देखा जा रहा है कि जिन अंतरराष्ट्रीय संगठनों को भारत में एफसीआरए के प्रावधानों से छूट मिली हुई है वे अपने ‘सहयोगी संगठनों’ के नाम पर वामपंथी ‘इकोसिस्टम’ को मजबूत करने में लगे हैं। मिशनरी, सीएसआर और यूनिसेफ जैसे संगठनों के आपसी रिश्तों को देश में ध्यान से समझने की आवश्यकता है।
भारत में गैर-सरकारारी संगठनों यानी एनजीओ का मायाजाल अभी भी पूरे तंत्र को अपने प्रभाव में लिए हुए है। हालांकि केंद्र सरकार ने विदेशी अंशदान विनियमन कानून (एफसीआरए) में बड़े बदलाव लाकर समाज में छद्म रूप में सक्रिय एक ‘राजनीतिक वर्ग’ की नकेल कसने का बड़ा काम तो किया है, लेकिन विदेशी चंदे से चलने वाली गतिविधियों पर अभी भी अपेक्षित अंकुश नहीं लग पा रहा है। तथ्य यह है कि देश में एक सुगठित एनजीओ तंत्र है, जिसमें न केवल विदेशी चंदा उपयोग होता है, बल्कि देश के औद्योगिक घरानों से निकलने वाला सीएसआर (कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व) का धन भी संदिग्ध संगठनों को आसानी से मिल रहा है। यह भी देखा जा रहा है कि जिन अंतरराष्ट्रीय संगठनों को भारत में एफसीआरए के प्रावधानों से छूट मिली हुई है वे अपने ‘सहयोगी संगठनों’ के नाम पर वामपंथी ‘इकोसिस्टम’ को मजबूत करने में लगे हैं। मिशनरी, सीएसआर और यूनिसेफ जैसे संगठनों के आपसी रिश्तों को देश में ध्यान से समझने की आवश्यकता है।
यह महज संयोग नहीं है कि जिन संगठनों को मिशनरी संस्थाओं से विदेशी पैसा मिलता है, उन्हें इस देश में सीएसआर से भी बड़ी रकम मिल रही है। यही नहीं, इनमें से अधिकतर संगठनों को यूनिसेफ भी शिक्षा, स्वास्थ्य और बाल कल्याण के नाम पर बड़ी राशि उपलब्ध करा रहा है। पिछले 9 साल में देश में करीब 1.26 लाख करोड़ रु. का धन सार्वजनिक एवं निजी औद्योगिक इकाइयों ने सीएसआर के तहत खर्च किया है। इस राशि का 50 प्रतिशत हिस्सा देश के विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से जनकल्याण और विकास के नाम पर व्यय हुआ है। पड़ताल यह बताती है कि कुछ बड़े एनजीओ ने इस राशि को अपने प्रभाव के जरिए हासिल किया और सहयोगी एनजीओ के नाम से ऐसे संगठनों को दिया जो आन्दोलनजीवी वर्ग से सीधे जुड़े हुए हैं। केंद्र और राज्य स्तर पर सीएसआर की राशि कौन खर्च कर रहा है और इस राशि के आवंटन का कोई विहित नियम नहीं है। नतीजतन निजी इकाइयों के सीएसआर से किसी जिले में क्या काम चल रहा है? कौन सा संगठन इस कार्य को कर रहा है? इससे जुड़ी कोई जानकारी स्थानीय स्तर पर जिला प्रशासन को नहीं रहती है।
इस धनखर्ची में विदेशी चंदे को जोड़ लिया जाए तो मामला बेहद गंभीर हो जाता है। ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि जिन संगठनों द्वारा एफसीआरए के तहत विदेशी धन प्राप्त किया जा रहा है, उसकी कोई जानकारी स्थानीय प्रशासन को दी जाती हो। मसलन भोपाल की एक संस्था जर्मनी, इटली, यूके, यूएसए से बड़ी धन राशि स्वच्छता,पोषण एवं स्वास्थ्य के नाम पर हासिल करती है और भोपाल जिला प्रशासन को इसकी विधिवत रूप से कोई जानकारी नहीं होती है। इसी संस्था द्वारा बच्चों के लिए महिला- बाल विकास की तमाम परियोजनाओं पर काम किया जा रहा है। यूनिसेफ भी इस संगठन को वित्त पोषित करता है। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में स्थित एक आश्रम के साथ भी ऐसा ही है। कमोबेश यूनिसेफ, विदेशी मिशनरी और सीएसआर का यह त्रिकोणीय आर्थिक संबंध देश के हर राज्य में फैला हुआ है। खास बात यह है कि देश में जितने एफसीआरए लाइसेंस प्राप्त संगठन हैं, उनमें से करीब 40 प्रतिशत तो घोषित रूप से ईसाई मत के प्रचार-प्रसार के नाम पर ही पंजीकृत हैं। मप्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, तमिलनाडु, केरल में तो यह प्रतिशत और भी अधिक है।
यूनिसेफ नहीं देता कोई जानकारी
अंतरराष्ट्रीय संगठन के नाम पर यूनिसेफ को भारत में एफसीआरए से मुक्ति मिली हुई है। यानी अन्य संगठनों की तरह इसे अपने आय-व्यय की जानकारी सार्वजनिक नहीं करनी होती है। इस संगठन द्वारा केंद्र एवं राज्य सरकारों के साथ पंचवर्षीय कार्ययोजना पर काम किया जाता है, लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यूनिसेफ किन संगठनों को पैसा देता है और उनका चयन किस पैमाने पर करता है, इसे लेकर कोई भी जानकारी सार्वजनिक पटल पर नहीं मिलती है। पड़ताल बताती है कि यूनिसेफ ने देशभर में हजारों ऐसे एनजीओ का जाल बना रखा है जिनकी गतिविधियों से आंदोलनजीवियों को सहायता मिलती है। सहयोगी एनजीओ में अधिकतर वे संगठन हैं, जो एफसीआरए से भी हर साल करोड़ों रुपए हासिल कर रहे हैं।
इन संगठनों को सीएसआर से भी बड़ी सहायता प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मिल रही है। यूनिसेफ इंडिया की वेबसाइट पर धन के आने और जाने का कोई स्रोत सार्वजनिक नहीं है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो तो विधिवत इस स्रोत और सहयोगी संगठनों के नाम उपलब्ध कराने के लिए कह चुके हैं, लेकिन तीन साल बाद भी यूनिसेफ ने अपने सहयोगी एनजीओ के नाम सार्वजनिक नहीं किए हैं। मूल आपत्ति यह है कि यूनिसेफ सरकारों के साथ मिलकर जिन परियोजनाओं पर काम करता है उनके साथ वही संगठन शामिल किए जाते हैं, जो वामपंथी ‘इकोसिस्टम’ का सक्रिय हिस्सा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रहते हैं।
सीएसआर नीतियों में बदलाव हो
भारत दुनिया का इकलौता देश है जहां सीएसआर को कानूनन अनिवार्य बनाया गया है। यह कानून व्यापारिक गतिविधियों से अर्जित धनलाभ में से कुछ भाग को सामाजिक रूप से व्यय करने के प्रावधान करता है। 1 अप्रैल, 2014 से यह कानून लागू है। आज लगभग एक दशक बाद इस कानून और इसके क्रियान्वयन के अनुभवों पर विचार करने की आवश्यकता है। यह कानून हमारे हजारों साल पुराने जीवन दर्शन की बुनियाद पर खड़ा है जहां दान और परोपकार का उद्देश्य समाज के वास्तविक जरूरतमंदों के लिए विकास और उत्कर्ष के लिए अवसरों को सुनिश्चित किया जाता रहा है। सीएसआर कानून सिर्फ भारतीय कंपनियों पर ही लागू नहीं होता है, बल्कि उन सभी विदेशी कंपनियों पर लागू होता है जो भारत में कार्य करती हैं। कानून के अनुसार एक कंपनी को जिसकी कुल सालाना संपत्ति 500 करोड़ रुपए या उसकी वार्षिक आय 1000 करोड़ रुपए या वार्षिक लाभ 5 करोड़ रु. का हो तो उसको सीएसआर पर खर्च करना जरूरी होता है। यह जो खर्च होता है उनके तीन साल के औसत लाभ का कम से कम दो प्रतिशत तो होना ही चाहिए।
2014 से 2021 की कालावधि में इस कानून के तहत 1,26,938 करोड़ रुपए का धन एकत्रित हुआ, जो निजी औद्योगिक घरानों के अलावा सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों से जारी किया गया। जाहिर है सवा लाख करोड़ से ज्यादा की यह रकम शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति, आधारभूत विकास, पोषण, ग्रामीण विकास, सामाजिक न्याय जैसे विहित क्षेत्रों में खर्च हुई है। इस धनखर्ची के विश्लेषण और नीतिगत बदलाव की आवश्यकता इस समय इसलिए महसूस की जा रही है, क्योंकि देश में इस राशि का वितरण असमान है। तुलनात्मक रूप में ज्यादा वास्तविक जरूरतमंद क्षेत्रों के लिए इससे कोई खास फायदा नहीं मिल पा रहा है। बेशक कानून इस राशि के व्यय हेतु औद्योगिक इकाइयों के स्थानीय क्षेत्रों को प्राथमिकता देता है, लेकिन यह भी तथ्य है कि भारत में समग्र विकास की गति भौगोलिक रूप से बहुत असमान है।
महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, हरियाणा जैसे राज्य विकास के लगभग सभी संकेतकों पर उत्तर भारत के अन्य राज्यों से अभी भी अग्रणी बने हुए हैं। सीएसआर की धन-खर्ची के आंकड़े इस असमान विकास को कम करने के स्थान पर बढ़ाते हुए नजर आ रहे हैं। अब तक व्यय की गई कुल सीएसआर राशि में 40 प्रतिशत तो केवल सात राज्यों में ही खर्च हुई है। इसमें ‘पैन इंडिया’ यानी एक साथ हुए देशव्यापी आवंटन को भी जोड़ लिया जाए तो यह आंकड़ा 60 तक जाता है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में 4023 करोड़ रु., महाराष्ट्र में 18605 करोड़ रु., गुजरात में 6221 करोड़ रु., कर्नाटक में 7160 करोड़ रु., तमिलनाडु में 5437 करोड़ रु.,आंध्र प्रदेश में 5100 करोड़ रु. एवं तेलंगाना में 2500 करोड़ रु. की राशि सीएसआर से 2014 से अब तक व्यय की जा चुकी है। ये ऐसे राज्य हैं, जहां औद्योगिक विकास के साथ मानवीय दृष्टि से भी जीवन स्तर समेत अन्य संकेतक देश के अन्य राज्यों से बेहतर हैं। इन राज्यों की कुल आबादी भी खर्च के अनुपात में समान नहीं है।
उत्तर प्रदेश, बिहार,मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, ओडिशा या पूर्वोत्तर के राज्यों में आधारभूत विकास से लेकर सामाजिक रूप से निवेश की आवश्यकता आज भी अत्यधिक है, लेकिन तथ्य यह है कि 22 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में गुजरात की तुलना में आधा यानी 3288 करोड़ रु. का कोष ही मिल सका। इसी तरह बिहार में तो यह आंकड़ा मात्र 691 करोड़ रु. ही है। कमोबेश मध्य प्रदेश में 1149 करोड़ रु., छत्तीसगढ़ में 1385 करोड़ रु., पश्चिम बंगाल में 2487 करोड़ÞÞÞÞÞ रु., झारखंड में 873 करोड़ रु. ही है।
जाहिर है बड़े औद्योगिक घराने या सेवा क्षेत्र की कंपनियां पहले से विकसित राज्यों में पहले तो अपनी इकाइयों की स्थापना के साथ स्थानीय रोजगार की उपलब्धता बढ़ाती हैं, फिर सीएसआर की बड़ी राशि भी स्थानीय स्तर पर खर्च करती हैं। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश जैसे राज्य लाख प्रयासों के बाद राज्य के लिए औद्योगिक निवेश नहीं ला पाते हैं। ऐसे में सीएसआर के लिए इन राज्यों को इस कोटे के अखिल भारतीय आवंटन पर निर्भर रहना पड़ता है, जो बहुत ही कम होता है।
सरकार ने कुछ संशोधन कर सीएसआर मद से शोध और विकास को भी जोड़ा है, लेकिन अभी इस दिशा में कोई ठोस कार्य दिखाई नहीं दे रहा है। एक और विसंगति यह है कि बड़े औद्योगिक घरानों ने अपने प्रभाव वाले एनजीओ एवं ट्रस्ट खड़े कर लिए हैं, जिनमें विश्वविद्यालय, अस्पताल और कौशल विकास केंद्र भी संचालित किए जा रहे हैं। यह एक तरह से केवल धन को इधर-उधर कर देना भर है। इसलिए इस पर कोई प्रभावी कानून बने, ताकि पैसे का समान वितरण हो सके।
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