संघ विचारधारा के एक मृदुभाषी अनुशासित सैनिक होने के नाते, उन्हें जो भी जिम्मेदारी सौंपी जाती थी, उसे वह सहर्ष स्वीकार कर लेते थे। मूल रूप से वे एक शिक्षक और कार्यकर्ता थे, जिन्होंने लगभग दो दशक तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में भी काम किया था।
प्रो. ओम प्रकाश कोहली उन दुर्लभ राजनीतिक नेताओं में से थे, जिन्हें राजनीति से भ्रष्टाचार रत्ती भर भी स्पर्श नहीं कर सका था। वे सिद्धांतों को जीने वाले व्यक्ति थे, जो सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास रखते थे।
संघ विचारधारा के एक मृदुभाषी अनुशासित सैनिक होने के नाते, उन्हें जो भी जिम्मेदारी सौंपी जाती थी, उसे वह सहर्ष स्वीकार कर लेते थे। मूल रूप से वे एक शिक्षक और कार्यकर्ता थे, जिन्होंने लगभग दो दशक तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में भी काम किया था। यह उनके भाजपा में शामिल होने से पहले की बात है। कुछ समय के लिए वे करोल बाग इलाके में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नगर संघचालक भी रहे।
अगस्त 1935 में जन्मे कोहली जी दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक थे। 1950 के दशक में दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज के छात्र के रूप में वे विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता बन गए। बाद में, 1970 में वह एक शिक्षक के रूप में विद्यार्थी परिषद की दिल्ली इकाई के अध्यक्ष और 1982 में राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। लेकिन उनकी मुख्य सामाजिक सक्रियता दिल्ली विश्वविद्यालय में एक शिक्षक-सह कार्यकर्ता के रूप में रही। वे 1973-79 के दौरान डूटा के अध्यक्ष भी रहे और विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद में दो बार शिक्षक प्रतिनिधि चुने गए।
1991 की शुरुआत में कोहली जी को अप्रत्याशित रूप से भाजपा में दिल्ली-इकाई अध्यक्ष के रूप में शामिल किया गया। उसके बाद उनका शेष जीवन (लगभग तीन दशक) पार्टी के इर्द-गिर्द घूमता रहा। उन्हें दो बार दिल्ली इकाई का अध्यक्ष बनाया गया। लंबे समय तक, वह केंद्रीय पार्टी कार्यालय के प्रभारी रहे और नरेंद्र मोदी सरकार के गठन के कुछ महीनों बाद 2014 में उन्हें राज्यपाल बनाया गया था। एक सज्जन व्यक्ति होने के नाते वे ऐसी किसी भी जिम्मेदारी के लिए पार्टी की पहली पसंद होते थे, जिसके लिए ईमानदारी, लगन और कड़ी मेहनत की आवश्यकता होती हो। वे एक निश्छल मन वाले विद्वान व्यक्ति थे, जिनकी सज्जनता अविश्वसनीय थी।
कोहली जी अपनी निष्ठा और सरल स्वभाव के कारण ही आपातकाल के दौरान पुलिस के हाथों में पड़ गए थे। हम दोनों ही भूमिगत होकर काम कर रहे थे और रोजाना संपर्क में थे। आपातकाल की घोषणा के दो हफ्ते बाद ही मुझे गिरफ्तार कर लिया गया था। कोहली जी इस बात से अनभिज्ञ थे। उन्होंने मुझसे उस फोन पर संपर्क करने की बहुत कोशिश की, जिसका इस्तेमाल मैं भूमिगत गतिविधियों के लिए कर रहा था। मेरी गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने मुझसे संपर्क करने वालों को फंसाने के लिए उसी फोन का इस्तेमाल किया। उनके लिए कोहली जी को पकड़ लेना एक बड़ी उपलब्धि थी, क्योंकि वे डूटा के तत्कालीन अध्यक्ष थे। कई कॉल और पुलिस के भ्रामक जवाबों के बाद भी, कोहली जी स्थिति का अनुमान नहीं लगा सके और अंतत: पुलिस द्वारा बिछाए गए जाल में फंस गए। और इस प्रकार जाल में फंसने वाले वह अकेले नहीं थे। श्री मदन दास, जो अभाविप के राष्ट्रीय संगठन सचिव थे और बाद में रा.स्व.संघ के सहसरकार्यवाह बने, वे भी कोहली जी के माध्यम से मुझ तक पहुंचने का प्रयास कर रहे थे। दोनों पुलिस के झांसे में आ गए।
सत्ता के प्रति अपनी वफादारी साबित करने की इच्छुक पुलिस के लिए यह एक बड़ी सफलता थी। पुलिस ने यह कहानी गढ़ते हुए आरोप लगाया कि आपातकाल के खिलाफ एक भूमिगत योद्धा के रूप में उन्होंने सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए एक बड़ी योजना बनाई थी। पुलिस ने उन पर इस आशय के एक बयान पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डालने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इस पर उन्हें प्रताड़ित किया गया और पीटा गया, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। पुलिस ने उन्होंने और हिरासत में रखने के लिए अदालत में वही मनगढ़ंत कहानी दोहराई। कोहली जी ने कड़ा रुख अख्तियार किया और अदालत को बताया कि उन्हें फंसाया जा रहा है और प्रताड़ित भी किया गया है। न्यायाधीश ने कोहली जी पर विश्वास किया और उनकी पुलिस हिरासत नहीं बढ़ाई। लेकिन तत्कालीन निराशाजनक स्थिति में यह साहस दिखाना काबिले तारीफ था।
उनकी पुण्य आत्मा को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि!
ओपी कोहली दिल्ली विश्वविद्यालय में राष्ट्रवादी विचारधारा के मजबूत स्तंभ थे और उन्होंने 1978-79 में नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रं ट की स्थापना की थी। 1990 के दशक की शुरुआत तक वे इसके अध्यक्ष बने रहे। कोहली जी ने डीयू एकेडमिक काउंसिल में निर्वाचित शिक्षकों का प्रतिनिधित्व किया और 1973-75 के दौरान डूटा अध्यक्ष चुने गए। आपातकाल के दौरान वे 19 महीने तक जेल में रहे, लेकिन जेल की यातनापूर्ण अवधि के बाद वे और मजबूत हो गए। उन्हें 1977 में 2 साल के लिए फिर डूटा अध्यक्ष चुना गया। उनकी अध्यक्षता के दौरान डूटा ने महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल कीं। उन्होंने शिक्षक सक्रियता के क्षेत्र में तार्किक बातचीत के साथ क्रियात्मक पक्ष निर्धारित करने का नया परिणामोन्मुखी तरीका प्रस्तुत किया। एनडीटीएफ उनकी दूरदर्शी सलाह का निरंतर लाभार्थी रहा है। वे डीयू की कार्यकारी परिषद के पहले निर्वाचित शिक्षक भी थे।
उनकी क्षमता और ज्ञान के सम्मान स्वरूप उन्हें दिल्ली राज्य भाजपा की अध्यक्षता, राज्यसभा की सदस्यता, भाजपा के राष्ट्रीय और संसदीय कार्यालयों का प्रभार और गुजरात के राज्यपाल के पद जैसे कई उच्च पद सौंपे गए। लेकिन इन सभी उच्च पदों पर आसीन होने के दौरान, उन्होंने अपनी विनम्रता और शिष्टता बनाए रखी। वे हमेशा मदद और सलाह के लिए तैयार रहते थे। एनडीटीएफ मामलों में उनकी अंत तक गहरी दिलचस्पी बनी रही।
एनडीटीएफ को उनकी कमी खलेगी। हम प्रार्थना करते हैं कि उनकी महान आत्मा परमात्मा की संगति में शाश्वत शांति में रहे। – ए.के. भागी, अध्यक्ष, एनडीटीएफ
अभाविप में अपने दो दशकों के दौरान, कोहली जी केंद्रीय टीम के सदस्य थे और शैक्षिक मामलों की देखभाल करते थे, विशेष रूप से प्रस्तावों का मसौदा तैयार करना और पुस्तिकाएं लिखना। एनडीटीएफ में 1987 में एक बार मैं उनके लिए शर्मिंदगी का बड़ा कारण बन गया था। डूटा चुनाव के लिए अध्यक्ष पद का उम्मीदवार तय करना था। मैंने सोचा कि सबसे अच्छे विकल्प वही थे, क्योंकि वे विश्वविद्यालय में बेहद सम्मानित शिक्षक थे और अतीत में चार चुनाव जीत चुके थे। मेरे आग्रह पर उन्हें उम्मीदवार बनाया गया था, लेकिन वह जीत नहीं पाए। यह मेरे लिए चौंकाने वाला अनुभव था।
दिल्ली विश्वविद्यालय में, डूटा अध्यक्ष के रूप में उनका आचरण अनुकरणीय था। कार्यकारिणी और आम सभा की बैठकों के दौरान अध्यक्ष को विभिन्न राजनीतिक रंग के शिक्षकों के विरोध का सामना लगभग हर बार करना पड़ता था। डूटा एक अत्यधिक लोकतांत्रिक संस्था थी और है। सार्वजनिक सभाओं में कोहली जी सैद्धांतिक रुख अपनाते थे, चाहे इससे उनके समर्थक ही क्यों न घट जाएं। हालांकि अंत में वह विजेता के रूप में सामने आते थे।
दलगत राजनीति में आने से पहले कोहली जी को चंदा उगाहने की समस्या का कभी सामना नहीं करना पड़ा था, जबकि मैं विद्यार्थी परिषद में अपने अनुभव से संसाधन जुटाने का हुनर सीख चुका था। जब वे दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष बने, तो मैंने उन्हें धन जुटाने का सुझाव देने का साहस किया, जिसे उन्होंने सकारात्मक रूप से लिया।
( लेखक अभाविप के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)
टिप्पणियाँ