वास्तव में यह लगभग 110 वर्ष पुराना मामला है। एक जानकारी के अनुसार जब दिल्ली को राजधानी बनाया गया था, उस समय इन सारी संपत्तियों का अधिग्रहण किया गया था। इसके लिए आवश्यक प्रक्रिया अपनाई गई थी, लेकिन बाद में इन संपत्तियों पर वक्फ बोर्ड ने दावा कर दिया। यही नहीं, 1970 में दिल्ली वक्फ बोर्ड ने इन संपत्तियों को एकतरफा वक्फ संपत्ति घोषित कर दिया।
भारत सरकार ने दिल्ली के कुछ प्रमुख स्थानों पर स्थित 123 संपत्तियों को वक्फ बोर्ड की संपत्ति नहीं माना है। यानी अब ये संपत्तियां पूरी तरह केंद्र सरकार के अधीन ही रहेंगी। हालांकि दिल्ली वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष अमानतुल्लाह खान ने इसका विरोध किया है। दिल्ली वक्फ बोर्ट ने इसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी है। वहीं विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्याध्यक्ष आलोक कुमार का कहना है कि केंद्र सरकार ने इन संपत्तियों को लेकर जो इच्छाशक्ति दिखाई है, वह अभूतपूर्व है।
इन 123 संपत्तियों में कुछ संपत्तियां तो अति संवेदनशील स्थानों पर हैं, कुछ खंडहर में बदल गई हैं, लेकिन अधिकांश संपत्तियों पर व्यावसायिक गतिविधियां चल रही हैं। एक तरह से इन संपत्तियों पर कुछ प्रभावशाली लोगों का कब्जा है।
उल्लेखनीय है कि केंद्रीय आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय से जुड़े उप भूमि और विकास अधिकारी (डी.एल.डी.ओ.) ने 8 फरवरी को दिल्ली वक्फ बोर्ड को एक पत्र लिखकर बताया कि 123 संपत्तियां केंद्र सरकार की हैं और सरकार ने इन्हें कब्जे में लेने का निर्णय लिया है। डी.एल.डी.ओ. ने उक्त पत्र में कहा है कि सेवानिवृत्त न्यायाधीश एस.पी. गर्ग की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय समिति ने अपनी रपट में लिखा है कि उसे गैर-अधिसूचित वक्फ संपत्तियों को लेकर दिल्ली वक्फ बोर्ड की ओर से कोई आपत्ति नहीं मिली। इस समिति में पूर्व एसडीएम राधा चरण भी शामिल हैं। फरवरी, 2022 में समिति का गठन हुआ था। इस समिति ने इन संपत्तियों पर दिल्ली वक्फ बोर्ड के दावे की जांच की। समिति ने वक्फ बोर्ड को कई बार बुलाया और अपना पक्ष रखने को कहा, लेकिन वक्फ बोर्ड ने न तो कोई जवाब दिया और न ही उसका कोई प्रतिनिधि समिति के सामने हाजिर हुआ। इसके बाद समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। उसी रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने उपरोक्त निर्णय लिया है।
पुराना विवाद
वास्तव में यह लगभग 110 वर्ष पुराना मामला है। एक जानकारी के अनुसार जब दिल्ली को राजधानी बनाया गया था, उस समय इन सारी संपत्तियों का अधिग्रहण किया गया था। इसके लिए आवश्यक प्रक्रिया अपनाई गई थी, लेकिन बाद में इन संपत्तियों पर वक्फ बोर्ड ने दावा कर दिया। यही नहीं, 1970 में दिल्ली वक्फ बोर्ड ने इन संपत्तियों को एकतरफा वक्फ संपत्ति घोषित कर दिया। दिल्ली वक्फ बोर्ड की इस हरकत का तत्कालीन भारत सरकार ने विरोध किया। सरकार ने इन सभी संपत्तियों के लिए अलग-अलग नोटिस जारी किया। इसके साथ ही सरकार ने दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) से कहा कि वह इन संपत्तियों का सर्वेक्षण करे। इसके बाद डीडीए के अधिकारियों ने जगह-जगह जाकर इनका सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण में पाया गया कि इन संपत्तियों को न तो ‘वक्फ’ किया गया था और न ही उनके लिए कोई ‘वाकिफ’ नियुक्त किया गया था। डीडीए ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, ‘‘इन संपत्तियों पर तथाकथित वक्फ या वाकिफ का वास्तविक कब्जा नहीं था।’’ यह भी लिखा है, ‘‘इनमें से किसी भी संपत्ति में कोई मस्जिद, मकबरा या कब्रिस्तान था ही नहीं।’’
यही नहीं, वक्फ बोर्ड के दावे के विरुद्ध सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय में 123 अलग-अलग मुकदमे भी दायर किए। सरकार ने न्यायालय को बताया कि ये संपत्तियां उसके द्वारा 1911-15 में अधिग्रहित की गई थी। बाद में कुछ संपत्तियों को दिल्ली डीडीए को हस्तांतरित कर दिया गया था, लेकिन वे कभी भी दिल्ली वक्फ बोर्ड से संबंधित नहीं रही हैं।
वर्तमान में इन 123 संपत्तियों में से 61 का स्वामित्व शहरी विकास मंत्रालय के तहत भूमि और विकास कार्यालय के पास है, जबकि शेष दिल्ली विकास प्राधिकरण के पास हैं। इनमें से अधिकतर संपत्तियां कनॉट प्लेस, मथुरा रोड, लोधी रोड, मान सिंह रोड, पंडारा रोड, अशोक रोड, जनपथ, संसद भवन, करोल बाग, सदर बाजार, दरियागंज और जंगपुरा के आसपास हैं। इनका क्षेत्रफल लगभग 1,360 एकड़ है और इनकी कीमत 20 हजार करोड़ रु. से अधिक है।
40 वर्ष तक लड़ी विहिप
दिल्ली की इन 123 संपत्तियों को वक्फ से बचाने के लिए विश्व हिंदू परिषद ने लगभग 40 वर्ष तक न्यायालय में मुकदमा लड़ा। उसने इस मामले में भारत सरकार द्वारा उठाए गए हर कदम का जमकर विरोध भी किया। वर्तमान में विहिप के कार्याध्यक्ष आलोक कुमार एक अधिवक्ता के नाते इस मामले से शुरू से जुड़े रहे हैं। सरकार के निर्णय से वे खुश होकर कहते हैं कि सरकार ने 123 संपत्तियों पर जो निर्णय लिया है, वह बहुत अच्छा है। विहिप इस निर्णय का स्वागत करती है।
संप्रग सरकार की शरारत
विश्व हिंदू परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता विनोद बंसल कहते हैं, ‘‘इन संपत्तियों को लेकर एक समय तो भारत सरकार मुकदमा लड़ती रही, लेकिन बाद में इस पर उसका रवैया बदल गया। अभी न्यायालय में मुकदमा चल ही रहा था कि मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए 1974 में भारत सरकार ने इन संपत्तियों पर एक उच्चाधिकार समिति बना दी।’’ इस समिति के अध्यक्ष दिल्ली वक्फ बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष एस.एम.एच. बर्नी को बनाया गया। विनोद बंसल मानते हैं, ‘‘जो दिल्ली वक्फ बोर्ड इन संपत्तियों पर दावा करता था, उसके अध्यक्ष को ही यह तय करने का अधिकार दिया गया कि ये संपत्तियां किसकी हैं।
यानी सरकार ने बिल्ली को ही दूध की रखवाली की जिम्मेदारी दे दी। इस कारण वही हुआ, जो वक्फ बोर्ड चाहता था।’’ बर्नी समिति ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, ‘‘ये संपत्तियां वक्फ संपत्ति के रूप में कार्य कर रही हैं।’’ इसके साथ ही बर्नी समिति ने इन संपत्तियों को वक्फ संपत्ति घोषित करने की सिफारिश की। इन संपत्तियों में एक उपराष्ट्रपति आवास के परिसर में है और दूसरी वायरलेस स्टेशन के अंदर। बर्नी समिति ने इन दोनों के लिए अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इन दोनों स्थानों पर समिति के सदस्यों को जाने की अनुमति नहीं मिली। इसके बाद भारत सरकार ने फौरन बर्नी समिति की सिफारिश को मान लिया और ये सारी संपत्तियां दिल्ली वक्फ बोर्ड को पट्टे पर देने का निर्णय ले लिया।
27 मार्च, 1984 को भारत सरकार ने एक आदेश (जे 20011/4/74.1-2) जारी किया। उसमें कहा गया है, ‘‘ये सारी संपत्तियां सालाना एक रुपए प्रति एकड़ की दर से वक्फ बोर्ड को पट्टे पर दी जाती हैं।’’ इंद्रप्रस्थ विश्व हिंदू परिषद ने भारत सरकार के इस निर्णय का जबर्दस्त विरोध किया। उसी वर्ष इंद्रप्रस्थ विश्व हिंदू परिषद ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर (1512) कर कहा कि भारत सरकार ने गलत ढंग से अरबों की संपत्ति दिल्ली वक्फ बोर्ड को दी है। याचिका की पहली सुनवाई में ही उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार के निर्णय पर रोक लगा दी। उस याचिका के विरोध में केंद्र सरकार ने न्यायालय में जो दलील दी, वह चकित कर देने वाली है। सरकार ने कहा, ‘‘ये सभी संपत्तियां भारत सरकार की हैं। इन संपत्तियों को किसी अन्य विभाग या संगठन को दिए जाने के बारे में कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं है।…’’
यह मामला कई वर्ष तक उच्च न्यायालय में चला। न्यायालय ने बार-बार सरकार से पूछा कि उसने किस आधार पर ये संपत्तियां वक्फ बोर्ड को देने का निर्णय लिया है? क्या इस पर कोई नीति बनाई गई है? इस पर 29 अगस्त, 2005 को महाधिवक्ता ने न्यायालय से नीति बनाने के लिए छह महीने का समय मांगा। न्यायालय ने छह महीने का समय भी दे दिया, लेकिन सरकार छह साल तक सोती रही। बाद में विहिप ने फिर न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
इसके बाद 12 फरवरी, 2011 को उच्च न्यायालय ने इस मामले को यह कहते हुए खारिज कर दिया, ‘‘सरकार इस मामले को नए तरीके से देखकर नीति बनाए और छह महीने में इस काम को पूरा करे।’’ लेकिन तय छह महीने में सरकार कोई नीति नहीं ला पाई। इसके बाद अदालत ने 5 सितंबर, 2011 तक की तारीख देते हुए निर्देश दिया, ‘‘सरकार इस आदेश का पालन करते हुए नीति तय करे और उसकी एक प्रति याचिकाकर्ता के वकील को भी दे।’’ लेकिन दुर्भाग्य से केंद्र सरकार ने फिर कोई नीति नहीं बनाई। उलटे भारत सरकार ने भूमि अधिग्रहण से संबंधित 2013 के एक कानून की धारा 93 (1) का हवाला देते हुए इन संपत्तियों से अपना कब्जा वापस ले लिया।
यह धारा कहती है, ‘‘संबंधित सरकार को ऐसे किसी भी भूखंड के अधिग्रहण को वापस लेने का अधिकार है, जिसका कब्जा अभी तक नहीं लिया गया हो।’’ इसके बाद 2014 में 16वीं लोकसभा के चुनाव की घोषणा होने के बाद सोनिया-मनमोहन सरकार ने 5 मार्च, 2014 (बुधवार) को एक राजपत्र (566) जारी कर 123 संपत्तियों को दिल्ली वक्फ बोर्ड को सौंप दिया।
चुनाव आयोग से शिकायत
विश्व हिंदू परिषद ने एक बार फिर सरकार के इस निर्णय का विरोध किया। विहिप के तत्कालीन महामंत्री चंपत राय के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल 18 मार्च, 2014 को मुख्य चुनाव आयुक्त से मिला और उन्हें एक पत्र सौंपा। उस पत्र के पैरा 11 में लिखा गया है, ‘‘यह बड़ा आश्चर्यजनक है कि लगभग एक शताब्दी पूर्व अधिग्रहित की गई संपत्तियों का कब्जा लेने में सरकार विफल रही। और उसने एक ही झटके में माननीय न्यायालय में दाखिल अपने वक्तव्य या कानूनी कार्रवाइयों और शपथपत्रों को नकार दिया।’’ विहिप ने चुनाव आयोग से यह भी कहा कि सरकार ने अल्पसंख्यकों के नाम पर अरबों की संपत्ति थाली में परोस कर उन्हें दे दी। इसके बाद चुनाव आयोग ने सरकार के आदेश को खारिज कर दिया।
इस तरह यह मामला उस समय रुक गया। बाद में मई, 2014 में केंद्र सरकार बदल गई। नरेंद्र मादी प्रधानमंत्री बने। इसके बाद विश्व हिंदू परिषद ने एक बार फिर से इस मामले को सरकार के समक्ष उठाया। तत्कालीन शहरी विकास मंत्री वेकैंया नायडू से विहिप के प्रतिनिधिमंडल ने भेंट कर उनसे इस मामले को लेकर बात की। इसके बाद सरकारी स्तर पर कुछ गतिविधियां होती रहीं। वहीं, कुछ अन्य संगठन भी इस मांग को लेकर न्यायालय पहुंचे कि इन संपत्तियों पर सरकार कब्जा करे। एक ऐसा ही मामला अभी भी न्यायालय में चल रहा है।
अब केंद्र सरकार ने गर्ग समिति की रिपोर्ट के आधार पर इन संपत्तियों को अपने पास ही रखने का निर्णय लिया है। इसके बाद कुछ मुस्लिम संगठन और सेकुलर जमात के लोग इससे जुड़े तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत कर रहे हैं। कुछ लोग मुस्लिम समाज को भड़काने वाले बयान दे रहे हैं। सरकार के सामने यही बड़ी चुनौती है।
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