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प्रलाप के अपराधी

इस देश में ‘मानहानि’ और ‘आदतन मानहानि’ के आपराधिक गुणांकों को अलग-अलग करके देखना आवश्यक हो गया है। कुछ संस्थान और कुछ वे व्यक्ति, जो स्वयं कोई संस्थान होने जैसी स्थिति में स्वयं को देखने के आदी हैं, स्वयं को नियमों, मर्यादाओं से परे महसूस करने लगे हैं

by हितेश शंकर
Mar 27, 2023, 03:45 pm IST
in भारत, सम्पादकीय
राहुल गांधी

राहुल गांधी

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इस देश की सुरक्षा और संप्रभुता के प्रति भी है। हम उस स्थिति को स्वीकार नहीं कर सकते, जिसमें किसी भी व्यक्ति को देश के, देश की एकात्मता के खिलाफ कुछ भी कहने की अनुमति हो। पश्चिम के जिन देशों में इस प्रकार की घटनाएं घट रही हैं, एक तो वे स्वयं अपने ही बोए हुए विष वृक्षों का फल भोग रहे हैं

मानहानि के प्रकरण में राहुल गांधी को सुनाई गई दो वर्ष की कैद की सजा अपने आप में शायद इतना बड़ा विषय नहीं है, जितना बड़ा विषय उसके बाद, की गई प्रतिक्रियाओं में देखा जा सकता है। अभियुक्त की बहन श्रीमती प्रियंका वाड्रा ने ट्विटर पर लिखा है ‘सत्ता की पूरी मशीनरी’। क्या वह अदालत को भी सत्ता की मशीनरी कहना चाह रही हैं? इसी प्रकार दिल्ली के मुख्यमंत्री ने इसे एक ‘षड्यंत्र’ कहा है और खुद अभियुक्त के वकील ने न्यायिक प्रक्रिया को ही दोषपूर्ण ठहराया है। राज्यसभा में विपक्ष के नेता जैसे जिम्मेदार पद पर आसीन व्यक्ति ने कहा है कि उन्हें तो इस निर्णय की जानकारी शुरुआत से ही थी। अगर इस प्रकार के सारे लोग वास्तव में अपने विचारों पर पूरी तरह विश्वास करते हैं, तो यह तो बड़ी जांच का विषय होना चाहिए। क्या वे इसके लिए तैयार हैं?

वास्तविकता यह है कि इस देश में ‘मानहानि’ और ‘आदतन मानहानि’ के आपराधिक गुणांकों को अलग-अलग करके देखना आवश्यक हो चुका है। अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ संस्थान और कुछ वे व्यक्ति, जो स्वयं कोई संस्थान होने जैसी स्थिति में स्वयं को देखने के आदी हैं, नियमित तौर पर स्वयं को नियमों, कानूनों, तर्कों और मर्यादाओं से परे महसूस करने लगे हैं। वे किसी की भी मानहानि कर सकते हैं, और किसी भी असहमति को वितंडा करती भीड़ की तरह, अनाप-शनाप शब्दों के प्रयोग, ऊंची आवाज, कुतर्कों और अपशब्दों से निर्दयता से दबाने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोगों को आसानी से देखा जा सकता है, जो अपनी इच्छाओं और धारणाओं के प्रति इस हद तक आश्वस्त हैं कि उनकी ही धारणा मान्य है, एकमात्र सत्य है, और यह कि उन्हें बाकी लोगों की वैकल्पिक राय और विचारधारा को दबाने, चुप करने का सहज अधिकार प्राप्त है। अपने वैचारिक विरोधियों को चुप कराने के लिए वे उस नैतिकता और बौद्धिक श्रेष्ठता का हवाला देते हैं, जो वास्तव में उन्होंने कभी अर्जित भी नहीं की है।

कुछ संवैधानिक संस्थाएं भी इस स्थिति में पहुंच चुकी हैं, क्योंकि लापरवाह सरकारों ने इस रोग की रोकथाम उसी समय नहीं की थी, जब इस रोग की शुरुआत हुई थी। तत्कालीन सरकारें इस अपमानजनक व्यवहार को सहन करती गईं और अब स्थिति वहां पहुंच गई है, जिसे ‘हेकलर्स वीटो’(heckler’s veto) कहा जाता है। यह एक ऐसी अनैतिक रणनीति है, जो किसी वैचारिक प्रतिद्वंद्वी के तर्क को पराजित करने के बजाय उसे ही चुप कराने पर विश्वास करती है; जो वैकल्पिक विचारों को ही नहीं, उससे जुड़े व्यक्ति को भी रद्द कर देती है और यदि कोई व्यक्ति भिन्न विचार रखता है, तो उसे बाधित किया जाता है और उसका अपमान किया जाता है।

पश्चिम के जिन देशों में इस प्रकार की घटनाएं घट रही हैं, एक तो वे स्वयं अपने ही बोए विष वृक्षों का फल भोग रहे हैं, और दूसरे उनमें से कोई नैसर्गिक राष्ट्र नहीं है। वह तो दूसरों की जमीन पर बलपूर्वक कब्जा कर के बने हुए देश हैं। उनमें और हम में यह मौलिक अंतर है, और इसे सब को समझना होगा

कोई भी लोकतंत्र उन स्थानों पर हेकलर्स वीटो की अनुमति नहीं दे सकता, जहां ठोस विचार-विमर्श आवश्यक होता है। महत्व के विषयों पर विविध विचारों की अभिव्यक्ति लोकतंत्र का अनिवार्य अंग है। लेकिन जो वोक  (woke) समूह अपने विरोधियों की भौतिक उपस्थिति को भी सहन नहीं कर सकता, वह अपने उपहास, हूटिंग, अभद्र भाषा को लेकर किस लोकतंत्र पर पहुंचना चाहता है? नैतिकता की तरह ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी नई परिभाषाएं बन गई हैं।

जिन बातों से वे असहमत होते हैं, उन्हें बहुत सरलता से ‘घृणास्पद’ (hate speech) करार दे दिया जाता है। कथित किसान आंदोलन के दौरान, जिसका पूरी तरह भंडाफोड़ हो चुका है, किस स्तर का विमर्श पेश किया गया था? न कुछ कहना, न सुनना, सिर्फ अराजकता पैदा करना? इसी प्रकार एलजीबीटीक्यू गुट बहुत पहले ही शेष सभी को घृणा फैलाने वाला समूह घोषित कर चुका है। ऐसे लोगों की दृष्टि में न केवल उनकी विचारधारा दूसरों से अनिवार्य रूप से श्रेष्ठ होती है, बल्कि उसे व्यक्त करने के योग्य भी सिर्फ वही होते हैं। ऐसे लोग लोकतंत्र को लक्ष्य मानते हैं या औजार, यह विचार देश की जनता को करना होगा। इसका पहला सीधा सरोकार लोकतंत्र से है, देश से है। इतने विशाल देश के लिए लोकतंत्र ही एकमात्र उपयुक्त प्रणाली है, उसे इस विषाणु संक्रमण से बचाना होगा।

और ये इरादे….
इस विषाणु संक्रमण को समझना कठिन नहीं है। कितनी ही बार, देश के प्रतिपक्ष और देश से शत्रुवत देशों के सुरों और रणनीतियों में अद्भुत तालमेल और एकरूपता देखी जा चुकी है। कितनी ही बार टूलकिट्स का पर्दा उधड़ चुका है। जाहिर है, सबका लक्ष्य एक ही है। कौन सा लक्ष्य? ईस्ट इंडिया कंपनी का लक्ष्य था- भारत को लूटो, और माल महारानी के हवाले करो। क्या कांग्रेस ने इसी ध्येय को सांगोपांग अपनाया? अगर वह, और खुद को ‘भारत के’ कम्युनिस्ट कहने वाले वास्तव में स्वयं को इस देश का मानते हैं, तो इस देश से बैर क्यों? देश के प्रतीकों से बैर क्यों?

राष्ट्र, व्यवस्था, संस्कृति और इसके पावन प्रतीकों के प्रति घृणाभाव रखने वाली कोटरी की मानसिकता को परखना हो तो जरा उसे लोक के आलोक में, राम, रामायण और तुलसी की कसौटी पर परखिए।

जन-जन के प्राणाधार राम, उन्हें जन-जन तक पहुंचाने वाले तुलसी, तुलसी को जन-जन तक पहुंचाने वाली गीता प्रेस- सबसे इनकी ऐसी दुश्मनी, जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी को 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का दमन करना हो।

यह महत्वपूर्ण बिन्दु है। राम, तुलसी, और गीता प्रेस यह तीनों संस्थाएं मात्र नहीं हैं। बल्कि इस राष्ट्र के परिभाषित करने वाले बिन्दु हैं। इनके लिए क्या कुछ नहीं कहा और किया गया? राम को काल्पनिक कहा गया। 1990 के दशक में भारत के कई बड़े अंग्रेजी अखबारों ने रामविरोध की सारी हदें पार कर दीं। उन्होंने दाउद इब्राहिम तक की तारीफ कर डाली थी। केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने पाठ्यपुस्तकों में हिन्दुओं के आराध्य राम-सीता को ‘भाई-बहन’ पढ़वाया। कर्नाटक में कोई स्वयंभू विद्वान नमूदार हुए, और उन्होंने भगवान राम के बारे में ऐसा अनर्गल प्रलाप किया, जैसे आप टीवी पर कांग्रेसी प्रवक्ता का ज्ञान सुन रहे हों। गोस्वामी तुलसीदास को ‘हिन्दू समाज का पथभ्रष्टक’ कहा गया, रामचरितमानस को विवादित बनाने की चेष्टा की गई। अर्थ का अनर्थ करने का पूरा उद्योग चलने लगा। गीता प्रेस को लेकर तमाम विवाद पैदा करने की कोशिश की गई। बार-बार अफवाहें पैदा की गईं। कम्युनिस्टों की एक वेबसाइट ने गीता प्रेस के लिए ‘विष वृक्ष’ शब्द का प्रयोग किया।

यह सब कितने व्यवस्थित ढंग से किया गया? पहले संस्कृत की शिक्षा को लगभग समाप्त किया गया। फिर इस अबूझ हो चुकी संस्कृत में मनमर्जी बातें जोड़ी-घटाई गईं। फिर उनके मनमर्जी अर्थ निकालकर परोसे गए। फिर उन कथित अर्थों को बहुआयामी तरीकों से सत्य के तौर पर परोसा गया, उसे अधिकाधिक मान्यता दिलाने की चेष्टा की गई और वह प्रक्रिया आज भी जारी है। ढीठता यह है कि सिर्फ लूटतंत्र चलाने वाले, इस तोड़मरोड़ को अपने भ्रष्टाचार की ढाल के तौर पर भी प्रयोग करने लगे हैं।

शायद ही कोई अन्य देश अपने ही शरीर में प्रवेश कर चुके शत्रु विषाणुओं से इतनी सहिष्णुता से व्यवहार करता हो, जितना भारत इतने वर्षों से करता आया है। और ऐसे परम उदार भारत के लिए जार्ज सोरोस से गलबहियां करने वाले, कैम्ब्रिज एनालिटिका से सौदे करने वाले, देश तोड़ने वाली टूलकिट्स के साधारण सिपाही की हैसियत वाले – असहिष्णुता बढ़ रही है, लोकतंत्र खतरे में है, भारत में डर लगता है, भारत की वैक्सीन नहीं लगवानी, चीन-पाकिस्तान के हौवे दिखाना-जैसी बातें करते हैं।

बात सिर्फ लोकतंत्र की नहीं है। बात देश की सुरक्षा और संप्रभुता की भी है। वस्तुत: इस प्रकार के अनर्गल प्रलाप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में नहीं, निश्चित रूप से अपराध की श्रेणी में आते हैं। ऐसा अपराध जो न केवल लोकतंत्र के प्रति है, बल्कि इस देश की सुरक्षा और संप्रभुता के प्रति भी है। हम उस स्थिति को स्वीकार नहीं कर सकते, जिसमें किसी भी व्यक्ति को देश के, देश की एकात्मता के खिलाफ कुछ भी कहने की अनुमति हो। पश्चिम के जिन देशों में इस प्रकार की घटनाएं घट रही हैं, एक तो वे स्वयं अपने ही बोए हुए विष वृक्षों का फल भोग रहे हैं, और दूसरे उनमें से कोई नैसर्गिक राष्ट्र नहीं है। वह तो दूसरों की जमीन पर बलपूर्वक कब्जा कर के बने हुए देश हैं। उनमें और हम में यह एक मौलिक अंतर है, और इसे सब को समझना होगा। व्यापक दृष्टिकोण में देखें, तो ऐसा लगता है आने वाला समय ऐसे बहुत सारे प्रश्नों पर एक साथ निर्णय करने वाला होगा। यह अवश्यंभावी है।
@hiteshshankar

Topics: Democracyhindu societyदेश के प्रतिपक्षविष वृक्षकम्युनिस्टों की एक वेबसाइटपथभ्रष्टकcountry's oppositionराहुल गांधीpoison treeRahul Gandhia website of communistsहिन्दू समाजdeviantsलोकतंत्रcriminals of delirium
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