भारत में वैदिककाल से ही स्त्रियों का स्थान अतुलनीय रहा है। जो लोग यह मानते हैं कि स्त्रियां शुरू से समाज में शोषित और प्रताड़ित रही हैं उन्हें एक बार अपने उस इतिहास को भी देख लेना चाहिए जहां स्त्रियां केवल बेटी, पत्नी, पुत्रवधू, माँ आदि न होकर विदुषियां थीं। आज तथाकथित कुछ वामपंथी संगठन स्त्री स्वतंत्रता के झंडे बुलंद कर स्त्री हित की बात करते हैं और दैहिक स्वतंत्रता को स्त्री स्वतंत्रता के रूप में प्रस्तुत करते हैं, लेकिन इसी स्वतंत्रता के नाम पर शारीरिक और मानसिक शोषण करते हैं।
जिस देश में स्त्री देवी स्वरूप हो, जिस देश को भारत माता के रूप में संबोधित किया जाता हो, जिस देश की पहली नागरिक एक स्त्री हो, जिस देश का नेतृत्व समय–समय पर स्त्रियों ने किया हो, उस देश की स्त्रियों को कमज़ोर और अक्षम दिखाना इन्हीं वामपंथी संगठनों का कार्य है।
आज कुछ स्त्रीववादी लेखिकाएं स्त्रियों के हित में झण्डा बुलंद कर अपनी इच्छानुसार लिखती जा रही हैं जो स्त्रियों की उस स्वतंत्रता और समानता की बात करती हैं जो हमारे समाज में वैदिककाल से ही उपस्थित थी। क्या वर्तमान में उन ऋषिकाओं से सभी परिचित हैं? यह विचारणीय विषय है। आज आधुनिक समय या दूसरे शब्दों मे कहा जाए कि वर्तमान समय में स्त्रीवादी लेखिका जिस स्वतंत्रता और समानता की बात कर रही हैं वे स्त्रियों को अलग ही दिशा की ओर मोड़ती नजर आ रहीं हैं। नि:सन्देह भारत में स्त्रियों कि स्थिति में गिरावट मुगलकाल की देन है किन्तु उसको परिभाषित करने वाले बड़े से बड़े आलोचक भी यह स्वीकारने में शर्म महसूस करते हैं कि भारत की स्त्रियां वैदिककाल में स्वतंत्र ही नहीं बल्कि नेतृत्वकारी भी थीं। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय इतिहास में वैदिक काल से अब तक न जाने कितनी ऐसी स्त्रियां रहीं, जिनके योगदान व बलिदान को न ही समाज जानता है और न ही वो किसी इतिहास का अंग बन पाईं। बहुत समय पश्चात कुछ लेखिकाओं का नाम लिया जा सकता है जिन्होंने स्त्रियों को अपने साहित्य में स्थान ही नहीं दिया बल्कि पूरा इतिहास ही उनके नाम कर दिया। हम यह नहीं कहते कि स्त्रियों के जीवन में कठिनाइयां नहीं होती हैं, या समाज में उनके साथ सबकुछ सकारात्मक ही होता है किन्तु यह जरूर आशा करते हैं कि समाज में इतिहास के प्रति इतना नकारात्मक रवैया भी अख्तियार न हो। और समाज से यह अपेक्षा करते हैं कि इन विदुषियों को साहित्य एवं इतिहास में स्थान मिल सके।
ज्ञातव्य है कि विदेशियों द्वारा भारतीय इतिहास के स्वर्णिम शब्दों को कहीं दर्ज नहीं किया गया। भारत की गौरवपूर्ण गाथा इतिहास में या तो दर्ज नहीं है या फिर उन्होंने उसे अपने हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा है। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के छंद 126 व 179 में व पंचम, अष्टम, दशम मंडलों में ऋषिकाओं के नाम स्त्री शक्ति की दृष्टि से आत्मविश्वास की पराकाष्ठा है। इन ऋषिकाओं में रोमशा, लोपामुद्रा, श्रद्धा कामायनी, अपाला, घोषा आदि प्रमुख हैं। एक इतिहासकार अपने इतिहास में जिक्र करती हैं कि काव्यमीमांसा के रचयिता राजशेखर की पत्नी अवन्तिसुन्दरी विदुषी, कवयित्री, एवं आलोचक थीं। आलोचक शब्द से ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि अवन्तिसुंदरी ने अपनी आलोचनाओं में स्त्री से संदर्भित मुद्दे उठाए होंगे। राजशेखर का ‘काव्यमीमांसा’, अध्याय दस में कथन है कि पुरुषों के समान ही स्त्रियां भी कवि हो सकती हैं। ज्ञान का संस्कार आत्मा से संबंध रखता है। उसमें स्त्री या पुरुषों का भेद नहीं है। सुनते और देखते हैं कि अनेक राजकुमारियां, वेश्याएं, मंत्रियों की पुत्रियां एवं नाट्यप्रयोक्ताओं की स्त्रियां शास्त्रों की प्रकांड विदुषियां और कवयित्रियां है।” उपर्युक्त कथन को देखने से यह स्पष्ट है कि सहित्य में प्रारंभ से ही समाज में स्त्रियां अपना योगदान देती रहीं हैं।
वैदिककाल में स्त्रियां पुरुषों के समान स्वतंत्र और मुक्त थीं। वे बिना किसी प्रतिबंध के सामाजिक गतिविधियों में सम्मिलित होती थीं। शिक्षा, ज्ञान, यज्ञ आदि विभिन्न क्षेत्रों में वह निर्विरोध स्वच्छंदतापूर्वक सम्मिलित होती व सम्मानपूर्वक आदर प्राप्त करती। यह वही युग था जिस युग को आज स्त्रीवादी वर्ग भुलाये बैठा है। ज्ञातव्य है कि वैदिक काल में ऐसी अनेक विदुषी स्त्रियां थीं, जिन्होंने ऋग्वेद और अर्थवेद की अनेक ऋचाओं का प्रणयन किया था। लोपामुद्रा, रोमशा, श्रद्धा कामायनी, अपाला, घोषा, विश्ववारा, सिक्ता आदि ऐसी ही पंडिता स्त्रियाँ थीं। जो मात्र ज्ञान, शिक्षा और विद्वत्ता के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि याज्ञिक कार्यों में भी अग्रणी थीं।
‘ब्रह्मयज्ञ’ सर्वश्रेष्ठ याज्ञिक अनुष्ठान जिनमें ऋषियों की गणना की जाती है उनमें गार्गी, मैत्रेयी, सुलभा आदि विदुषियों का नाम गर्व के साथ लिया जाता है। जिनकी प्रतिष्ठा वैदिक काल में ऋषियों के समान ही थी। ज्ञातव्य है कि विदेह राज जनक ने जब यज्ञ के अवसर पर जो धार्मिक शास्त्रार्थ आयोजित करवाया था उसमें गार्गी ने अपनी अद्भुत प्रतिभा, विलक्षण तर्क शक्ति और सूक्ष्म विचार का परिचय दिया। इन सभी साक्ष्यों से यह विदित होता है कि वैदिक युग में स्त्रियां बिना पर्दे के स्वतंत्रतापूर्वक पुरुषों के साथ समान रूप से विद्वगोष्ठियों और दार्शनिक वाद-विवादों में सम्मिलित होती थीं। समाज में वे पुरुषों के समान ही आदृत थीं। स्त्रियां यज्ञ की अधिकारिणी थीं। अकेला पुरुष यज्ञ के लिए अयोग्य था। वैदिककलीन शिक्षा पद्धति पर चर्चा करने पर ज्ञात होता है कि इस युग में स्त्री की शिक्षा अपनी उच्चतम सीमा पर थी। वह पुरुषों के समान ही भेदभावरहित शिक्षा प्राप्त करने की अधिकारिणी थीं।
दर्शन और तर्कशास्त्र के क्षेत्र में भी स्त्रियां निपुण थीं।
ऋग्वेद में उल्लिखित है कि कतिपय विदुषी स्त्रियों ने ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं के प्रणयन में योगदान प्रदान किया था, जिनमें अपाला, विश्ववारा, सिकता, उर्वशी, निबावरी, घोषा, लोपामुद्रा, रोमशा आदि प्रसिद्ध हैं। वैदिक काल में भी स्त्रियों को समाज में उनका संपत्ति-विषयक अधिकार स्वीकार किया गया। वैदिक युग में स्त्री का संपत्ति में अधिकार स्वीकार किया जाता था। नि:सन्देह हमें अपने उस गौरवशाली इतिहास को कदापि नहीं भूलना चाहिए जिस युग का प्रतिनिधित्व स्त्रियों के हाथ में थी।
(लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं एवं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के सेवार्थ विद्यार्थी आयाम की दिल्ली प्रान्त की सह संयोजिका हैं )
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