात आती है, तुलसी बेहद कठोर हो जाते हैं।
राजस्व और कर का प्रबंधन कैसा हो? यह तुलसी के लोकतंत्र का वह मूल्य है, जिस पर आज की अर्थव्यवस्था चलती है। ‘मणि-माणिक महंगे किए, सहजे तृण, जल, नाज। तुलसी सोइ जानिए राम गरीब नवाजे’ मणि, माणिक महंगा और तृण, जल, अनाज सस्ता। यही तो लोकतंत्र में ‘कर प्रबंधन’ मूल है।
तुलसी ने दोहावली में राजनीति पर कोई बीस दोहे लिखे हैं। जिनमें अधिकांश कर प्रणाली पर हैं। कुराज से समाज को उबारने की कल्पना ही ‘रामराज्य’ है। जिसमें साधारण प्रजा के दुख-सुख और सम्मान का पूरा ध्यान रखा गया है। जिसमें राजा को विवेकी, मंत्री को मोह रहित और ताकतवर लोगों को संयमी होने की जरूरत बताई गयी है।
तुलसी के लोकतंत्र का मूल था-
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥’
‘नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा व भीरा॥’‘
लोकतंत्रात्मक शासन की गतिविधि जनसमूह की इच्छा का अनुसरण करने वाली होनी चाहिए। महाराज दशरथ को भी राम को युवराज बनाने के लिए जनस्वीकृति लेनी पड़ी थी। उस वक्त भी मंत्री वही होते थे जो जनपदों के विश्वासपात्र होते थे। राजा की राजसभा में सभी जातियों के लोग सभासद होते थे। तुलसी ने राम के जरिए भरत को लोकतंत्र का एक अनोखा मंत्र दिया – ‘राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहं मनोरथ गोई॥’ राजधर्म का सर्वस्व इतना ही है, जैसे मन में मनोरथ छिपा रहता है।
जनमत नियंत्रित लोकतंत्र
तुलसी का रामराज्य एक सबल और जनमत से नियंत्रित लोकतंत्र है। उसमें मनुष्य तो मनुष्य, पशु-पक्षी और वनस्पति भी अनुशासन में है। वृक्ष सदा फलते-फूलते हैं। हाथी, सिंह वैर-भाव भूलकर साथ रहते हैं। तालाब कमल से भरे रहते हैं। सूर्य उतना ही तपता है, जितनी जरूरत है। प्रकृति और मनुष्य एक-दूसरे के सहयोगी है।
‘फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहिं एक संग गज पंचानन॥
खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई॥’
रामराज्य का राजा भी गुणी है। वह लोक और वेद की नीति पर चलता है। धर्मशील, प्रजापालक, सज्जन और उदार है। राजा के गुणों को गिनाने में भी तुलसी हमेशा प्रजा के हित की बात करते हैं। उनकी सबसे ज्यादा चिंता प्रजा को लेकर है। राजा को प्रजा प्राणों से प्रिय है। फिर ऐसे राज्य में विषमता की कोई जगह कैसे हो सकती है। गांधी भारत में नए उदित होते जिस लोकतंत्र में रामराज्य की बात करते हैं, उसका मूलाधार भी तुलसी का रामराज्य ही है।
उनके लोकतंत्र में भाईचारा, प्रकृति, पर्यावरण की सुरक्षा सद्भाव है, जनजातियों, वनवासियों के साथ सद्भाव। पक्षियों के प्रति संवेदनशीलता, वन्यजीवों के लिए दोस्ताना व्यवहार है। किसी को किसी से बैर नहीं है। किसी को शोक नहीं है। रोग दूर हो गए हैं। कम उम्र में मृत्यु नहीं होती। सब सुन्दर और निरोगी हैं। कोई दुखी, दरिद्र, दीन नहीं है। कोई मूर्ख या लक्षणहीन भी नहीं है।
‘अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥’
तुलसी की रामकथा के तीन वाचक और तीन श्रोता हैं। पहले शिव, फिर याज्ञवल्क्य और तब काकभुशुंडि। श्रोता भी तीन हैं पार्वती, भारद्वाज और गरुड़। काकभुशुंडि कौआ जाति के हैं। पक्षियों में निकृष्ट। गरुड़ पक्षियों में श्रेष्ठ। काकभुशुंडि के पांडित्य के कारण ही गरुड़ उनके शिष्य बनते हैं। यानी जाति के चक्र को तोड़कर कोई भी व्यक्ति पंडित हो सकता है। अगर वह ज्ञानी गुणी है, तो वह पूज्य है।
तुलसी का लोकतंत्र समतामूलक है। ‘बैर न कर काहू सन कोई, राम प्रताप विषमता खोई।।’ यानी अहिंसक और बैर, विरोधी रहित समाज। रावण का राज्य पूंजीवादी था। सोने की लंका तानाशाही और शोषण का प्रतीक थी। रामराज्य का राजा अपने को सेवक समझता था। राम सेवक, भरत सेवक, लक्ष्मण, शत्रुघ्न और हनुमान सब सेवक। सबका सेवक ‘धम’ है।
तुलसी को राजा राम का असाधारण अलौकिक रूप पसंद नहीं है। उन्हें राम का आम आदमी सरीखा व्यवहार प्रिय है। वे जन सामान्य की तरह जीते हैं। तभी तो सेविकाओं के रहते सीता घरेलू काम अपने हाथ से करती हैं।
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