चंद्रपुर के वनवासी क्रांतिकारी बाबूराव पुल्लेसूर शेडमाके

बाबूराव पुल्लेसूर शेडमाके ने अपनी मातृभूमि को अंग्रेजों से आजाद करने के लिए अपने प्राणों का बलिदान किया था। अंग्रेजों ने उन्हें एक पीपल के पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी थी।

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WEB DESK

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले का भी अमूल्य योगदान रहा है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में चंद्रपुर के जनजातीय समाज में अनेकों वनवासी वीरों ने हंसते-हंसते मातृभूमि पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। चंद्रपुर के एक ऐसे ही वीर बलिदानी हैं वीर क्रांतिकारी ‘बाबूराव पुल्लेसूर शेडमाके’ जिन्होंने मातृभूमि को अंग्रेजों से आजाद करने के लिए अपने प्राणों का बलिदान किया था। वीर बाबूराव शेडमाके का जन्म मोलमपल्ली (अहेरी) के श्रीमंत शेडमाके जमीनदारी में 12 मार्च 1833 को हुआ था। उनकी माता का नाम जुरजायाल (जुरजाकुंवर) था।

गोंड परंपरा के अनुसार वीर बाबूराव पुल्लेसूर शेडमाके की शुरुआती शिक्षा घोटुल (गोंड वनवासियों के शिक्षा केंद्र) में हुई। यहां पर उन्होंने गोंडी, हिंदी, तेलुगु, मराठी आदि की शिक्षा लेने के साथ मल्लयुद्ध, तीरकमान, तलवार व भाला चलाने का भी प्रशिक्षण लिया। इसके बाद उनके पिता ने उन्हें आगे की शिक्षा के लिए अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई करने के लिए रायपुर भेजा। वहां से शिक्षा ग्रहण करने के बाद वह वापस लौटे तो उनकी समझ और विकसित हो चुकी थी। उन्होंने देखा कि वनवासी समाज पर अंग्रेज अत्याचार कर रहे हैं। वह स्वयं राज परिवार से थे, लेकिन बावजूद इसके उनमें समाज के प्रति के सर्मपण का भाव था। उनकी शादी आंध्रप्रदेश के आदिलाबाद जिले के चेन्नुर के मड़ावी राजघराने की राजकुमारी राजकुंवर से हुई थी।

उस समय चांदागढ़ और उसके आस-पास के क्षेत्र में गोंड, परधान, हलबी, नागची, माडीया वनवासियों की काफी संख्या थी। 18 दिसंबर 1854 को आर.एस. एलिस नाम के अंग्रेज अधिकारी को चांदागढ़ का जिलाधिकारी नियुक्त किया गया। इसके साथ ही वनवासी लोगों पर अत्याचार ढाने की शुरुआत हो गई। उनका जबरन कन्वर्जन कर उनकी जमीनों को छीना जाना लगा। बाबूराव शेडमाके ने जब यह देखा तो उन्होंने अंग्रेजों का विरोध करने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने 24 सितंबर 1857 को उन्होंने ‘जंगोम सेना’ की स्थापना की। उन्होंने अडपल्ली, मोलमपल्ली, घोट और उसके आसपास के 400-500 वनवासियों की फौज बनाकर अंग्रेजों खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी।

अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिए उन्होंने चांदागढ़ से सटे राजगढ़ को चुना, राजगढ़ अंग्रेजों के कब्जे में था। 7 मार्च 1858 को बाबूराव ने अपने साथियों समेत राजगढ़ पर हमला कर दिया और संपूर्ण राजगढ़ को अपने अधिकार में कर लिया। राजगढ़ का जमींदार रामजी गेडाम भी इस युद्ध में मारा गया, राजगढ़ में हुई हार से कैप्टेन डब्ल्यु. एच. क्रिक्टन परेशान हो गया और राजगढ़ को वापस पाने के लिये 13 मार्च 1858 को कैप्टन क्रिक्टन ने अपनी फौज को बाबूराव की सेना को पकड़ने के लिए भेज दिया। राजगढ़ से 4 किलोमीटर दूर नांदगांव घोसरी के पास बाबुराव और अंग्रेजों के बीच जमकर लड़ाई हुई। कई लोग मारे गए, इस युद्ध में भी बाबुराव शेडमाके की जीत हुई। उन्होंने कई बार अंग्रेजों को हराया। जब वह नहीं पकड़े गए तब अंग्रेजों ने उनके एक रिश्तेदार को लालच दिया। जिसने धोखे से उन्हें गिरफ्तार करवा दिया। 18 सितंबर 1858 को उन्हें गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया गया। 21 अक्टूबर 1858 को बाबूराव को फांसी की सजा सुनाई गई, 21 तारीख को शाम 4 बजे चांदागढ़ राजमहल, जिसको अंग्रेजों ने जेल में परिवर्तित कर दिया गया था। वहां के एक पीपल के पेड़ पर लटकाकर उन्हें फांसी दे दी गई। आज भी वह पेड़ वहीं पर स्थित है जहां हर वर्ष 21 अक्टूबर को लोग एकत्रित होकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

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