यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप के उन भयंकर युद्धों में से एक है जिसने, खासकर विश्व युद्ध के बाद की भू-राजनीति को बहुत प्रभावित किया है। यह युद्ध एक नई विश्व व्यवस्था को जन्म दे रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है, जो पहले से ही कोविड के आघात से कराह रही थी। इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्था तो तबाह हो ही रही है, पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया की आर्थिक स्थिति भी डांवांडोल है।
यूक्रेन में रूस के ‘विशेष सैन्य अभियान’ को एक वर्ष हो गया है, लेकिन दोनों देशों के बीच जंग अब भी जारी है। दोनों पक्षों का रवैया और जबरदस्त राष्ट्रवादी सोच उग्रतर होती जा रही है। यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप के उन भयंकर युद्धों में से एक है जिसने, खासकर विश्व युद्ध के बाद की भू-राजनीति को बहुत प्रभावित किया है। यह युद्ध एक नई विश्व व्यवस्था को जन्म दे रहा है।
रूस-यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है, जो पहले से ही कोविड के आघात से कराह रही थी। इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्था तो तबाह हो ही रही है, पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया की आर्थिक स्थिति भी डांवांडोल है। जहां वैश्विक मुद्रास्फीति आसमान छू रही है, वहीं विकास अनुमान नीचे गिरते जा रहे हैं।
तुर्किए, मिस्र और श्रीलंका जैसी कमजोर अर्थव्यवस्थाएं बेहाल हैं। पश्चिमी देशों की रूस को विश्व बाजार में हाशिए पर डालने की कवायद से एक वैश्विक ऊर्जा संकट पैदा हो गया है, क्योंकि रूस प्राकृतिक गैस का दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक, तेल का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक और कोयले का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। तेल उत्पादक देशों के संगठन ‘ओपेक’ के साथ इसके सहयोग से तेल और गैस की कीमतों में उछाल आ गया है। युद्ध के कारण खाद्य संकट भी उत्पन्न हो गया है, क्योंकि रूस और यूक्रेन दोनों ही गेहूं और मकई के सबसे बड़े उत्पादकों में से हैं। अफ्रीका और अरब के कई देशों को इस संकट का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि वे खाद्यान्न के लिए इन दो देशों पर निर्भर रहे हैं।
अमेरिका की छवि को धक्का
इस युद्ध ने अमेरिका की छवि को भी भारी नुकसान पहुंचाया है क्योंकि अफगानिस्तान से सेना को वापस बुलाकर अपनी किरकिरी कराने के बाद यह दूसरा ऐसा मौका था, जब अमेरिका एक बार फिर कमजोर-लाचार दिखा। यूक्रेन में घबराहट का माहौल था क्योंकि क्रीमिया प्रायद्वीप से रूसी सेना ने न सिर्फ यूक्रेन के दक्षिणी क्षेत्र के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था, बल्कि उत्तर में बेलारूस की ओर से धावा बोलते हुए वह कीव और खार्किव के नजदीक तक पहुंच गई थी। रूसियों के भारी हवाई हमले के बीच यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने अमेरिका से गुहार लगाई कि वह यूक्रेन को नो-फ्लाई जोन घोषित कर दे।
अमेरिका ने युद्ध से परहेज किया, जिससे यह धारणा बनी कि वह भरोसे लायक नहीं है। रूस को आर्थिक रूप से पंगु बनाने की अमेरिका की कोशिशें भी पूरी तरह सफल नहीं रहीं। यहां तक कि यूरोप में अमेरिका के सहयोगी भी रूस से तेल-गैस आयात में कटौती के मुद्दे पर उससे सहमत नहीं थे, क्योंकि ये देश अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए काफी हद तक रूस पर निर्भर रहे हैं। वहीं चीन और भारत ने न केवल रूस से तेल का आयात जारी रखा, बल्कि रियायती कीमतों का लाभ उठाने के लिए इसे बढ़ा भी दिया। दूसरी ओर, तेल उत्पादन बढ़ाने के लिए ‘ओपेक’ को राजी करके कीमतों को कम करने की अमेरिका की कोशिशें बेकार साबित हुईं। सऊदी अरब और यूएई के नेताओं ने तो अमेरिकी राष्ट्रपति से फोन पर बात करने तक से मना कर दिया। परमाणु समझौते की बहाली का बेसब्री से इंतजार कर रहे ईरान ने भी संयुक्त कार्ययोजना (जेसीपीओए) से इतर नई मांगें रखनी शुरू कीं।
हालांकि बाद में अमेरिका ने यूक्रेन को मदद देने के अलावा युद्ध क्षेत्र में नए हथियारों को आजमाने के लिए उन्हें यूक्रेन को सौंपकर अपनी इज्जत बचा ली। इसका परिणाम यह हुआ कि यूक्रेन में आगे बढ़ते रूस के कदम ठिठक गए और अमेरिका ने अपने यूरोपीय सहयोगियों को कीव को टैंक सहित उन्नत हथियार देने के लिए राजी कर लिया। अमेरिका ने सोशल मीडिया के जरिए रूस के खिलाफ वैश्विक धारणा बनाने के लिए भी उन्नत प्रौद्योगिकी के अपने एकाधिकार का खूब उपयोग किया।
रूस की स्थिति
दूसरी ओर, प्रारंभिक सफलता के बावजूद, यह युद्ध रूसी कवच में पड़ रही दरार की परतें उघाड़ने लगा था। उम्मीद की जा रही थी कि रूस एकाध सप्ताह के भीतर अपने ‘उद्देश्यों’ की पूर्ति कर लेगा, जो एक वर्ष बीतने के बाद भी हासिल नहीं हो सके थे। लेकिन वास्तविकता यह है कि युद्ध रूस के लिए अच्छे संकेत नहीं दे रहा। हालांकि पश्चिमी प्रतिबंधों का उस पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा, पर रूसी अर्थव्यवस्था की हालत अच्छी नहीं है। युद्ध का भू-राजनीतिक प्रभाव यूरोपीय संघ के विस्तार के तौर पर दिखाई दे रहा है जो 2013 से रुका हुआ था। यूरोपीय संघ मोल्दोवा, जॉर्जिया और यूक्रेन की घोषणा का इंतजार कर रहा था; लेकिन युद्ध ने इस प्रक्रिया को तेज करने के लिए उसे बाध्य कर दिया। आक्रमण के कारण नाटो पूर्व की ओर तेजी से अपने संपर्क बढ़ाने लगा। रूसी आक्रमण ने सदियों से तटस्थ रहे स्वीडन और फिनलैंड को भी नाटो की सदस्यता के लिए आवेदन करने को प्रेरित कर दिया। खास बात तो यह है कि युद्ध ने नाटो को ऐसे समय में शक्तिशाली बना दिया जब वह अपनी प्रासंगिकता खो रहा था, जिसके परिणामस्वरूप सदस्य-देशों के रक्षा आवंटन में बढ़ोतरी दर्ज हुई।
इस युद्ध के कारण अधिकांश पूर्वी यूरोपीय और सीआईएस देशों का रुख रूस के खिलाफ सख्त हो गया है। रूस के कई पारंपरिक सहयोगियों ने इस युद्ध में तटस्थता दिखाई है और वे इससे दूरी बरत रहे हैं। पूर्व सोवियत राज्यों में से केवल बेलारूस ने ही उसके आक्रमण को समर्थन दिया, लेकिन अब वह भी अपने कदम पीछे खींचता दिख रहा है। इसके अलावा, रूस की छवि को काफी धक्का पहुंचा है, जिससे उबरने में उसे कई साल लग जाएंगे। उसकी ताकतवर सेना ने अपनी चमक खो दी है और अपने लक्ष्य को पाने की उसकी विफलता दिखा रही है कि, उसके हथियारों की धार कुंद हो रही है।
रूस-यूक्रेन संघर्ष ने यूरोपीय संघ के सदस्य देशों की विसंगति को भी उजागर किया है, जिसमें रूस के साथ इन देशों का रुख उनके आर्थिक रिश्ते के आधार पर निर्भर रहा। इसने न केवल यूरोप की आर्थिक समस्याओं को बढ़ाया, बल्कि उसे अमेरिका की गोद में भी धकेल दिया है। इस संघर्ष के मीडिया कवरेज ने यूरोपीय राजनीति का सैन्यीकरण कर दिया है और ‘ट्रांस-अटलांटिक’ विभाजन को पाटने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसने यूरोपीय राष्ट्रों के अन्तर्निहित मतभेदों और सुरक्षा के लिए अमेरिका पर उनकी निर्भरता को जगजाहिर कर दिया है।
युद्ध के जारी रहने और पश्चिमी देशों से शत्रुता के कारण रूस चीन की ओर झुकने लगा है और अपने साझा दुश्मन के खिलाफ मजबूत हो रहा है। दोनों ने पूर्व की ओर नाटो के विस्तार और ताइवान के मामलों पर एक सुर में आवाज बुलंद की है। चीन-रूस संबंधों में पारस्परिकता है, बीजिंग को रूस से सुरक्षा और ऊर्जा की गारंटी मिलती है जबकि मास्को को चीन से निश्चित आर्थिक और व्यापारिक खरीद-फरोख्त की सुविधा। इसका परिणाम यह हो सकता है कि बीजिंग अमेरिका के लिए एक प्रतिद्वंद्वी शक्ति केंद्र के रूप में उभरे जबकि मास्को धीरे-धीरे अमेरिका को सीधे चुनौती देने वाली शक्ति के ओहदे से फिसल जाए।
रूस के कई पारंपरिक सहयोगियों ने इस युद्ध में तटस्थता दिखाई है और वे इससे दूरी बरत रहे हैं। पूर्व सोवियत राज्यों में से केवल बेलारूस ने ही उसके आक्रमण को समर्थन दिया, लेकिन अब वह भी अपने कदम पीछे खींचता दिख रहा है। इसके अलावा, रूस की छवि को भारी धक्का पहुंचा है, जिससे उबरने में उसे कई साल लग जाएंगे।
भू-राजनीतिक बदलाव
यूक्रेन के घटनाक्रम ने पश्चिमी दुनिया का ध्यान चीन से हटाकर रूस पर केंद्रित कर दिया है और इससे चीन को मौका मिल गया है कि वह अपने एजेंडे पर निश्ंिचत होकर आगे बढ़े। इसका एक पक्ष यह भी है कि आनन-फानन में घोषित लक्ष्य पाने में रूस की विफलता ने चीन को ताइवान में ऐसा कुछ करने से रोक तो दिया, लेकिन बीजिंग ने अपनी आक्रामकता बढ़ा दी है। इसमें एशियाई देशों की प्रतिक्रिया दिलचस्प और नए उभरते शक्ति समीकरणों की ओर इशारा करने वाली रही है। इनमें से ज्यादातर अपने पत्ते खोलने से परहेज कर रहे हैं और खुलकर किसी का भी पक्ष लेने को तैयार नहीं हैं। उनमें से कई अमेरिकी दबाव के बावजूद सस्ते रूसी तेल का आयात और स्थानीय मुद्राओं में परस्पर व्यापार कर रहे हैं।
जापान और दक्षिण कोरिया, जिनके अमेरिका के साथ नजदीकी सुरक्षा रिश्ते हैं, और जो खुद को लोकतांत्रिक ताकतों के वैश्विक गठबंधन के हिस्से के रूप में देखते हैं, ने यूक्रेन पर रूसी आक्रमण की निंदा की है। जापान का चीन और रूस के साथ क्षेत्रीय विवाद है, लेकिन दोनों के साथ उसका व्यापार फल-फूल रहा है। आसियान काफी बंटा हुआ है और उसने रूस-यूक्रेन युद्ध पर बड़ा ही ढीला-ढाला रुख अपनाया है। एशिया में नाटकीय बदलाव पश्चिम एशिया में हुआ है जो परंपरागत रूप से अमेरिकी खेमे में रहा है। रूस के सहयोगी सीरिया ने खुले तौर पर मास्को का समर्थन किया है, जबकि अन्य देशों ने रूस की आलोचना करने से परहेज किया है। युद्ध शुरू होने के तुरंत बाद, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के शासकों ने राष्ट्रपति बाइडेन के साथ बात करने से इनकार कर दिया, लेकिन रूसी राष्ट्रपति के साथ बात की।
युद्ध से पश्चिम एशिया में भू-राजनीतिक तौर पर बिखराव आ गया है। इराक और ईरान एक-दूसरे से दूर जा रहे हैं तो कतर और सऊदी अरब में भी दूरियां बढ़ रही हैं। यूएई जरूर स्वतंत्र विदेश नीति अपना रहा है। वहीं तुर्की एक बड़े कारक के रूप में उभरा है, क्योंकि उसके पास अपने सहयोगियों के पक्ष में खड़े होने की सैन्य शक्ति है, वह काला सागर से यातायात को नियंत्रित करता है, जिसकी यूक्रेन से खाद्य निर्यात को बहाल करने में बड़ी भूमिका है। हालांकि ईरान इस संघर्ष से सीधे तौर पर प्रभावित नहीं है, लेकिन वह भविष्य में एक बड़े खिलाड़ी के रूप में उभर सकता है। ईरान परमाणु समझौते को पुनर्जीवित करने के बाइडेन के प्रयासों के बावजूद, अब भी अमेरिका पर पूरी तरह भरोसा नहीं कर पा रहा। ट्रंप प्रशासन ने जिस तरह समझौते को रद्द कर दिया था, ईरान उस अपमान को भी भूल नहीं पा रहा। यही वजह है कि ईरान रूस और चीन के नेतृत्व वाले अमेरिका विरोधी खेमे की ओर झुका हुआ है। इसी तरह, सऊदी अरब युद्ध के करवट के हिसाब से तय करेगा कि किधर जाना है। इससे साफ होता है कि अमेरिका का प्रभाव कम हो रहा है और उसी अनुपात में रूस और चीन का असर बढ़ रहा है।
दक्षिण एशिया में रूस-यूक्रेन संकट का व्यापक प्रभाव दिख रहा है। इस युद्ध का पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ा है। तेल की बढ़ती कीमतों और गेहूं की कमी ने उसे दिवालिया होने के कगार पर ला खड़ा किया है। इसी तरह, बांग्लादेश भी रूस-यूक्रेन संघर्ष से गहराई से प्रभावित हुआ है, क्योंकि रूस उसके रेडीमेड कपड़ों के लिए एक महत्वपूर्ण बाजार है और गेहूं और बाजरे की आपूर्ति का प्रमुख स्रोत है। घटते निर्यात और बढ़ते आयात बिल के साथ-साथ युद्ध और प्रतिबंधों के कारण आपूर्ति लाइनों में व्यवधान ने अर्थव्यवस्था को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।
दबाव में नहीं आया भारत
भारत ने रूस-यूक्रेन युद्ध में एक नाजुक राजनयिक संतुलन बनाया है। वह रूस के खिलाफ कड़ा रुख अपनाने के पश्चिमी दबाव के आगे नहीं झुका। उसने अपने कूटनीतिक और आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ का रास्ता अपनाया और युद्ध को खत्म करने के लिए बातचीत का पक्ष लेने और सामने खड़े मानवीय संकट पर चिंता व्यक्त करने तक अपने आप को सीमित रखा है। नई दिल्ली ने रूसी आक्रमण के समर्थन या विरोध में कोई बयान जारी नहीं किया और न ही किसी प्रतिबंध का समर्थन किया है। दरअसल भारत के लिए सस्ती ऊर्जा तक पहुंच जरूरी है, जो रूस उसे उपलब्ध करा रहा है और वह भी रियायती दरों पर।
मॉस्को भारत का प्रमुख हथियार आपूर्तिकर्ता रहा है। 60 प्रतिशत भारतीय हथियार रूसी हैं। अपने पड़ोस की जटिल भू-राजनीति को देखते हुए भी भारत के लिए रूस के साथ मित्रता बनाए रखना जरूरी है। इसके अलावा रूस का अफगानिस्तान, ईरान में भी अच्छा प्रभाव बना हुआ है, इसमें तटस्थ रहने की कोशिश में, भारत ने यूक्रेन के साथ अच्छे संबंध बनाए हुए हैं। उसने युद्ध क्षेत्र से अपने नागरिकों को सुरक्षित निकालना सुनिश्चित किया और यूक्रेन को मानवीय सहायता की पेशकश की। भारत तेल की बढ़ती कीमतों और खाद्य तेल की कमी से प्रभावित हुआ है, जो मुख्य रूप से काला सागर होते हुए आते थे। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि रूस की चीन पर बढ़ती निर्भरता भारत के लिए गहरी चिंता की बात है, क्योंकि वह ‘लोकतांत्रिक’ देशों और ‘यूरेशिया के तानाशाही शासनों’ के बीच एक नए शीत युद्ध के पाटों के बीच फंसा एक प्रमुख देश नहीं बनना चाहता।
रूस-यूक्रेन संघर्ष ने दोष-रेखाओं को फिर से परिभाषित किया है और घरेलू तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दरारों को उभार दिया है। इसने जहां यूरोपीय संघ में वर्षों की शांति और शालीनता को भंग कर दिया है वहीं, नाटो और अमेरिका का वास्तविकता से सामना करा दिया है। इस युद्ध ने यूरोपीय स्थिरता और एकता की नींव को हिला दिया। इसने शीत युद्ध को यूरोप और दुनिया में वापस लौटा दिया है। अमेरिका ने नेतृत्व करने की कोशिश करते हुए यूरोपीय और पश्चिमी एकता की कुछ पहल जरूर की है। लेकिन अगर युद्ध और लंबा चलता है तो इस एकता की अग्नि-परीक्षा होगी क्योंकि हर देश अंतत: अपने हितों के अनुकूल व्यवहार करने को मजबूर हो जाएगा और उस स्थिति में संभवत: वे रूस के साथ सामान्य व्यापार की ओर लौट आएं।
चीन को निस्संदेह इस युद्ध से फायदा हुआ है। रूस चीन को अपना छोटा सहयोगी मान रहा है। इस तरह वह शायद एक ऐसा ब्लॉक बनाने में सफल रहा है जो अमेरिका का मुकाबला कर सकता है जो उनका कथित साझा दुश्मन है। इस युद्ध से पुतिन को कुछ कड़वे सबक सीखने को मिले हैं, जिन्होंने रूस की पूर्व पहचान यानी सोवियत समाजवादी गणराज्यों के संघ के तौर पर पुन: स्थापित करने की धुन में अपने पारंपरिक क्षेत्र में भी अपनी छवि खराब कर ली। पुतिन यूरोप के नक्शे को फिर से तैयार कर सकते हैं, लेकिन उनकी उपलब्धि पर रूस की दीर्घकालिक प्रतिष्ठा और वैश्विक छवि के नुकसान का बोझ हमेशा हावी रहेगा।
(पूर्व नौसेना अधिकारी आलोक बंसल इंडिया फाउंडेशन के निदेशक हैं तो निधि बहुगुणा एईएचआरएफ में सीनियर रिसर्च फेलो और जेकेएससी की सदस्य हैं)
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