सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और चुनाव आयुक्तों (ईसी) की नियुक्ति पर महत्वपूर्ण निर्णय दिया है। इस निर्णय में केंद्र सरकार को आदेश दिया गया है कि सभी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की एक समिति की सलाह पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जानी चाहिए। अदालत ने अपने आदेश में चुनाव आयोग की स्वतंत्रता को रेखांकित करते हुए कहा है कि सीईसी और ईसी की नियुक्ति-प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी होनी चाहिए। उसने सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए “आवश्यक बदलाव” करने का निर्देश दिया है ताकि भारत का चुनाव आयोग “वास्तव में स्वतंत्र” हो जाए। यह विडंबना ही है कि इस आदेश के माध्यम से शीर्ष अदालत ने सरकार से उस प्रारूप का पालन करने को कहा है जिसे स्वयं उसने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 2015 में निरस्त कर दिया था। उसने सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान गोपन, गैर-जवाबदेह और यादृच्छिक/मनमानी “कॉलेजियम” प्रणाली को सही ठहराया था। सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला और भारत के कानून मंत्री किरन रिजिजू और माननीय उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के साथ जारी उसका वाक-युद्ध एकबार फिर से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) को चर्चा और चिंतन के केंद्र में ले आया है। पिछले कुछ महीनों में, न्यायिक नियुक्ति के तरीके पर केंद्र और सुप्रीम कोर्ट के बीच टकराव जैसी स्थिति देखी गयी है। भारत के माननीय उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को रद्द करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करते हुए उसके इस निर्णय को संसद की सर्वोच्चता, संविधान की मूल भावना और लोकतांत्रिक जनादेश के प्रतिकूल बताते हुए उनकी अवहेलना करार दिया था। कानून मंत्री किरन रिजिजू सहित अन्य कई महत्वपूर्ण व्यक्ति भी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) की आवश्यकता को रेखांकित करते रहे हैं, ताकि न्यायिक प्रणाली की स्वतंत्रता, पारदर्शिता, निष्पक्षता और जवाबदेही सुनिश्चित करते हुए लंबे समय से लंबित न्यायिक सुधारों को लागू किया जा सके। उल्लेखनीय है कि विभिन्न न्यायालयों में लंबित करोड़ों वादों और वाद निस्तारण की सुदीर्घ, जटिल और महंगी होती प्रक्रिया ने न्याय-व्यवस्था में आम आदमी के विश्वास को कम किया है। न्याय माँगने वाले को न्याय के लिए असहनीय प्रतीक्षा, प्रताड़ना और पीड़ा सहनी पड़ती है और वह स्वयं दंडित महसूस करता है।
एनजेएसी की परिकल्पना उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक स्वतन्त्र और समावेशी निकाय के रूप में की गई थी। इसे संसद और 16 राज्य विधानसभाओं द्वारा अनुमोदित किया गया था। परंतु सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने 2015 में इसे निरस्त कर दिया। इसके बाद फिर कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से ही न्यायाधीशों की नियुक्ति-प्रक्रिया जारी है। इस प्रणाली के तहत भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों को न्यायाधीशों की नियुक्तियों और स्थानांतरण की सिफारिश करने का अधिकार है। इसी तरह, उच्च न्यायालय में, कॉलेजियम को उस अदालत के मुख्य न्यायाधीश और दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों को प्रक्रिया पूरी करने का अधिकार है।
हालांकि, सरकार प्रस्तावित नामों को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकती है या अस्वीकार भी कर सकती है। परन्तु इस शक्ति का प्रयोग बहुत कम किया गया है क्योंकि इससे टकराव की संभावना पैदा होती है और न्यायार्थियों (जनता) के बीच गलत संदेश जाने की आशंका बढ़ती है।
यह मनमानी प्रथा 1993 में शुरू हुई थी। इस प्रकार, कॉलेजियम प्रणाली में सरकार और संसद की बहुत सीमित भूमिका है, और शक्ति केवल न्यायपालिका के हाथों में केंद्रित है। विभिन्न न्यायविदों और बुद्धिजीवियों का मानना है कि इस प्रणाली में पारदर्शिता, निष्पक्षता, स्पष्टता, जवाबदेही और समावेशन का पूर्ण अभाव है। इसलिए इस गोपन प्रक्रिया पर लगातार सवाल उठते रहे हैं।
निश्चय ही, लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता सर्वोपरि है। परंतु वर्तमान कॉलेजियम प्रणाली की स्व-केंद्रित असीम शक्तियां न सिर्फ भारत के बल्कि दुनिया के सभी संविधानों में अंतर्निहित नियंत्रण और संतुलन के प्रावधानों के प्रतिकूल हैं।
वर्तमान में, केंद्र सरकार और न्यायपालिका के बीच गतिरोध और टकराव जैसी स्थिति बनती जा रही है। सरकार अनुपयुक्त और संदिग्ध व्यक्तियों की नियुक्ति नहीं करना चाहती। इसलिए कॉलेजियम द्वारा की गई सिफारिशों की कुछ फाइलें लंबित रहती हैं। दूसरी ओर, सरकार द्वारा पुनर्विचार के अनुरोध के बावजूद सुप्रीम कोर्ट अपने द्वारा चयनित/प्रस्तावित नामों को ही बार-बार भेजता रहता है। नतीजतन, न्यायिक रिक्तियों में लगातार वृद्धि हो रही है, जिससे बड़ी संख्या में लंबित मामलों के समयबद्ध निस्तारण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। सरकार और उच्चतम न्यायालय इस शोचनीय स्थिति का ठीकरा एक-दूसरे के सिर फोड़ते हुए देखे जा रहे हैं। यह दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे जनता का विश्वास टूटता है और वह हताश, निराश और असहाय महसूस करती है।
उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्तियों की कॉलेजियम प्रणाली को अधिक व्यापक, समावेशी, पारदर्शी, जवाबदेह नियुक्ति-तंत्र से बदलने की आवश्यकता है। सरकार ने 13.04.2015 से संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम, 2014 और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 को लागू किया था। एनजेएसी में अध्यक्ष के रूप में भारत के मुख्य न्यायाधीश, दो अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश, केंद्रीय कानून-न्याय मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्ति सदस्य के रूप में शामिल किये गए थे। इन प्रतिष्ठित व्यक्तियों की नियुक्ति एक समिति द्वारा की जानी थी जिसमें उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता शामिल थे। इन्हें वीटो का अधिकार दिया गया था। न्यायपालिका ने एनजेएसी को न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांत के लिए खतरा मानते हुए 2015 में एनजेएसी और 99 वें संविधान संशोधन को असंवैधानिक घोषित करके राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को रद्द कर दिया था और अपनी मनमानी शक्तियों की सर्वोच्चता पुनः प्राप्त कर ली थी।
न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए समावेशी और पारदर्शी प्रक्रिया के साथ एक हाइब्रिड तंत्र भारत के लिए वांछनीय है। एक ऐसे तंत्र की आवश्यकता है जोकि पर्याप्त प्रतिनिधित्व, समावेशिता, योग्यता और पारदर्शी चयन प्रक्रिया सुनिश्चित करे। इसकी पहल स्वयं उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाना भारतीय लोकतंत्र के लिए स्वास्थ्यवर्धक और शुभकर होगा।
इस पृष्ठभूमि में एनजेएसी में सुधार/संशोधन पर पुनर्विचार करना भी महत्वपूर्ण होगा। संशोधित एनजेएसी में न्यायपालिका की आशंकाओं पर भी विचार किया जाना चाहिए। सरकार द्वारा नामित सदस्यों के वीटो पॉवर प्रावधान को लोकतांत्रिक निर्णय लेने की प्रक्रिया के साथ बदल दिया जाना चाहिए। साथ ही, समिति द्वारा की जाने वाली ये दो नियुक्तियां न्यायिक क्षेत्र से ही होनी चाहिए। ये नियुक्तियां किसी राजनीतिक दल/विचारधारा से असम्बद्ध राष्ट्रीय प्रतिष्ठा वाले और कम-से-कम 40 वर्ष का न्यायिक अनुभव रखने वाले वरिष्ठ न्यायविदों में से ही होनी चाहिए। भारत के माननीय राष्ट्रपति इस कुल सात सदस्यीय (राष्ट्रपति, मुख्य न्यायाधीश सहित सुप्रीम कोर्ट के तीन वरिष्ठतम न्यायाधीश, उपरोक्त समिति द्वारा चयनित दो प्रतिष्ठित न्यायविद और कानून मंत्री) संशोधित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के अध्यक्ष कानून मंत्री सदस्य सचिव हो सकते हैं। इस सात सदस्यीय आयोग में एक महिला और एक अनुसूचित जाति/जनजाति के सदस्य का प्रतिनिधित्व भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। छह सदस्यों का एकसमान मताधिकार होगा। किसी अनिर्णय/गतिरोध (tie-up) की स्थिति में ही राष्ट्रपति महोदय अपना मत प्रयोग करेंगे जोकि निर्णायक/बाध्यकारी होगा।
सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के लिए सार्वजनिक सेवा का एक कैडर बनाना और इस पूल से ही विभिन्न न्यायाधिकरणों और न्यायिक निकायों/आयोगों आदि में सक्षम सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति करने सम्बन्धी कानून भी बनाया जाना चाहिए। साथ ही, सेवानिवृत्त न्यायाधीशों द्वारा सरकार की अनुकम्पा से प्राप्त राज्यसभा की सदस्यता और राज्यपाल जैसे पद स्वीकारने/पाने करने पर भी रोक लगायी जानी चाहिए। ऐसी नियुक्तियां प्रथमदृष्टया ‘क्विड-प्रो-क्वो’ का मामला लगती हैं और न्यायपालिका की स्वतंत्रता,निष्पक्षता और विश्वसनीयता को संदिग्ध करती हैं। इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि नए बनने वाले नियुक्ति तंत्र में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका का समुचित प्रतिनिधित्व तो हो किन्तु इनमें से किसी के पास भी मनमानी का अधिकार या शक्तियां नहीं होनी चाहिए। केंद्र सरकार और न्यायपालिका की वर्तमान खींचतान के बीच राष्ट्रीय न्यायिक आयोग विधेयक-2022 उम्मीद की एक उजली किरण है। केंद्र सरकार और उच्चतम न्यायालय को पारस्परिक संवाद के माध्यम से संशोधित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग लागू करने की दिशा में यथाशीघ्र आगे बढ़ना चाहिए।
केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, सतर्कता निदेशालय और राष्ट्रीय जांच एजेंसी आदि संस्थाओं की नियुक्ति-प्रक्रिया को भी चुनाव आयोग के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्णय की तर्ज पर बदलकर उनकी पारदर्शिता, निष्पक्षता और विश्वसनीयता सुनिश्चित की जा सकती है। ‘पिंजड़े में बंद’ मानी गयी इन संस्थाओं की कार्य-प्रणाली भी असंदिग्ध होनी चाहिए। इन संस्थाओं पर उंगली उठना और उनपर राजनीतिक दुरुपयोग का आरोप लगना लोकतंत्र को कमजोर करता है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में प्रोफेसर हैं।)
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