जॉर्ज सोरोस की बातों को बंदर घुड़की मात्र समझना बड़ी भूल होगी। उसने भारत के विरुद्ध जो छद्म युद्ध छेड़ रखा है, उसकी गंभीरता का सही आकलन आवश्यक है।
अमेरिका में बैठा 92 वर्षीय अरबपति जॉर्ज सोरोस क्या भारत के लिए चुनौती बन सकता है? यदि हां, तो क्यों और कैसे? भारत और भारतीयों ने उसका क्या बिगाड़ा है? यह प्रश्न बहुत लोगों के मन में है। कुछ सप्ताह पहले तक भारत में उसका नाम संभवत: बहुत कम लोग जानते थे। लेकिन म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में सोरोस ने जो कुछ कहा, उसके बाद वह चर्चा में है। सोरोस ने कहा, ‘‘अडाणी समूह में पैदा संकट से भारत में लोकतांत्रिक पुनरुद्धार का रास्ता खुल सकता है।’’ उसने यह जताने का प्रयास किया कि भारत में नरेंद्र मोदी सरकार इसलिए सत्ता में है, क्योंकि उसे अडाणी समूह का समर्थन है। सोरोस चाहता है कि मोदी सरकार को हटाकर भारत में उसके हितों और पसंद के अनुरूप किसी राजनीतिक दल को सत्ता में लाया जाना चाहिए। उसके अनुसार ऐसा करने पर ही भारत में लोकतंत्र बच सकता है। सोरोस की इन बातों में कुछ नया नहीं है। यह वही भाषा है जो भारत में विपक्ष के कुछ दल और नेता बोलते रहते हैं। लेकिन सोरोस के साथ उनका वैचारिक तालमेल संयोग मात्र है या इससे भी कुछ बढ़कर है?
सोरोस की संदिग्ध गतिविधियां
ऐसा पहली बार नहीं है, जब जॉर्ज सोरोस ने भारत को लेकर ऐसी बात कही है। जनवरी 2020 में उसने दावोस में विश्व आर्थिक मंच की बैठक में कहा था, ‘‘नरेंद्र मोदी की सरकार भारत को हिंदू राष्ट्र बना रही है। वह जम्मू-कश्मीर में मुसलमानों को उनकी नागरिकता से वंचित करने का प्रयास कर रही है।’’ उसी समय उसने भारत में नरेंद्र मोदी और ऐसी अन्य राष्ट्रवादी सरकारों को सत्ता से हटाने के लिए 100 करोड़ अमेरिकी डॉलर देने की घोषणा की थी। सोरोस भारत में काफी पहले से सक्रिय है। मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल के समय वह भारत में अपना तंत्र स्थापित कर चुका था।
उस दौरान भारत में ढेरों ऐसी संस्थाएं खड़ी की गईं, जिन पर सोरोस के लिए काम करने के आरोप लगते रहे हैं। जून 2016 में केंद्र सरकार ने सोरोस की संस्था ‘ओपन सोसाइटी फॉउंडेशन’ को निगरानी सूची में डाल दिया। यह उसी तरह था मानो किसी ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया हो। इससे भारत में बैठे सोरोस के लोगों को धन प्राप्त करने में समस्या होने लगी। यही समय था जब ‘असहिष्णुता’, ‘मुस्लिम डरे हुए हैं’ और ‘मॉब लिंचिंग’ जैसे मनगढ़ंत मुद्दों पर सरकार और समाज को कलंकित करने के प्रयास चरम पर थे।
2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले राफेल लड़ाकू विमान सौदे के विरुद्ध फ्रांस के न्यायालयों में याचिकाएं डाली गई थीं। ये याचिकाएं ‘शेरपा’ नाम के एक एनजीओ ने डाली थीं, जिसके जॉर्ज सोरोस के साथ सीधे संबंध हैं। अब 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले जब हिंडनबर्ग और बीबीसी डॉक्यूमेंट्री जैसे षड्यंत्र सामने आ रहे हैं तो स्वाभाविक रूप से संदेह सोरोस पर ही है। इस संदेह के समर्थन में ढेरों साक्ष्य भी हैं।
इन्हें बनाया शिकार
- 1992 में मुद्रा बाजार में मुनाफा वसूली कर बैंक आफ इंग्लैंड को संकट में डाला।
- 1997 में थाईलैंड, इंडोनेशिया, मलेशिया जैसे एशियाई देशों में आर्थिक संकट के पीछे भूमिका।
- 2016 में हिलेरी क्लिंटन के चुनाव प्रचार अभियान में भारी भरकम राशि खर्च की।
- पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय दुष्प्रचार में सोरोस की बड़ी भूमिका।
- मध्य और पूर्वी यूरोप के कई देशों ने जॉर्ज सोरोस के विरुद्ध कानून बनाए हैं।
- रूस ने जॉर्ज सोरोस को आतंकवादी घोषित किया है।
- यूक्रेन की मौजूदा कठपुतली सरकार के पीछे वही है। उसने 2014-15 में हिंसक प्रदर्शनों के जरिये सत्ता परिवर्तन कराया।
- अडाणी समूह के विरुद्ध हिंडनबर्ग की रिपोर्ट को भी जॉर्ज सोरोस से जोड़कर देखा जा रहा है।
राष्ट्रवाद का स्वघोषित शत्रु
सोरोस भारत ही नहीं, अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और यहां तक कि चीन में भी सत्ता परिवर्तन के प्रयास करता रहा है। जिस देश हंगरी में वह पैदा हुआ, वहां की सरकार ने कानून बनाकर उस पर प्रतिबंध लगा रखा है। सोरोस स्वयं को राष्ट्रवाद का शत्रु बताता है और कहता है कि इससे लोकतंत्र को खतरा है। वास्तव में वह पूंजीवाद, वामपंथ और अब्राहमिक विचारधाराओं का एक ‘कॉकटेल’ है। यह बात हम इस आधार पर कह सकते हैं कि अपने विध्वंसक अभियानों में वह समय-समय पर इनकी सहायता लेता है। उसका एकमात्र उद्देश्य विश्व पर अपना नियंत्रण स्थापित करना है।
वह कई देशों में सफल भी रहा है। बीते एक दशक में भारत जिस गति से विश्व पटल पर उभरा है, उससे कई अंतरराष्ट्रीय शक्तियां स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रही हैं। इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि सोरोस इनमें से किसी के लिए काम कर रहा हो। ये शक्तियां भारत में अपनी कठपुतली सरकार चाहती हैं। सोरोस एक ऐसे अभिजात्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जो यह मानता है कि दुनिया कैसे चले, यह तय करने का अधिकार उन्हें ही है। सरकारों की जवाबदेही तय करने के नाम पर वे ऐसी संस्थाएं पैदा कर रहे हैं, जिनका काम दबाव बनाकर नीतियों और निर्णयों को अपनी इच्छा के अनुसार प्रभावित करना है।
कौन है जॉर्ज सोरोस?
जॉर्ज सोरोस अमेरिका का रहने वाला है। उसका जन्म 12 अगस्त, 1930 में हंगरी में एक यहूदी परिवार में हुआ था। हंगरी ने उसे ‘शत्रु’ घोषित किया है। सोरोस स्वयं को निवेशक और समाजसेवी बताता है। मार्च 2021 में उसकी निजी संपत्ति 8.6 अरब अमेरिकी डॉलर थी। सोरोस का दावा है कि उसने 32 अरब डॉलर दान दिए हैं।
भारत में मकड़जाल
जॉर्ज सोरोस की संस्था ऐसे लोगों और संगठनों को पैसे देती है, जो उसके एजेंडे पर काम करें। खोजी पत्रकारिता करने वाली ‘डिसइन्फोलैब’ (thedisinfolab.org) ने ऐसे कई चेहरों को उजागर किया है, जो सोरोस से उपकृत हुए हैं। इसमें खालिद बेदौन नाम का एक अमेरिकी एक्टिविस्ट भी है जो सोशल मीडिया पर हिंदुओं के विरुद्ध विषवमन के लिए कुख्यात है। 2019 तक इसने भारत या कश्मीर के बारे में कभी एक शब्द भी नहीं बोला था। 2018 में सोरोस की संस्था ने उसे फेलोशिप दी और खालिद रातों-रात भारत और कश्मीर मामलों का विशेषज्ञ बन गया। ‘भारत में मुसलमानों का नरसंहार’ और ‘इस्लामोफोबिया’ जैसे दुष्प्रचार में उसकी बड़ी भूमिका रही है। विदेशों में उसके जैसे ढेरों प्रोफेसर और संस्थाएं खड़ी की गई, जिनका एकमात्र काम भारत और हिंदू धर्म के विरुद्ध बोलना है। यही तंत्र भारत में होने वाली अपराध की हर छोटी-बड़ी घटना को अंतरराष्ट्रीय पटल पर उछालने और उसके आधार पर भारत और हिंदू विरोधी विमर्श खड़ा करता है। इस काम के लिए ढेरों वकील, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता पैदा किए गए। मई 2022 में राहुल गांधी ने कैम्ब्रिज में जो भाषण दिया था, वह कार्यक्रम भी सोरोस से जुड़ी संस्था द्वारा आयोजित किया गया था।
फैक्ट चेक के नाम पर झूठ का धंधा
बीते कुछ वर्षों में भारत और विश्व भर के मीडिया संस्थानों में फेक न्यूज का जो धंधा तेजी से फैला है, उसके पीछे भी सोरोस द्वारा वित्तपोषित संस्थाओं का हाथ सामने आ चुका है। पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट ओस्लो (पीआरआईओ) और इंटरनेशनल फैक्ट-चेकिंग नेटवर्क (आईएफसीएन) चलाने वाले पॉएंटर इंस्टीट्यूट फॉर मीडिया स्टडीज को ओपन सोसाइटी फाउंडेशन पैसे देता रहा है। इन दोनों संगठनों ने भारत में प्रोपगेंडा फैलाने के लिए आल्ट न्यूज जैसी वेबसाइट्स की भरपूर सहायता की। इनके माध्यम से सोशल मीडिया पर अधिकृत फैक्ट चेक की प्रणाली शुरू की गई, जिनका एकमात्र उद्देश्य उन सूचनाओं को दबाना था, ताकि जॉर्ज सोरोस और उसके हितैषियों के नेटवर्क का सच सामने न आए।
भारत के लिए क्या है सबक?
जॉर्ज सोरोस की बातों को बंदर घुड़की मात्र समझना बड़ी भूल होगी। उसने भारत के विरुद्ध जो छद्म युद्ध छेड़ रखा है, उसकी गंभीरता का सही आकलन आवश्यक है। 1991 में आर्थिक उदारीकरण आरंभ होने के साथ ही यह आशंका जताई गई थी कि आगे चलकर ईस्ट इंडिया कंपनी जैसी कोई विदेशी शक्ति भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की कोशिश कर सकती है। अमेजन, गूगल और ट्विटर के उदाहरण हम देख चुके हैं। जॉर्ज सोरोस भी उसी शृंखला की एक कड़ी है। अंतरराष्ट्रीय वामपंथी नेटवर्क और पश्चिमी देशों से जुड़े मजहबी संगठन पारंपरिक रूप से भारत के शत्रु समझे जाते हैं, लेकिन सोरोस ऐसा शत्रु है जो अधिकांश हमले छिपकर करता है। आवश्यकता इस बात की है कि जॉर्ज सोरोस जैसे शत्रुओं और भारत में उसके सहयोगियों की पहचान की जाए और उनके साथ वही व्यवहार हो जो राष्ट्र के शत्रुओं के साथ होता है।
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