हमारे घर-आंगन में चीं-चीं, चीं-चीं कर चहकने या खिड़की-दरवाजे पर बेधड़क फुदकने वाली गोरैया आजकल बहुत कम उड़ती नजर आती हैं। छोटे आकार के इस खूबसूरत से पक्षी का बसेरा हमारे घरों में तथा आसपास ही पेड़-पौधों पर हुआ करता था, लेकिन अब यह पक्षी विलुप्ति के कगार पर है और इसकी आवाज सुनने को कान तरस जाते हैं। एक समय था, जब सुबह आंख खुलते ही गोरैया की चहचहाहट सुन हमारे दिलोदिमाग को एक अजीब सा सुकून मिलता था, किन्तु अब यह चहचहाहट कहीं गायब सी हो गई है। स्वयं को परिस्थितियों के अनुकूल बना लेने वाली यह नन्ही सी प्यारी सी चिड़िया करीब दो दशक पहले तक हर कहीं झुंड में उड़ती देखी जाती थी, लेकिन अब यह एक संकटग्रस्त और दुर्लभ पक्षी की श्रेणी में आ गई है। भारत के अलावा यूरोप के कई हिस्सों में भी इनकी संख्या काफी कम रह गई है। तेजी से लुप्त होती गोरैया को नीदरलैंड में तो ‘दुर्लभ प्रजाति’ की श्रेणी में रखा गया है। जर्मनी, ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, चेक गणराज्य इत्यादि कुछ अन्य देशों में भी गोरैया की संख्या तेजी से घट रही है। भारतीय उपमहाद्वीप में गोरैया की कुल छह प्रजातियां हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, डैड सी अथवा अफगान स्क्रब स्पैरो, ट्री स्पैरो अथवा यूरेशियन स्पैरो, सिंध स्पैरो तथा रसेट अथवा सिनेमन स्पैरो पाई जाती हैं। भारत में गोरैया की आबादी में 60 फीसदी के आसपास कमी आई है।
गोरैया की तेजी से घटती संख्या को देखते हुए गोरैया के अलावा शहरी वातावरण में रहने वाले आम पक्षियों के संरक्षण के प्रति भी जागरूकता लाने के उद्देश्य से 2010 से प्रतिवर्ष 20 मार्च को ‘विश्व गोरैया दिवस’ मनाया जाता है। इस दिवस को मनाए जाने की शुरुआत भारत की ‘नेचर फोरएवर सोसायटी’ तथा फ्रांस के ‘इको-सिस एक्शन फाउंडेशन’ के संयुक्त प्रयासों के कारण ही संभव हुई थी। नासिक के रहने वाले पर्यावरणविद मोहम्मद ई. दिलावर ने ‘नेचर फोरएवर सोसायटी’ की स्थापना की थी। इंडियन काउंसिल आॅफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के एक सर्वेक्षण के अनुसार गोरैया की संख्या आंध्र प्रदेश में करीब 80 फीसदी तथा केरल, गुजरात, राजस्थान जैसे राज्यों में 20 फीसदी तक कम हो चुकी है। इसके अलावा तटीय क्षेत्रों में इनकी संख्या 70 से 80 फीसदी तक कम होने का अनुमान है। केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय का भी मानना है कि देश भर में गोरैया की संख्या में निरन्तर कमी आ रही है। पश्चिमी देशों में भी इनकी आबादी घटकर खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है। दुनियाभर में गोरैया की कुल 26 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से पांच भारत में मिलती हैं लेकिन अब इनके अस्तित्व पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। ब्रिटेन की ‘रॉयल सोसायटी आॅफ प्रोटेक्शन आॅफ बडर््स’ ने भारत सहित दुनिया के अन्य हिस्सों में भी कई अध्ययनों के आधार पर गोरैया को ‘रेड लिस्ट’ में डाला है। इसमें उन जीव-जंतुओं या पक्षियों को डाला जाता है, जिन पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा होता है।
गोरैया की तेजी से घटती संख्या को देखते हुए दिल्ली सरकार ने इसे 2012 में राज्य-पक्षी घोषित किया था। बिहार का भी यह राजकीय पक्षी है। पर्यावरणविदों का कहना है कि अगर गोरैया के संरक्षण के लिए समय रहते ठोस प्रयास नहीं किए गए तो संभव है कि नन्हीं सी चिड़िया गोरैया इतिहास का प्राणी बनकर रह जाए और हमारी आने वाली पीढ़ियों को इसके दर्शन केवल गूगल या किताबों में ही हो पाएं। दरअसल, हम पर्यावरण के साथ जिस तरह का खिलवाड़ कर रहे हैं, उसी का नतीजा है कि हमने धरती, जल, वायु प्रकृति के इन सभी तत्वों को इस कदर प्रदूषित कर दिया है कि इसका दुष्प्रभाव अब मनुष्यों के अलावा धरती पर विद्यमान तमाम जीव-जंतुओं और पशु-पक्षियों को भुगतना पड़ रहा है। पिछले दो-ढ़ाई दशक में हमारी जीवनशैली में बहुत बदलाव आया है। अपने निहित स्वार्थों के चलते हमने जंगल उजाड़ दिए, प्रकृति का संतुलन चक्र बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे जीव-जंतुओं और पक्षियों की अनेक प्रजातियों को मारकर, उनका शिकार करके या उनके आशियाने उजाड़कर उनके अस्तित्व पर संकट पैदा कर दिया है।
खेतों में कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग से भी इनके अस्तित्व पर काफी बुरा असर पड़ रहा है। पर्यावरणविदों के अनुसार गोरैया काकून, बाजरा, धान, पके हुए चावल के दाने इत्यादि खाती है किन्तु अत्याधुनिक शहरीकरण के कारण उसके प्राकृतिक भोजन के स्रोत खत्म होते जा रहे हैं, उनके आशियाने उजड़ रहे हैं। शहरों की बात छोड़िए, अब ग्रामीण इलाकों में भी घर बनाने के तरीके बदल गए हैं, जिससे गोरैया के लिए घोंसले बनाने की जगह खत्म सी गई है। अब शहर हों या गांव, हर कहीं हजारों की संख्या में मोबाइल फोन के लिए बड़े-बड़े टावर लगे हैं। इन टावरों से निकलने वाला रेडिएशन गोरैया की लगातार घटती संख्या का सबसे बड़ा जिम्मेदार कारण है। दरअसल इन टावरों से निकलने वाली इलेक्ट्रो मैग्नेटिक किरणें इस छोटे से पक्षी को उत्तेजित करती हैं, जिससे उनकी प्रजनन क्षमता बहुत कम हो जाती है और वह दिशाभ्रम का शिकार भी होती है। इससे सीधे-सीधे उनके अस्तित्व पर बहुत बड़ा असर पड़ा है। गोरैया के घोंसले सुरक्षित स्थानों पर नहीं होने के कारण कौए तथा दूसरे हमलावर पक्षी उनके अंडों तथा बच्चों को खा जाते हैं। गोरैया अधिकांशत: छोटे-छोटे झाड़ीनुमा झुरमुट वाले वृक्षों पर रहती हैं लेकिन विकास की अंधी दौड़ में हर तरह के पेड़ों का तेजी से सफाया किया जा रहा है, जिससे गोरैया सहित अन्य पक्षियों के आशियाने भी उजड़ गए हैं।
महज 12 से 15 सेंटीमीटर लंबी और 25 से 35 ग्राम वजनी दिल को मोह लेने वाली भूरे-ग्रे रंग, छोटी पूंछ और मजबूत चोंच वाली नन्हीं सी गोरैया एक समय में तीन या उससे ज्यादा अंडे देती है। पैदा होने के बाद शुरुआती कुछ दिनों में इसके बच्चों का भोजन केवल कीड़े-मकोड़े ही होते हैं लेकिन अब जिस प्रकार खेतों में बहुत बड़े पैमाने पर कीटनाशकों का उपयोग हो रहा है, उससे खेतों में कीड़े-मकौड़े नष्ट हो जाते हैं। ऐसे में गोरैया सहित दूसरे अनेक पक्षियों को भी उनका यह आहार नहीं मिल पाता। नतीजा, पर्याप्त भोजन उपलब्ध न होने के कारण भी दुनिया भर में पक्षियों की अनेक प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। गोरैया प्राय: झुंड में ही रहती हैं और भोजन की तलाश में यह झुंड अक्सर दो मील तक की दूरी तय करता है। गोरैया 20 मीटर से अधिक ऊंचाई पर उड़ान नहीं भर सकती, इसलिए विशेषकर महानगरों में, जहां कहीं गोरैया का अस्तित्व है, वहां भी ऊंची-ऊंची बहुमंजिला इमारतें खड़ी होने के कारण उनके दर्शन दुर्लभ हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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