भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति संग्राम में देवभूमि उत्तराखण्ड से लड़ने वाले रणबांकुरों की कभी कमी नहीं रही। स्वाधीनता की लड़ाई के दौर में पंडित हर्षदेव ओली के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने ब्रिटिश हुकूमत के छक्के छुड़ा दिए थे। फिरंगी सरकार पंडित हर्षदेव के नाम से थर्राती थी। उन्होंने विदेशी सामान जलाकर स्वाधीनता आंदोलन में खेतीखान से आहुति दी थी। स्वतंत्रता संग्राम के समय पंडित हर्षदेव ओली को काली कुमाऊं के बब्बर शेर की उपाधि मिली थी। राष्ट्रीय विचारों को फैलाने व स्वाधीनता आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने वाले प्रख्यात राष्ट्रभक्त और स्वाधीनता संग्राम के नेतृत्वकर्ता और अंग्रेज उन्हें मुसोलिनी कहा करते थे। वह उत्तराखण्ड में पर्वतीय क्षेत्रों के जंगलों और खुफिया जगहों में आजादी के लिए लोगों को प्रेरित करते थे। वर्तमान में भी सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में उनकी वीरता के अनेकों किस्से सुनाए जाते हैं।
भारत के स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम के सेनानी हर्षदेव ओली जन्म देवभूमि उत्तराखण्ड के ग्राम गौशनी, खेतिखान, चम्पावत में 4 मार्च सन 1890 को हुआ था। उनकी प्रारम्भिक प्राथमिक शिक्षा घर पर ही हुई थी, तत्कालीन समय उस दुर्गम क्षेत्र में कोई स्कूल नहीं था। कुछ समय पश्चात स्वजनों ने उन्हें पढ़ाई के लिए अल्मोड़ा भेज दिया था। दुर्भाग्यवश 11 वर्ष की उम्र में इनके पिता का देहांत हो गया था। पिता के देहांत के पश्चात इनके समक्ष विपत्ति का पहाड़ खड़ा हो गया था। अल्मोड़ा में अध्ययन करने के बाद वह वापस खेतीखान लौट आए थे। इस मध्य उनका अद्वैत आश्रम मायावती में आना-जाना शुरू हो गया था। यहीं से उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। यहां देश-विदेश के संन्यासियों से उन्होंने न केवल अंग्रेजी में बोलना सीखा बल्कि अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ भी बना ली थी। अंग्रेजों के खिलाफ स्वतन्त्रता आंदोलन में अंग्रेजी भाषा भी उनके लिए सहायक बनी थी। अद्वैत आश्रम में उन्होंने ‘प्रबुद्ध भारत’ के प्रकाशन के लिए कार्य किया था। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने रैमजे कॉलेज अल्मोड़ा में प्रवेश लिया था। सन 1905 में बंगाल विभाजन हो गया और स्वदेशी ने जोर पकड़ लिया था। राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभाव में हर्षदेव ओली ने कॉलेज छोड़ दिया और राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े। पत्रकारिता को उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र बनाया।
हर्षदेव ओली सन 1914 में आईटीडी प्रेस के प्रबन्ध निदेशक नियुक्त हुए। सन 1916 में लखनऊ अधिवेशन के समय पं. मोतीलाल नेहरू के सम्पर्क में आए। सन 1919 में जलियावाला बाग हत्याकांड के विरोध में चले असहयोग आंदोलन में शामिल होकर उन्होंने पहाड़ में अलख जगाने का काम किया था। 5 फरवरी सन 1919 को मोतीलाल नेहरू ने अंग्रेजी भाषा के समाचार पत्र ‘इंडिपेंडेंट’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया था। समाचार पत्र के सम्पादक सीएस रंगायर और उप-सम्पादक हर्षदेव ओली नियुक्त हुए थे। 27 जुलाई सन 1920 को रंगायर के गिरफ्तार हो जाने पर हर्षदेव ओली ने सम्पादक का कार्यभार सम्भाला था। मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू की गिरफ्तारी से अखबार विपत्तियों में फंस गया और अन्ततः दिसम्बर सन 1921 में बन्द हो गया। सन 1923 में हर्षदेव मोतीलाल नेहरू के साथ नाभा स्टेट चले गए थे। नाभा स्टेट के राजा रिपुदमन सिंह ने उन्हें अपना सलाहकार नियुक्त किया था। हर्षदेव ओली ने राजा रिपुदमन सिंह और उनके राष्ट्रवादी विचारों का समर्थन करने के लिए बहुत मेहनत की थी। जब वह नाभा स्टेट में काम कर रहे थे, तब उन्हें और जवाहरलाल नेहरू को इस आरोप में गिरफ़्तार किया गया था कि वह राजा रिपुदमन सिंह की अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध मदद करने के लिए काम कर रहे थे। जेल से रिहाई के पश्चात हर्षदेव ओली ने उत्तराखण्ड कुमाऊँ के जंगल आंदोलन में शामिल होने के लिए नाभा राज्य छोड़ दिया। आन्दोलन में उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।
सन 1923 से सन 1930 तक हर्षदेव ओली ने स्वदेशी के आदर्शों का प्रचार करने के लिए सम्पूर्ण कुमाऊँ की यात्रा की थी। जनता के बीच जाकर उन्होंने अंग्रेजों की साम्राज्यवादी व शोषण की नीति समझाई और गुमदेश की पत्थर खदानों को कर से मुक्त कराया। सन 1924 में गठित ‘फॉरेस्ट कमेटी के वह उपाध्यक्ष नियुक्त किए गए थे। सन 1930 के नमक सत्याग्रह आंदोलन ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया था, काली कुमाऊँ में भी नमक आन्दोलन काफी लोकप्रिय हो चुका था। उस समय हर्षदेव ओली की लोकप्रियता का यह आलम था कि जनता इनके एक इशारे पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार रहती थी। 9 अगस्त सन 1930 को वह देवीधुरा मेले में पहुंचे तो उनके स्वागत और उनकी बात सुनने के लिए भारी संख्या भीड़ एकत्र हुई थी। अपने संबोधन में उन्होंने निडर होकर अंग्रेजी सरकार की निंदा की, लेकिन अंग्रेज अधिकारी उन्हें गिरफ़्तार नहीं कर सके क्योंकि उन्हें जनता की प्रतिक्रिया का डर था। अंतत: 12 अगस्त सन 1930 को पुलिस ने उनके घर पर छापा मारा और उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। काली कुमाऊँ में यह खबर जंगल की आग की तरह हर जगह फ़ैल गई। उनकी गिरफ्तारी से नाराज हथियारों से लैस 30,000 हजार लोगों की भीड़ ने तहसील कार्यालय को घेर लिया था, उनके भाषण के बाद ही जनता शान्त हुई थी। उनको छह मास का कठोर कारावास हुआ। मार्च सन 1931 में गांधी-इरविन समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद, महात्मा गांधी द्वारा सत्याग्रह अभियान को छोड़ने का वचन दिया गया। अतः लॉर्ड इरविन कैद किए गए लोगों को रिहा करने के लिए सहमत हुए और इस प्रकार हर्षदेव ओली को मुक्त कर दिया गया। सन 1932 में उन पर फिर से जुर्माना लगाया गया और सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय उन्हें छह महीने के लिए पुन: कैद कर लिया गया था। इस समय उनकी माता का देहान्त हो गया तो उन्हें क्रिया–कर्म के लिए पैरोल पर छोड़ा गया और पुनः बरेली जेल भेज दिया गया।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपने योगदान के साथ-साथ हर्षदेव ओली को उस समयकाल में मौजूद सामाजिक बुराइयों को मिटाने में मदद करने के लिए भी जाना जाता है। पिथौरागढ़ के ग्राम लेलू, चौपखिया, सिंचौड़, नैनी तथा काली कुमाऊँ के ग्राम खिलपति, गुमदेश तथा रौलमेल में नायक जाति के लोग कुप्रथा के कारण अपनी कन्याओं से वेश्यावृत्ति करने को मजबूर करते थे। हर्षदेव ओली ने नारायण स्वामी के साथ मिलकर समाज में जनजागृति अभियान शुरू किया और नायक प्रथा निवारण कानून सन 1934 विधेयक कौंसिल से पास करवाया था। कुली उतार, कुली बेगार व कुली बर्दायश प्रथा को तोड़ने में इन्होंने बद्रीदत्त पाण्डे के साथ काम किया था। सन 1923 से सन 1940 की अवधि में हर्षदेव कुमाऊँ के सभी सामाजिक और राष्ट्रवादी आन्दोलनों से जुड़े रहे। उन्होंने लोहाघाट में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र खुलवाया था, चल्थी पुल के निर्माण में योगदान किया था। गवर्नर हेलेट से मिलकर उन्होंने लखनऊ–ल्हासा मार्ग का विचार प्रस्तुत किया था। तराई में बसे थारूओं के लिए उन्होंने बहुत कार्य किया था। हर्षदेव ओली का तत्कालीन समय के सभी नेताओं से अच्छा सम्पर्क था। वह लीडर, हिन्दुस्तान टाइम्स, आज समाचार पत्रों के भी संवाददाता रहे। स्टेट्समैन के संपादक आर्थर मूर से इनके बेहद अच्छे सम्बन्ध थे। सन 1934 में लाल बहादुर शास्त्री आठ दिन इनके साथ गोशनी गांव में रहे थे। 5 जून सन 1940 को नैनीताल में उनका निधन हो गया था। यद्यपि हर्षदेव ओली और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनके अथक प्रयासों के बहुत कम अभिलेख हैं, लेकिन उनके सम्मान में खेतिखान में एक योद्धा उद्यान अर्थात सेनानी पार्क विद्यमान है।
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