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पुण्यतिथि : उत्तराखंड की महान विभूति पंडित गोविंद बल्लभ पंत, जानिए उनके बारे में सबकुछ

भारत के दूसरे गृह मंत्री और उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री रहे पंडित गोविंद बल्लभ पंत का जमींदारी प्रथा को खत्म कराने में महत्वपूर्ण योगदान रहा।

by उत्तराखंड ब्यूरो
Mar 7, 2023, 11:13 am IST
in उत्तराखंड
पंडित गोविंद बल्लभ पंत (फाइल फोटो)

पंडित गोविंद बल्लभ पंत (फाइल फोटो)

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गोविंद बल्लभ पंत भारत के दूसरे गृह मंत्री तथा उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री एवं स्वतंत्रता सेनानी थे। भारतीय संविधान में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने और जमींदारी प्रथा को खत्म कराने में उन्होने महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उन्होंने हिंदू संहिता विधेयक पारित कराया और हिंदू पुरुषों के लिए एकपत्नीत्व अनिवार्य बना दिया था। उन्होंने हिंदू महिलाओं को तलाक और वंशानुगत संपत्ति के उत्तराधिकार के अधिकार दिए थे। भारत रत्न का सम्मान उनके ही गृह मन्त्रित्व काल में शुरू किया गया था, यही सम्मान उन्हें सन 1947 में उनके स्वतंत्रता संग्राम में योगदान तथा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और भारत के गृह मंत्री के रूप में उत्कृष्ट कार्य करने के लिए भारत के तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद द्वारा प्रदान किया गया था।

प्रसिद्ध देशभक्त राजनीतिज्ञ और आधुनिक उत्तर प्रदेश के निर्माण की नींव रखने वाले पंडित गोविन्द वल्लभ पंत का जन्म पिता मनोरथ पंत के घर 10 सितम्बर सन 1887 को ग्राम खूंट, अल्मोड़ा, उत्तराखंड में हुआ था। उनकी आरम्भिक शिक्षा अपने नानाजी की देख-रेख में अल्मोड़ा में घर पर ही हुई थी। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री प्राप्त की थी। इलाहाबाद में आचार्य नरेंद्र देव, डॉ. कैलाश नाथ काटजू उनके सहपाठी थे। इलाहाबाद उस समय भारत की महान विभूतियों जवाहरलाल नेहरू, मोतीलाल नेहरू, सर तेजबहादुर सप्रु, सतीशचन्द्र बैनर्जी तथा सुन्दरलाल सरीखों का संगम था तो वहीं विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान प्राध्यापक जैनिग्स, कॉक्स, रेन्डेल, एपी मुखर्जी सरीखे विद्वान थे। इलाहाबाद में गोविन्द वल्लभ को इन महापुरुषों का सान्निध्य सम्पर्क तो मिला ही साथ में जागरुक, व्यापक और राजनीतिक चेतना से भरपूर वातावरण भी मिला। वहीं से गोविन्द बल्लभ सामाजिक –सार्वजनिक कार्यों में रुचि लेने लगे थे। सन 1905 में वह बनारस में कांग्रेस में स्वयंसेवक के रूप में सम्मिलित हुए थे। गोपाल कृष्ण गोखले के भाषण का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा था।

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वकालत की परीक्षा पास करने के बाद गोविन्द बल्लभ ने कुछ दिन तक अल्मोड़ा और रानीखेत में वकालत करने के बाद काशीपुर, नैनीताल आ गए थे। काशीपुर में उनकी वकालत तो चली ही लेकिन सार्वजनिक कार्यों में वो अधिक सक्रिय हो गये थे। उनके अथक प्रयत्न से “कुमाऊँ परिषद” की स्थापना हुई थी। गोविन्द बल्लभ पंत के कारण काशीपुर राजनीतिक तथा सामाजिक दृष्टियों से कुमाऊँ के अन्य नगरों की अपेक्षा अधिक जागरुक था। उनके अथक प्रयत्न से “कुमाऊं परिषद” की स्थापना हुई थी। अंग्रेज़ शासकों ने उस समय काशीपुर नगर को काली सूची में शामिल कर लिया था। गोविन्द बल्लभ पंत के नेतृत्व के कारण अंग्रेज़ काशीपुर को ”गोविन्दगढ़“ कहती थी। सन 1914 में काशीपुर में ‘प्रेमसभा’ की स्थापना उनके प्रयासों से ही हुई थी। सभा का उद्देश्य शिक्षा और साहित्य के प्रति जनता में जागरुकता उत्पन्न करना था, लेकिन ब्रिटिश शासकों ने समझा कि समाज सुधार के नाम पर यहां पर आतंकवादी कार्यों को प्रोत्साहन दिया जाता है। इसका परिणाम यह रहा कि इस सभा को हटाने के अनेक प्रयास किये गये, परन्तु वह सफल नहीं हो पाये थे। इस संस्था का कार्य इतना व्यापक था कि ब्रिटिश स्कूलों ने काशीपुर से अपना बोरिया बिस्तर बांधने में ही खैरियत समझी थी। सन 1914 में उनके प्रयासों से ही ‘उदयराज हिन्दू हाईस्कूल’ की स्थापना हुई थी।

राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के आरोप में ब्रिटिश सरकार ने उस स्कूल के विरुद्ध डिग्री दायर कर नीलामी के आदेश जारी कर दिये। जब गोविन्द बल्लभ पंत को इस बात का पता चला तो उन्होंने चन्दा मांगकर जुर्माना पूरा किया। सन 1916 में गोविन्द बल्लभ पंत काशीपुर की ‘नोटीफाइड ऐरिया कमेटी’ में शामिल हो गये। इसके बाद में वह कमेटी की ‘शिक्षा समिति’ के अध्यक्ष बने। कुमायूं में सबसे पहले निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा लागू करने का श्रेय भी गोविन्द बल्लभ पंत को ही जाता है। उन्होंने कुमायूं में ‘राष्ट्रीय आन्दोलन’ को ‘अंहिसा’ के आधार पर संगठित किया था। प्रारम्भ से ही कुमाऊं के राजनीतिक आन्दोलन का नेतृत्व गोविन्द बल्लभ पंत के हाथों में रहा था। “रोलेट एक्ट” के विरोध में जब महात्मा गांधी ने सन 1920 में असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया तो गोविन्द बल्लभ पन्त ने अपनी चलती वकालत छोड़ दी और आन्दोलन के रास्ते खुली राजनीति में उतर आये। कुमाऊं में राष्ट्रीय आन्दोलन का शुरुआत कुली उतार, जंगलात आंदोलन, स्वदेशी प्रचार और विदेशी कपडों की होली व लगान-बंदी आदि से हुआ था। इसके बाद असहयोग आन्दोलन की लहर कुमायूं में छा गयी थी। परिषद के प्रयत्न से सन 1921 में कुमाऊँ में प्रचलित “कुली बेगार” जैसी अपमानजनक प्रथा का अंत हुआ था। गोविन्द बल्लभ पंत नैनीताल जिला बोर्ड के तथा काशीपुर नगर पालिका के अध्यक्ष चुने गये थे।

स्वराज्य पार्टी के उम्मीदवार के रूप में सन 1923 में वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद के चुनाव में सफल हुए और स्वराज्य पार्टी के नेता के रूप में उन्होंने अपनी धाक जमा दी थी। 9 अगस्त सन 1925 को काकोरी में उत्तर प्रदेश के कुछ क्रान्तिकारी नवयुवकों ने सरकारी खजाना लूट लिया था तो उनके मुकदमें की पैरवी के लिये अन्य वकीलों के साथ गोविन्द बल्लभ पन्त ने भी जी-जान से सहयोग किया था। उस समय वह नैनीताल से स्वराज पार्टी के टिकट पर लेजिस्लेटिव कौन्सिल के सदस्य थे। सन 1927 में महान क्रान्तिकारी रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ व उनके तीन अन्य साथियों को फाँसी के फन्दे से बचाने के लिये उन्होंने पण्डित मदन मोहन मालवीय के साथ वायसराय को पत्र भी लिखा था किन्तु महात्मा गांधी का समर्थन न मिल पाने से वह उस अभियान में कामयाब नहीं हो सके थे। सन 1927 में साइमन कमीशन के बहिष्कार और सन 1930 में नमक सत्याग्रह में भी उन्होंने भाग लिया था। मई सन 1930 में देहरादून जेल की हवा भी खायी थी। सन 1921, सन 1930, सन 1932 और सन 1934 के स्वतंत्रता संग्रामों में गोविन्द बल्लभ पंत लगभग 7 वर्षों तक जेलों में रहे थे। उन्होंने काशीपुर में एक चरखा संघ की विधिवत स्थापना की थी।

अनुसूया प्रसाद बहुगुणा : स्वतंत्रता आंदोलन का अनसुना नायक, जिसे ‘गढ़केसरी’ की उपाधि से किया गया था सम्मानित

सन 1934 में कांग्रेस ने विधायिकाओं का बहिष्कार समाप्त कर दिया और उम्मीदवारों को अपनाया तो वह केन्द्रीय विधानसभा के लिए चुने गए थे। उन्होंने अपने राजनीतिक कौशल से तत्कालिक नेताओं का दिल जीत लिया और वह विधानसभा में कांग्रेस पार्टी के उप नेता बने। 17 जुलाई सन 1937 से लेकर 2 नवम्बर सन 1939 तक वह ब्रिटिश भारत में संयुक्त प्रान्त अथवा उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने थे। इसके बाद दोबारा उन्हें यही दायित्व फिर से सौंपा गया और वह 1 अप्रैल सन 1946 से 15 अगस्त सन 1947 तक संयुक्त प्रान्त अर्थात उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे थे। जब भारतवर्ष का अपना संविधान बन गया और संयुक्त प्रान्त का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रखा गया तो फिर से तीसरी बार उन्हें ही इस पद के लिये सर्वसम्मति से उपयुक्त पाया गया था। इस प्रकार स्वतन्त्र भारत के नवनामित राज्य के भी वह 26 जनवरी 1950 से लेकर 27 दिसम्बर 1954 तक मुख्यमंत्री रहे।

गोविन्द बल्लभ पंत को भूमि सुधारों में बेहद रुचि थी उन्होंने 21 मई सन 1952 को जमींदारी उन्मूलन कानून को प्रभावी बनाया था। मुख्यमंत्री के रूप में उनकी विशाल योजना नैनीताल तराई को आबाद करने की थी। प्रशासनिक कुशलता, न्यायप्रिय सुधारों से उन्होंने सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य की हालत को एकदम दुरुस्त किया था। उनकी उपलब्धियों में हिंदू संहिता विधेयक पारित कराना और हिंदू पुरुषों के लिए एकपत्नीत्व अनिवार्य बनाना था। उन्होंने हिंदू महिलाओं को तलाक और वंशानुगत संपत्ति के उत्तराधिकार के अधिकार दिए थे। भारत के प्रथम गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की मृत्यु के बाद उन्हें गृह मंत्रालय का दायित्व दिया गया था। गृह मंत्री के रूप में भारत को भाषा के आधार पर राज्यों में विभक्त करना व हिंदी को राजभाषा के तौर सम्मान दिलवाने में उनका मुख्य योगदान रहा था। भारत के गृह मंत्री रूप में उनका कार्यकाल सन 1955 से लेकर सन 1961 में उनकी मृत्यु होने तक रहा था। 7 मार्च सन 1961 को हृदयाघात से जूझते हुए उनका देहावसान हो गया था।

भारत के गृह मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के समय गोविन्द बल्लभ पंत को उनके मुख्यमंत्री और स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम में योगदान के लिए 26 जनवरी सन 1957 को भारत के सर्वोच्च नागरिक अलंकरण भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। प्रसिद्ध देशभक्त राजनीतिज्ञ और आधुनिक उत्तर प्रदेश के निर्माण की नींव रखने वाले पंडित गोविन्द वल्लभ पंत की स्मृति में विभिन्न स्मारक और संस्थान जिनमें गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज उत्तर प्रदेश, गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, पंतनगर उत्तराखण्ड, गोविन्द बल्लभ पन्त अभियान्त्रिकी महाविद्यालय, पौड़ी गढ़वाल उत्तराखण्ड, गोविन्द बल्लभ पंत सागर सोनभद्र, उत्तर प्रदेश, पण्डित गोविन्द बल्लभ पंत इण्टर कॉलेज काशीपुर ऊधमसिंह नगर, उत्तराखंड आदि स्थापित किए गए हैं।

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