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हिंदूफोबिया : एक संस्थागत षड़्यंत्र

जिस गति और जिस पैमाने पर हिंदू विरोधी हरकतें बढ़ाई जा रही हैं, उनका जैसा तंत्र बन गया है, जिस तरह फंडिंग हो रही है, वह वास्तव में गंभीर है। हिंदू विरोध का संस्थागत स्वरूप इस कारण और खतरनाक है, क्योंकि इन संस्थानों को शिक्षा का केंद्र माना जाता है।

by हितेश शंकर
Mar 9, 2023, 02:00 pm IST
in विश्व, सम्पादकीय
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अमेरिका के सिएटल शहर की सिटी काउंसिल ने एक ‘जाति-विरोधी’ प्रस्ताव पारित करके सिद्ध कर दिया है कि अमेरिका में हिंदूफोबिया को संस्थागत स्तर पर प्रोत्साहित किया जा रहा है। गैर-भेदभाव नीति के नाम पर हिंदुओं को निशाना बनाना वास्तव में अमेरिका, भारत और दुनिया भर में हिंदुओं के खिलाफ भेदभाव करने का एक नया औजार भर है।

इस प्रस्ताव में अतिरिक्त कानूनी जांच के लिए उन हिंदुओं को चिन्हित किया गया है, जो न केवल अमेरिका में अल्पसंख्यक हैं, बल्कि विश्व भर में अपनी सौहार्दता और शांतिप्रियता के लिए जाने जाते हैं। जिस तरह के गंभीर आरोप हिन्दुओं पर लगाए गए हैं, उनका कोई तो प्रमाण और डेटा होना चाहिए था। लेकिन सिएटल ने तो उन समूहों के प्रचार को तर्क बना लिया है, जो खुले तौर पर हिंदुत्व को खत्म करने का आह्वान करते हैं। जाहिर है कि निष्कर्ष पहले निकाला गया है और प्रमाण बाद में जुटाए गए हैं। पहले भी हंगर इंडेक्स में पाकिस्तान और श्रीलंका को भारत से बेहतर स्थिति में रखा गया।

जहां निजी मीडिया नहीं है, उन्हें प्रेस फ्रीडम के सूचकांक में भारत से बेहतर बताया गया। जहां लड़कियों को पढ़ने-पढ़ाने की मनाही है, उन्हें अकादमिक और महिला स्वतंत्रता के सूचकांक में भारत से बेहतर बताया गया। यह कौन से बुद्धिजीवी हैं? और अगर यह बुद्धिजीवी हैं तो फिर बुद्धि की परिभाषा क्या है? क्या इनकी सारी कसरत सिर्फ भारत को निम्नतर दिखाने के लिए है? या उनके औपनिवेशिक अहम की तुष्टि के लिए है? क्या यही अहम तुष्टि उनकी बौद्धिकता है?

 वह भारत और भारत के राष्ट्रवाद का विरोधी है, तब वास्तव में वह पश्चिमी अधिसत्ता को सर्वोपरि रखने की अपनी योजना पर काम कर रहा होता है। अमेरिका की क्रिटिकल रेस थ्योरी, वास्तव में एक खास अमेरिकी जाति को बाकी जातियों से ऊपर रखने की भारी-भरकम वैचारिक कवायद मात्र है। इसी क्रिटिकल रेस थ्योरी को तोड़-मरोड़ कर एक जाति थ्योरी में बदल दिया गया है, जो अब वोकिज्म का एक मुख्य आधार बना दी गई है। यह दुनिया को उसी तरह सिर्फ काला या सिर्फ सफेद देख पाती है, जिस दृष्टि से औपनिवेशिक ताकतें देखा करती थीं। -जार्ज सोरोस 

सिएटल, हार्वड और आक्सफोर्ड। अगर हिंदूफोबिया के इन तमाम अड्डों को लगता है कि उनकी इन हरकतों से भारत में एक दिन फिर ब्रिटिश राज कायम हो जाएगा, तो यह उनकी गहरी नींद का लक्षण है। हिंदूफोबिया वास्तव में औपनिवेशिकता के हसीन सपनों में जीते ऐसे वामपंथियों, इस्लामिस्टों और उपनिवेशवादियों के जमघट की कहानी है, जिसे न वर्तमान की समझ है, न इतिहास का अहसास है।
जिस गति और जिस पैमाने पर हिंदू विरोधी हरकतें बढ़ाई जा रही हैं, उनका जैसा तंत्र बन गया है, जिस तरह फंडिंग हो रही है, वह वास्तव में गंभीर है। हिंदू विरोध का संस्थागत स्वरूप इस कारण और खतरनाक है, क्योंकि इन संस्थानों को शिक्षा का केंद्र माना जाता है। काफी संख्या में भारत के विद्वान और भारत के छात्र भी उन सेमिनार और कॉन्फ्रेंसों में शामिल हो रहे हैं। यहां भारत के तकनीकी केंद्रों खासतौर से आईआईटी पर हर तरह के लांछन लगाए जाते हैं।

आईआईटी से निकले छात्रों को विश्व भर में सम्मान से शीर्ष पदों पर रखा जाता है। अब इन छात्रों पर बिना किसी साक्ष्य के जातिवादी और नस्लवादी कलंक लगाए जा रहे हैं। इरादा यह कि ये छात्र अब अपने कौशल का प्रदर्शन करने के बजाय अपना बचाव करने के तरीकों पर ध्यान देने के लिए बाध्य रहें। और बड़ी विडंबना यह है कि अब विदेशों में रहने वाले भारतीयों का एक वर्ग भी इस हिंदूफोबिया से सहमत होता जा रहा है।

इनमें वे भारतीय भी हैं जो अपने नए देश के प्रति अपनी निष्ठा जताने के लिए अपनी ही जड़ों से घृणा जताना चाहते हैं। जो मात्र 100-150 वर्ष में 40 करोड़ से अधिक लोगों की हत्या के दोषी हैं, जिन्होंने आस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे बड़े महाद्वीपों को उनके मूल निवासियों से खाली कर दिया है, जिन्होंने अफ्रीकी नस्ल की 12 जातियों को हमेशा के लिए नष्ट कर दिया है, वे अपने अतीत को जानने के बजाय, भारत के वर्तमान पर टिप्पणी कर रहे हैं, यह विडंबना है।

तीसरी विडंबना यह है कि जब जार्ज सोरोस यह कहता है कि वह भारत और भारत के राष्ट्रवाद का विरोधी है, तब वास्तव में वह पश्चिमी अधिसत्ता को सर्वोपरि रखने की अपनी योजना पर काम कर रहा होता है। अमेरिका की क्रिटिकल रेस थ्योरी, वास्तव में एक खास अमेरिकी जाति को बाकी जातियों से ऊपर रखने की भारी-भरकम वैचारिक कवायद मात्र है। इसी क्रिटिकल रेस थ्योरी को तोड़-मरोड़ कर एक जाति थ्योरी में बदल दिया गया है, जो अब वोकिज्म का एक मुख्य आधार बना दी गई है। यह दुनिया को उसी तरह सिर्फ काला या सिर्फ सफेद देख पाती है, जिस दृष्टि से औपनिवेशिक ताकतें देखा करती थीं।

हास्यास्पद यह है कि यह सब करने वालों को समाज विज्ञानी कहा जाता है। अधिकांश समाज विज्ञानियों को आईआईटी की प्रवेश परीक्षा नहीं देनी होती, उन्हें अत्यंत जटिल नियमों और सिद्धांतों को समझने की आवश्यकता नहीं होती। उन्हें तो सिर्फ एक गुब्बारा फुलाना होता है। अगर पश्चिम इस तरह गुब्बारे उड़ाने को ही श्रेष्ठता मानता है, तो इससे उसके भविष्य का सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

@hiteshshankar

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