जिस तरह देश को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने से लेकर देसी मिसाइल कार्यक्रम में निर्णायक मोड़ देने वाले ‘मिसाइल-मैन’ अबुल पाकिर जैनुल अब्दीन अब्दुल कलाम यानी एपीजे अब्दुल कलाम युवाओं के आदर्श माने जाते हैं।
आज महिलाएं जीवन के हर क्षेत्र में नये शिखर छू रही हैं। विज्ञान का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। साधारणतया यह माना जाता है कि विज्ञान पुरुषों के वर्चस्व वाला क्षेत्र है और महिलाएं महज कला, संस्कृति और अन्य मानविकी विषयों में ही महारत हासिल कर पाती हैं; परंतु विज्ञान के प्रति अपनी ललक और प्रतिबद्धता से देश की अनेक महिलाओं ने इन वर्जनाओं को तोड़कर एक मिसाल कायम की है। आज हमारे देश की महिला वैज्ञानिक मिसाइल कार्यक्रम से लेकर अंतरिक्ष अभियानों, दवाओं के विकास से लेकर सुदूर अन्वेषण जैसे मोर्चों पर सफलता की नई गाथा लिखते हुए देश-दुनिया की प्रगति व सुरक्षा में अपना अहम योगदान दे रही हैं। प्रस्तुत हैं देश की कुछ जानी-मानी महिला वैज्ञानिकों की प्रेरक उपलब्धियों के बारे में –
टेसी थॉमस
जिस तरह देश को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने से लेकर देसी मिसाइल कार्यक्रम में निर्णायक मोड़ देने वाले ‘मिसाइल-मैन’ अबुल पाकिर जैनुल अब्दीन अब्दुल कलाम यानी एपीजे अब्दुल कलाम युवाओं के आदर्श माने जाते हैं। यही करिश्मा भारत की महिला वैज्ञानिक टेसी थॉमस ने कर दिखाया है। वे भारत की ‘मिसाइल-वुमन’ मानी जाती हैं। देश को मिसाइल तकनीक के क्षेत्र में स्वावलंबी बनाने में उनका उल्लेखनीय योगदान है।वे देश के मिसाइल प्रोजेक्ट की कमान संभालने वाली पहली भारतीय महिला तथा मौजूदा समय में रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) में वैमानिकी प्रणाली की महानिदेशक हैं। अप्रैल 1963 में केरल के अलाप्पुझा में जन्मीं टेसी थामस ने कालीकट यूनिवर्सिटी से बीटेक इलेक्टिकल तथा रक्षा उन्नत प्रौद्योगिकी संस्थान पुणे से गाइडेड मिसाइल्स में एमई तथा इग्नू से आपरेशंस मैनेजमेंट में एमबीए किया है। वर्ष 1988 में वह डीआरडीओ में शामिल हुईं, जहां उन्हें पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम के अधीन कार्य करने का अवसर मिला। वे बैलिस्टिक मिसाइल के बड़े विशेषज्ञों में से एक मानी जाती हैं। मिसाइल गाइडेंस, सिमुलेशन तथा डिजाइन क्षेत्र में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वर्ष 2001 में उन्हें अग्नि आत्मनिर्भरता पुरस्कार तथा लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अवार्ड से भी पुरस्कृत किया जा चुका है।
रितु करिधल
‘रॉकेट वुमन ऑफ इंडिया’ के नाम से प्रसिद्ध रितु करिधल ने भारत की सबसे महत्वाकांक्षी चन्द्र परियोजना चंद्रयान-2 में मिशन निदेशक के रूप में अपनी भूमिका निभायी है। वर्ष 2007 से भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) में कार्यरत रितु भारत के मार्स ऑर्बिटर मिशन- मंगलयान की उप-संचालन निदेशक भी रही हैं । 13 अप्रैल 1975 को लखनऊ के एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मीं एयरोस्पेस इंजीनियर रितु ने लखनऊ विश्वविद्यालय से भौतिकी में बीएससी कर भारतीय विज्ञान संस्थान से एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में एमई की डिग्री प्राप्त की। उन्होंने अंतरिक्ष परियोजनाओं के लिए प्रभावी एवं किफायती तकनीकों को विकसित करने में अहम योगदान दिया है। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने वर्ष 2007 में रितु करिधल को इसरो यंग साइंटिस्ट अवार्ड से सम्मानित किया था। रितु का कहना है कि आमतौर पर ‘मार्स से पुरुषों को और वीनस से महिलाओं’ को जोड़ा जाता रहा है लेकिन मार्स मिशन की सफलता ने इस लोकोक्ति को पूरी तरह बदल दिया और मार्स पर महिलाओं का राज साबित कर दिया है। मिशन की सफलता के बाद प्रसन्न रितु कहती हैं कि मैं एकऐसी सौभाग्यशाली भारतीय महिला हूं जिसे चाँद व तारों की खूबसूरत दुनिया को और करीब से देखने का बेहतर मौका मिला है।
गगनदीप कांग
देश की विख्यात वायरोलॉजिस्ट गगनदीप कांग को भारत की ‘वैक्सीन गॉडमदर’ के रूप में जानी जाती हैं। 3 नवंबर 1962 को शिमला में जन्मीं गगनदीप विज्ञान में उत्कृष्टता को बढ़ावा देने वाले विश्व के सबसे पुराने वैज्ञानिक संस्थान ‘वैज्ञानिक रॉयल सोसाइटी’ द्वारा फेलो के रूप में चुनी जाने वाली पहली भारतीय महिला वैज्ञानिक हैं। उन्होंने 1990 के दशक में भारत में डायरिया जैसे रोगों और पब्लिक हेल्थ पर महत्वपूर्ण कार्य किया था। भारत में रोटा वायरस महामारी पर शोध और उसके लिए बनायी गयी वैक्सीन में उनका सराहनीय योगदान है। रोटा वायरस पर उनके द्वारा किये गए गहन शोध से देश में इस बीमारी की गंभीरता, वायरस की आनुवंशिक विविधता, संक्रमण और टीकों में बेहतरी को बल मिला है। गगनदीप कांग को छोटे बच्चों में एंटरिक संक्रमण की रोकथाम के अनुसंधान के लिए जाना जाता है। रोटावायरस और अन्य संक्रामक रोगों के प्राकृतिक इतिहास को समझने में उनके योगदान के लिए उन्हें 2016 में लाइफ साइंस में प्रतिष्ठित इन्फोसिस पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। गगनदीप विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के दक्षिण पूर्व-एशिया के टीकाकरण तकनीकी सलाहकार समूह के अध्यक्ष हैं। वह भारत में एक मजबूत मानव इम्यूनोलॉजी अनुसंधान का ढांचा विकसित करने की कोशिशों में जुटी हैं।
जानकी अम्मल
4 नवंबर 1897 को केरल के कुन्नूर जिले के तेल्लीचेरी (अब थालास्सेरी) में जन्मीं जानकी अम्मल को भारत की पहली महिला वनस्पति वैज्ञानिक होने का गौरव हासिल है; उनका पूरा नाम एडावलेठ कक्कट जानकी अम्मल था। वे ‘पद्मश्री’ पाने वाली देश की पहली महिला वैज्ञानिक थीं। जानना दिलचस्प हो कि 1920 से पहले भारत में गन्नों का उत्पादन ज्यादा अच्छा नहीं था किन्तु
जानकी अम्मल की अनूठी शोध ने भारतीय गन्नों को मिठास से भर दिया। डॉ. अम्मल की यह शोध भारतीय कृषि के विकास में मील का पत्थर साबित हुई। अमेरिका के मिशिगन विश्वविद्यालय से बॉटनी में एमएससी और पीएचडी की डिग्री हासिल करने वाली डॉ. अम्मल की गन्नों की हाइब्रिड प्रजाति खोज और क्रॉस ब्रीडिंग पर शोध को पूरी दुनिया में मान्यता मिली। बताते चलें कि बॉटेनिकल सर्वे ऑफ इंडिया के निदेशक के पद पर कार्यरत रहीं जानकी अम्मल ढेर सारे फूलों के गुणसूत्रों पर भी महत्वपूर्ण शोध अध्ययन किये। लंदन की रॉयल हॉर्टिकल्चरल सोसायटी में मगनोलिया फूल के क्रोमोजोम पर स्टडी के बाद उनके नाम से ही फूल का नाम ‘मगनोलिया कोबुस जानकी अम्मल’ रख दिया गया। उन्होंने सिर्फ गन्ने और फूलों पर ही नहीं बल्कि बैंगन की नई प्रजाति का भी अविष्कार किया था।
स्वदेश प्रेम उन्हें वापस भारत ले आया। अपने देश वापस आकर वे बम्बई (मुंबई) के विज्ञान संस्थान में जैव-रसायन के क्षेत्र में शोध करने लगीं। इस दौरान उन्होंने ‘नीरा’ नाम के द्रव (ताड़ के पेड़ से उत्पन्न सत्व) के ऊपर उल्लेखनीय काम किया। उन्होंने पता लगाया कि नीरा में विटामिन और आयरन की मात्रा बहुत अधिक होती है, जिसका प्रयोग गर्भवती महिलाओं और शिशुओं के स्वास्थ्य के संरक्षण में किया जा सकता है। दूध को जल्दी दही में जम जाने से रोकने के लिए एक पद्धति विकसित करने के कारण वे राष्ट्रपति पुरस्कार से भी सम्मानित हुईं।
कमला सोहोनी
बीसवीं सदी की दिग्गज भारतीय महिला वैज्ञानिक कमला सोहोनी को प्रत्येक पादप कोशिका में ‘साइटोक्रोम-सी’ नाम के एंजाइम का पता लगाने वाली महत्वपूर्ण शोध के लिए जाना जाता है। नोबुल पुरस्कार विजेता सुप्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक प्रोफेसर सी.वी. रमन की पहली महिला छात्रा रहीं कमला सोहोनी ने नोबेल विजेता फ्रेडरिक हॉपकिंस के साथ भी काम किया था। 14 सितंबर 1912 में इंदौर के समृद्ध व उच्च शिक्षित परिवार में जन्मीं कमला सोहोनी ने 1936 में विज्ञान विषय से परास्नातक की डिग्री विशिष्ट अंकों के साथ हासिल कर कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी से पीएचडी कर सफल वैज्ञानिक के तौर पर शानदार कैरियर भी बनाया किन्तु स्वदेश प्रेम उन्हें वापस भारत ले आया। अपने देश वापस आकर वे बम्बई (मुंबई) के विज्ञान संस्थान में जैव-रसायन के क्षेत्र में शोध करने लगीं। इस दौरान उन्होंने ‘नीरा’ नाम के द्रव (ताड़ के पेड़ से उत्पन्न सत्व) के ऊपर उल्लेखनीय काम किया। उन्होंने पता लगाया कि नीरा में विटामिन और आयरन की मात्रा बहुत अधिक होती है, जिसका प्रयोग गर्भवती महिलाओं और शिशुओं के स्वास्थ्य के संरक्षण में किया जा सकता है। दूध को जल्दी दही में जम जाने से रोकने के लिए एक पद्धति विकसित करने के कारण वे राष्ट्रपति पुरस्कार से भी सम्मानित हुईं।
आनंदीबाई गोपालराव जोशी
जिस दौर में भारत में महिलाओं की शिक्षा किसी सपने से कम नहीं थी, उस दौर में विदेश जाकर डॉक्टर की डिग्री हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला थी आनंदी गोपाल जोशी। उनका जन्म पुणे में 31 मार्च 1865 को हुआ था। महज नौ साल की बाल वय में उनका विवाह अपने से 20 साल बड़े युवक गोपालराव से कर दिया गया। 14 साल की उम्र में वे मां भी बन गयीं किंतु किसी दवा की कमी के कारण 10 दिनों में ही उनके नवजात बेटे की मृत्यु हो गयी। इस घटना ने उनको भीतर तक हिला दिया और उन्होंने दवाओं पर शोध करने का मन बना लिया। उनकी इस इच्छा को जानकर पति ने उनको उच्च शिक्षा दिलायी। उन्होंने वुमंस मेडिकल कॉलेज, पेंसिलवेनिया से मेडिकल पढ़ाई पूरी की। 1886 में मात्र 19 साल की उम्र में एमडी की डिग्री पाकर आनंदीबाई ने भारत पहली भारतीय महिला चिकित्सक बनने का गौरव हासिल किया। किंतु दुर्भाग्य से वे अपने सपने को आगे नहीं जी सकीं। मेडिकल डिग्री के साथ टीबी की बीमारी लेकर आनंदीबाई देश वापस लौटीं पर दो साल तक टीबी से जूझते हुए 22 साल की उम्र में 26 फरवरी 1887 को दुनिया से चली गयीं।
असीमा चटर्जी
23 सितम्बर 1917 में कलकत्ता के एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मीं असीमा चटर्जी देश की उत्कृष्ट कोटि की रसायनशास्त्री मानी जाती हैं। उन्होंने कार्बनिक रसायन यानी ऑर्गेनिक केमिस्ट्री और फाइटोमेडिसिन के क्षेत्र में शानदार उपलब्धियां हासिल की थीं। उन्होंने ‘विन्का एल्कोलाइड्स’ पर उल्लेखनीय शोध कार्य किया था, जिसका उपयोग मौजूदा दौर में कैंसर की दवाएं बनाने में किया जाता है। अपने शोधों के जरिये उन्होंने मिर्गी और मलेरिया जैसी बीमारियों के लिए कारगर नुस्खे विकसित किए, जिन्हें आज भी दवा कंपनियां बेच रही हैं। उन्होंने नेशनल और इंटरनेशनल जर्नल्स में 400 से ज़्यादा रिसर्च पेपर्स भी लिखे। असीमा भारत की पहली महिला वैज्ञानिक थीं जिनको इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन में जनरल प्रेजिडेंट के रूप में इलेक्ट किया गया था। विज्ञान के क्षेत्र में महान योगदान के लिए वर्ष 1962 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उन्हें सी.वी. रमन पुरस्कार से नवाजा। वर्ष 1975 में वे पद्म भूषण से अलंकृत हुईं तथा वर्ष 1982 से 1990 तक राज्यसभा के लिए नामित हुईं । भारत की यह वैज्ञानिक विभूति भले ही 22 नवंबर वर्ष 2006 को दुनिया से चली गयी हो पर मिर्गी व मलेरिया पर उनके फॉर्मूले पर बनी दवाएं आज भी चिकित्सा क्षेत्र में बेहद कारगर साबित हो रही हैं।
अन्ना मणि
भारत की ‘वेदर वुमन’ के नाम से विख्यात अन्ना मणि की मौसम के पूर्वानुमान की भविष्यवाणी सदैव सटीक रहती थी। बीती सदी में अन्ना मणि के मार्गदर्शन में ही उस कार्यक्रम का निर्माण संभव हुआ, जिसके चलते भारत मौसम विज्ञान के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सका। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में, जहां मानसून को भारत का ‘वित्त मंत्री’ कहा जाता है, वहां फसलों के लिए मौसमी पूर्वानुमान कितना महत्वपूर्ण है, यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है। बीसवीं सदी की इस उच्च कोटि की भौतिकशास्त्री का विज्ञान की दुनिया में योगदान किसी मणि से कम नहीं था। आठ साल की उम्र में उपहार में एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका मांगने वाली त्रावणकोर के एक संपन्न परिवार में 23 अगस्त, 1918 को जन्मीं अन्ना मणि ने वर्ष 1930 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त वाले भारतीय वैज्ञानिक डॉ. सीवी रमन के साथ मिलकर काम किया था; किन्तु डॉ. रमन के विषय में तो लोग काफी कुछ जानते हैं पर अन्ना को नहीं। भारत के मौसम विभाग के उप-निदेशक के पद पर रहीं अन्ना मणि ने मौसम विज्ञान उपकरणों के क्षेत्र में काफी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। सौर विकिरण, ओज़ोन और पवन ऊर्जा माप के विषय में उनके अनुसंधान कार्य खासे महत्वपूर्ण हैं।
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