दो साल पहले उन्होंने ‘जितबन सप्लाई चेन प्राइवेट लिमिटेड’ नाम से अपनी कंपनी बनाई और पटना के थोक मंडी बाजार समिति में 505 वर्ग मीटर में 7 राइपनिंग चैम्बर बनाया। हालांकि इसके लिए सब्सिडी मिलती है, लेकिन बैंक से सब्सिडी लेने में इतनी दिक्कत होती है कि उन्होंने अपने दम पर प्लांट लगाया। इसके साथ ही उन्होंने सीधे उत्पादकों से संपर्क किया और उनसे केले खरीदे। पहले तो किसानों को भरोसा ही नहीं हुआ कि इस विधि से केले को पकाया जा सकता है। बाद में धीरे-धीरे लोगों को इस तकनीक पर भरोसा होने लगा।
आजकल केला, पपीता, आम जैसे फलों को पकाने के लिए धड़ल्ले से कार्बाइड का प्रयोग किया जा रहा है, जिससे कैंसर जैसी घातक बीमारी होती है। इस तरह से पकाए गए फल दो दिन में ही गलने लगते हैं। इस कारण फल बाजार तक पहुंचने से पहले ही बड़ी मात्रा में बर्बाद हो जाते हैं। इसे देखते हुए पटना के विकास कुमार ने केला प्रसंस्करण (राइपनिंग चैम्बर) शुरू किया। इस तकनीक में फलों को पकाने के लिए रसायनों का प्रयोग नहीं किया जाता।
पेशे से मरीन चीफ इंजीनियर विकास कुमार हांगकांग में एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरत थे। इस दौरान उन्होंने देखा कि भारत केले का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। इसके बावजूद हर दिन दूसरे देशों से केले और अन्य फल आयात किए जाते हैं। वे तीन साल पहले घर आए तो उन्होंने गौर किया कि बाजार से जो केला वह खरीद कर लाते हैं, वह 24 घंटे में ही गलने लगता है। यहीं से उनके मन में लोगों को जहर से बचाने का विचार आया। वह रापनिंग चैंबर बनाने की तकनीक जानते थे। इसमें शीत तकनीक से फलों को पकाया जाता है, जो कई दिन तक खराब नहीं होते।
लिहाजा, उन्होंने पटना में राइपनिंग चैंबर खोलने का निर्णय किया। दो साल पहले उन्होंने ‘जितबन सप्लाई चेन प्राइवेट लिमिटेड’ नाम से अपनी कंपनी बनाई और पटना के थोक मंडी बाजार समिति में 505 वर्ग मीटर में 7 राइपनिंग चैम्बर बनाया। हालांकि इसके लिए सब्सिडी मिलती है, लेकिन बैंक से सब्सिडी लेने में इतनी दिक्कत होती है कि उन्होंने अपने दम पर प्लांट लगाया। इसके साथ ही उन्होंने सीधे उत्पादकों से संपर्क किया और उनसे केले खरीदे।
विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, शीत आपूर्ति शृंखला नहीं होने के कारण फल और सब्जियां सड़ जाती हैं। हालांकि कार्बाइड के प्रयोग पर सरकार ने प्रतिबंध लगा रखा है, फिर भी लोग धड़ल्ले से इसका प्रयोग करते हैं। बिहार और कई राज्यों में फलों को पकाने में कार्बाइड का प्रयोग अधिक होता है, जो स्वास्थ्य के हानिकारक है। उनके राइपनिंग चैंबर में वैज्ञानिक तरीके से ठंड तकनीक से फलों को पकाया जाता है। उनकी कंपनी हर दिन 10 टन केले की बिक्री करती है। -विकास कुमार
पहले तो किसानों को भरोसा ही नहीं हुआ कि इस विधि से केले को पकाया जा सकता है। बाद में धीरे-धीरे लोगों को इस तकनीक पर भरोसा होने लगा। उन्होंने पाया कि पहले केला पकाने के लिए वे जो कार्बाइड खरीदते थे, वह महंगा पड़ता था और उनके केले भी जल्दी खराब हो जाते थे। महज दो साल में ही उनकी कंपनी का कारोबार 1.5 करोड़ रुपये से अधिक हो गया है।
विकास पटना से पूरे बिहार में केलों और पपीते की आपूर्ति कर रहे हैं। साथ ही, किसानों को केले की खेती के लिए भी प्रोत्साहित कर रहे हैं। फलों के एक थोक व्यापारी महताब बताते हैं कि मंडी में सारे फल छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, हिमाचल और उत्तर प्रदेश से आते हैं। इसमें मात्र 0.5 प्रतिशत फल ही प्राकृतिक तरीके से पके होते हैं। शेष कार्बाइड से पकाए जाते हैं। इस कारण खेत से मंडी तक पहुंचने में ही 32 प्रतिशत फल और सब्जियां बर्बाद हो जाती हैं। सबसे अधिक नुकसान फलों को होता है, क्योंकि ज्यादातर फल दूसरे राज्यों से आते हैं।
यदि रास्ते में गाड़ी खराब हो गई तो 50 प्रतिशत नुकसान तय है। विकास कहते हैं कि विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, शीत आपूर्ति शृंखला नहीं होने के कारण फल और सब्जियां सड़ जाती हैं। हालांकि कार्बाइड के प्रयोग पर सरकार ने प्रतिबंध लगा रखा है, फिर भी लोग धड़ल्ले से इसका प्रयोग करते हैं। बिहार और कई राज्यों में फलों को पकाने में कार्बाइड का प्रयोग अधिक होता है, जो स्वास्थ्य के हानिकारक है। उनके राइपनिंग चैंबर में वैज्ञानिक तरीके से ठंड तकनीक से फलों को पकाया जाता है। उनकी कंपनी हर दिन 10 टन केले की बिक्री करती है।
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