भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने कहा कि ऐसे आयोजनों में हमारा ध्यान हिन्दी भाषा के विभिन्न पहलुओं, उसके वैश्विक प्रयोग और उसके प्रचार-प्रसार पर है।
फिजी के नादी में 12वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में दुनिया भर से हिन्दी सेवी जुड़े। इसका उद्घाटन करते हुए भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने कहा कि ऐसे आयोजनों में हमारा ध्यान हिन्दी भाषा के विभिन्न पहलुओं, उसके वैश्विक प्रयोग और उसके प्रचार-प्रसार पर है। उन्होंने कहा कि यह सम्मेलन विश्व में हिन्दी को सम्मान दिलाने का उपक्रम है। सम्मेलन का आयोजन नादी में करने पर प्रसन्नता जताते हुए डॉ. जयशंकर ने कहा कि यह हमारे दीर्घकालिक संबंधों को आगे बढ़ाने का भी अवसर है।
डॉ. जयशंकर ने कहा कि हम में से कई लोग विदेशी परिवेश से जुड़े हुए हैं और आगे भी रहेंगे और हो सकता है, वहां घर भी बसाएं। ऐसे में यह जरूरी है कि उन लोगों की पहचान और विरासत पर ध्यान दें, जो अपनी मूल संस्कृति से दूर हैं और इन मुद्दों को बल देने के लिए भाषा को केंद्रित करना एक प्रभावी तरीका है। उन्होंने कहा कि वह युग पीछे छूट गया है, जब प्रगति को पश्चिमीकरण के समान माना जाता था। ऐसी कई भाषाएं, परंपराएं, जो औपनिवेशिक युग के दौरान दबा दी गई थीं, फिर से वैश्विक मंच पर आवाज उठा रही हैं। ऐसे में आवश्यक है कि विश्व को सभी संस्कृतियों और समाजों के बारे में जानकारी हो। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक पुनसंर्तुलन आवश्यक है। इसी दिशा में फिजी सरल प्रवासन का ज्वलंत उदाहरण है। उन्होंने कहा कि एक नए भारत का निर्माण हो रहा है जो बड़े से बड़े कार्य को पूर्ण करने में सक्षम है। यह 12वां विश्व हिन्दी सम्मेलन सांस्कृतिक सेतु है।
उद्घाटन सत्र में भारत के गृह राज्यमंत्री अजय कुमार मिश्र ने कहा कि भारत सरकार भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए सतत् तत्पर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हिन्दी भाषा के माध्यम से भारत की संस्कृति पूरे विश्व में लगातार फल-फूल रही है। उन्होंने भारत की विश्व बंधुत्व की भावना को विशेष रूप से रेखांकित किया। श्री मिश्र ने फिजी के इतिहास एवं उसकी परंपरा के मूल्यवान तत्वों पर प्रकाश डालते हुए एक-दूसरे की साझी विरासत की भी चर्चा की। उन्होंने प्रवासी भारतीय दिवस की चर्चा करते हुए हिन्दी के वैश्विक फलक को चिह्नित किया। इसी क्रम में श्री मिश्र ने विश्व बैंक की वेबसाइट पर हिन्दी की उपस्थिति को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि जल्द ही संयुक्त राष्ट्र की भाषा के रूप में हिन्दी को पूर्ण स्वीकृति मिल जाएगी। उन्होंने हिन्दी के विस्तार एवं सक्षमता के लिए कृत्रिम मेधा की दिशा में गृह मंत्रालय द्वारा किए जा रहे प्रयासों की चर्चा की। उन्होंने कहा कि कंठस्थ जैसे ऐप हिन्दी के विस्तार की नई संभावनाएं खोल रहे हैं।
केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री वी. मुरलीधरन ने कहा कि भारत जल्द फिजी में एक अंतरराष्ट्रीय भाषा लैब स्थापित करेगा जो दुनिया को हिन्दी सिखाएगी और प्रचार-प्रसार करेगी। सम्मेलन में फिजी के राष्ट्रपति काटोनिवेरे ने कहा कि हिन्दी सम्मेलन का यह मंच भारत साथ फिजी के ऐतिहासिक और विशेष संबंधों की स्थाई ताकत का जश्र मनाने का अनूठा अवसर देता है। दोनों देश कृत्रिम मेधा के साथ हिन्दी के विकास पर काम करेंगे। विदेश मंत्री जयशंकर और काटोनिवेरे ने एक साझा डाक टिकट भी जारी किया। फिजी पोस्ट के सहयोग से जारी इस डाक टिकट में हिन्दी सम्मेलन के लोगों को उकेरा गया है। कार्यक्रम में स्मारिका और गगनांचल समेत छह पुस्तकों का विमोचन किया गया।
तकनीक से पारंपरिक ज्ञान के समन्वय की जरूरत
सत्र : ‘पारंपरिक ज्ञान से कृत्रिम मेधा तक’
शिक्षाविद्, शिक्षा-संस्कृति उत्थान न्यास के सचिव अतुल कोठारी ने कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा सिर्फ भारत नहीं, अपितु पूरे विश्व की आवश्यकता है। इसने दुनिया को गिनना सिखाया है। आत्मनिर्भरता के स्तर पर भारत को आगे बढ़ाना है तो पारंपरिक ज्ञान बहुत आवश्यक है। योग पूरे विश्व में स्वीकार हो गया है। योग में भारतीय ज्ञान परंपरा की महती भूमिका है। प्राचीन ज्ञान को आधुनिक तकनीक से कैसे जोड़ें – एनईपी में यह बात कही गई है। इसके अंतर्गत पाठ्यक्रम सबसे महत्वपूर्ण है। चिकित्सा क्षेत्र में नेचुरोपैथी लाने की जरूरत है। भारतीय ज्ञान परंपरा को आज के संदर्भ में ढालने की जरूरत है और इन सबको हिन्दी में पढ़ाने की जरूरत है। केवल कंप्यूटर और कृत्रिम मेधा ही सब नहीं है, इसके साथ विवेक का प्रयोग भी करना होगा एवं भारतीय परंपरा के ज्ञान को समन्वित करना होगा। इसका माध्यम हिन्दी, संस्कृत और भारतीय भाषाओं को बनाना चाहिए, तभी हम दुनिया को दे पाएंगे।
अध्यक्षीय वक्तव्य में विदेश राज्य मंत्री वी. मुरलीधरन ने कहा है कि विश्व हिन्दी सम्मेलनों की परंपरा में यह पहली बार है कि पारंपरिक ज्ञान और टेक्नोलॉजी कदम से कदम मिलाकर चल रही है। सबको साथ लेकर चलना भारतीय संस्कृति की विशेषता है। यह विषय हमारी समृद्ध विरासत को प्रकट करता है। साथ ही संकेत देता है कि हमारी सभी भाषाएं तकनीक से जुड़ रही हैं। हिन्दी कृत्रिम मेधा के साथ काम करने में सक्षम है क्योंकि कंप्यूटर हिन्दी भाषा को पहचानता है। इसका उदाहरण एलेक्सा, रोबोट है। भारत विश्व स्तर पर मजबूत हो रहा है। जब कोई देश मजबूत होता है तो उसकी भाषाएं भी सशक्त होती हैं। आज पूरी दुनिया एक परिवर्तन से गुजर रही है जिसमें डिजिटल क्रांति की अहम भूमिका है। नई शिक्षा नीति में मातृभाषा में शिक्षा की बात कही गई है। कौशल विकास की पढ़ाई हिन्दी में करायी जा रही है। प्रधानमंत्री जी आर्टिफिशियल इंटैलिजेंस के क्षेत्र में ग्लोबल हब बनाने की बात कर चुके हैं। पारंपरिक ज्ञान, समर्थ भाषा और समर्थ तकनीक सब तक पहुंचे, यही इस सम्मेलन का उद्देश्य है।
सह-अध्यक्षता करते हुए गृहराज्य मंत्री अजय कुमार मिश्र ने कहा कि भारत संभावनाओं का देश है। उन्होंने जेनेवा में हुए सम्मेलन का जिक्र करते हुए हिन्दी की विभिन्न शोध परियोजनाओं के बारे में बताया। इस अवसर पर कंठस्थ 2.0 मोबाइल एप और केंद्रीय हिन्दी संस्थान की पत्रिका के फिजी विशेषांक का लोकार्पण किया गया।
पूर्वोत्तर की भाषाओं के लिए हो देवनागरी लिपि का प्रावधान
सत्र : ‘सूचना प्रौद्योगिकी और इक्कीसवीं सदी की हिंदी’
सत्र के अध्यक्ष त्रिपुरा केंद्रीय विश्वविद्यालय, त्रिपुरा के कुलपति प्रो. गंगाप्रसाद परसाई ने कहा कि हिंदी भाषा व साहित्य को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर अधिकाधिक बढ़ावा देना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि पूर्वोत्तर भारत की कई भाषाएं रोमन लिपि में लिखी जाती हैं। इन भाषाओं को देवनागरी लिपि में लिखने का प्रावधान होना चाहिए। प्रो. नरेंद्र मिश्र, दिल्ली ने कहा कि सूचना तकनीक ने हिंदी के विस्तार को व्यापक फलक प्रदान किया है। सूचना प्रौद्योगिकी के कारण ट्विटर, फेसबुक आदि की भाषा के रूप में हिंदी की पहुंच बढ़ रही है। डिजिटल मीडिया में भारतीय भाषाओं की पहुंच बढ़ी है। आज हिंदी के अनेक सर्च इंजन उपलब्ध हैं। सूचना प्रौद्योगिकी के कारण ही हिंदी विश्व भाषा बन पायी है।
केरल की डॉ.पी. प्रिया ने कहा कि दु:ख की बात है कि 1975 ई. से आज तक हिंदी विश्व भाषा का दर्जा नहीं ले पाई है। भारत विश्व गुरु का स्थान ले पाएगा, ऐसा विश्वास है। इसके लिए हिंदी की बड़ी भूमिका होगी और इसके लिए यह संकल्प लिया जाना चाहिए कि संपूर्ण विश्व में हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार हो। गोवाके 37 बार के राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता डॉ. शम्भु प्रभु देसाई ने कहा कि वाणिज्य, मनोरंजन, खेल आदि सभी क्षेत्रों में हिंदी का चलन बढ़ा है। भारत सरकार हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए सूचना प्रौद्योगिकी का सक्रिय उपयोग कर रही है। पुस्तकालय, शिक्षा, विज्ञान आदि क्षेत्रों में तकनीकी का प्रयोग बढ़ा है। हिंदी विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है।
डॉ. अनुराग शर्मा ने कहा कि भविष्य की हिंदी अधिक गतिशील और भविष्योन्मुखी हो, इसके लिए सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग अत्यंत आवश्यक है। सुखद बात है कि संचार माध्यमों में हिंदी का प्रचार तेजी से बढ़ रहा है। हिंदी समिति इंडियाना, अमेरिका के डॉ. राकेश कुमार ने कहा कि हमलोग सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से हिंदी भाषा के शिक्षण-प्रशिक्षण की दिशा में बहुत सार्थक तरीके से आगे बढ़ रहे हैं। उन्होंने कृत्रिम मेधा के उपयोग से हिंदी के शिक्षण की बात की। साथ ही उन्होंने डिजिटल जेनेरेशन की भी चर्चा की। सत्र के सह-अध्यक्ष डॉ. उदय प्रताप सिंह ने कहा कि अब यह बात पुरानी हो गई है कि हिंदी में विज्ञान और तकनीकी शिक्षा के लिए शब्द नहीं हैं। आज यह बात सूचना प्रौद्योगिकी के कारण आसानी से संभव हो गई। सूचना प्रौद्योगिकी ने हिंदी का विकास संभव बनाया है।
संचार माध्यमों ने बढ़ाया हिंदी का विश्वबोध
सत्र : ‘मीडिया और हिंदी का विश्वबोध’
सत्र के अध्यक्ष प्रो. राममोहन पाठक ने कहा कि भारतेंदु हरिश्चंद्र नाटक को आठ बार देखने का अनुभव गांधीजी को सत्य एवं अहिंसा की प्रेरणा दे गया, जिसे गांधीजी ने पूरे विश्व में फैलाया। आज के संचार माध्यमों ने हिंदी के विश्वबोध को बढ़ाया है। पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर ने कहा कि जब कीमत चुकायी जाती है, तब मूल्य पैदा होता है। जो हिंदी का स्वभाव है, वही विश्व का भाव है। विनोबा भावे के माध्यम से प्रकृति, विकृति एवं संस्कृति की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि हम संस्कृति को स्वीकार करते हैं, जो त्याग और समर्पण की परिचायक है तथा विश्व बंधुत्व का पाठ पढ़ाती है। आज जो मन का औदार्य है, वही हिंदी का भाव है।
डॉ. नीरजा माधव ने कहा कि भारत में तकनीक और मीडिया बहुत पुरानी है। भागवत पुराण और दुर्गासप्तशती से संदर्भों का उल्लेख करते हुए कहा कि हिंदी सर्वदा से विश्वबोध देती रही है। हमारी संस्कृति एवं विशेश रूप से हमारी संगीत पंरपरा को जानने के लिए विदेशों से ही लगातार लोग आते रहे हैं। हिंदी में संबंधों की दुनिया के शब्द चाची, काकी, मौसी, बुआ, पड़ोसी आदि अनेक शब्दों के लिए अंग्रेजी में एक शब्द व्यवहार में लाया जा रहा है वह शब्द है-आंटी। आंटी शब्द ने कई संबंधों को सीमित किया है। यह एक तरह से शब्दों के साथ हिंसा हो रही है। प्रो. मिथिलेश मिश्र ने कहा कि हिंदी के स्वाभिमान को वैश्विक स्तर पर फैलाना है। आज मीडिया को मूल्यपरक होना चाहिए। पी. राजरत्नम ने कहा कि आज दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के माध्यम से दक्षिण में लोग हिंदी सीख भी रहे हैं और विकास भी कर रहे हैं। मीडिया के प्रसार तंत्र ने हिंदी को पूरे विश्व में फैलाया है।
फिजी में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य करने की जरूरत
सत्र : ‘फिजी और प्रशांत क्षेत्र में हिंदी’
सत्र के अध्यक्ष फिजी गणराज्य के पूर्व प्रधानमंत्री और भारतवंशी महेंद्र प्रसाद ने कहा कि फिजी में हिंदी के स्थायित्व के लिए यहां के स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य करने की जरूरत है। इसके लिए भारत सरकार को भी राजनयिक स्तर पर पहल करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि पहले फिजी में चार अखबार निकलते थे, अब एक भी नहीं है। मानक हिंदी की स्थिति को भी हमें गंभीरता से लेना होगा। इससे हिंदी की समृद्धि व ताकत और बढ़ेगी। चुनाव, उत्सव-त्योहार, विवाह और पूजा के साथ-साथ हिंदी को रोजगार की भाषा भी बनानी होगी, वरना अंग्रेजी के वर्चस्व को कम करना संभव नहीं हो पाएगा।
डॉ. सुभाषिनी लता ने कहा कि हमारे पूर्वजों ने अपनी मेहनत और बलिदान से अपनी-अपनी गिरमिट जमीन को समृद्ध किया, इस पर हम सबको गर्व है। उन्होंने तोताराम सनाढ्य के लेखन को प्रवासी हिंदी साहित्य का आरंभिक बिंदु माना। वरिष्ठ लेखक पंडित भुवन दत्त ने कहा कि फिजी में नई पीढ़ी के बच्चों और उनके अभिभावकों में हिंदी के प्रति अरुचि और उदासीनता चिंताजनक है। शिक्षार्थियों को ध्यान में रखते हुए हिंदी पाठ्यपुस्तकों एवं पाठ्यक्रमों की समीक्षा होती रहनी आवश्यक है। हमें इसके लिए प्रशिक्षित अध्यापकों की भी जरूरत है। वरिष्ठ साहित्यकार मनोहर नासी ने हिंदी को सरल-सहज और व्यावहारिक बनाने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि भारत सरकार पूरे विश्व में हिंदी के पठन-पाठन को सुगम और उपयोगी बनाने की पहल करे।
सत्र के सह अध्यक्ष केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के उपाध्यक्ष अनिल जोशी ने कहा कि गिरमिटिया देशों में फिजी की हिंदी सबसे जीवंत है। आज यहां विश्व हिंदी सम्मलेन हो रहा है, इसमें फिजी के हिंदी भाषियों का बड़ा योगदान है।
केंद्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, आंध्र प्रदेश के कुलपति प्रो. टी.वी. कट्टीमनि ने कहा कि हमें यह नि:संकोच स्वीकार करना चाहिए कि भारतीय भाषाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। हर सरकार की कुछ प्राथमिकता होती है। वर्तमान सरकार की प्राथमिकता कौशल प्राप्त करना है। एनईपी का यही कहना है कि भारतीय शिक्षा को तकनीक में लाना है। आज सब बदल गया है लेकिन हिन्दी का पाठ्यक्रम अब तक नहीं बदला है। हिन्दी के पाठ्यक्रम में कौशल, एंड्रायड, तकनीक नहीं है। एनईपी बहु-विषयक शिक्षा की बात करती है। हमको अद्यतन होने की जरूरत है।
उन्होंने प्रश्न किया कि निरमा वाशिंग पाउडर, एमडीएच मसाला की सफलता की कथा हमारे पाठ्यक्रम में क्यों नहीं। सफलता की स्थानीय कहानियों को किताबों में लाये जाने की जरूरत है। एक हजार पीएचडी हर साल होती हैं किंतु नौकरियां कितनों को मिलती हैं? हर बच्चे को एमए के बाद चार-पांच कौशल आने चाहिए। गांधीजी ने कहा था कि दिमाग और हाथ साथ चलना चाहिए। आज मोदी जी कह रहे हैं कि आज दिमाग, हाथ और हृदय; तीनों साथ चलना चाहिए। साहित्य को इससे संबंधित होना चाहिए। हमें सीमाओं में नहीं रहना चाहिए, अपने विषय की सीमाओं से बाहर आना चाहिए।
जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र के अध्यक्ष प्रो. सुधीर प्रताप सिंह ने कहा कि हिन्दी ने कृत्रिम मेधा का प्रयोग करते हुए पारंपरिक ज्ञान को जनसामान्य तक पहुंचाया। उन्होंने कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा अपने धार्मिक एवं सांस्कृतिक वैशिष्ट्य के कारण अलग है। भारतीय परंपरा संवादमूलक रही है। भारतीय ज्ञान परंपरा ने वसुधैव कुटुंबकम् की भावना का प्रसार किया है जबकि पाश्चात्य संस्कृति में ज्ञान शक्ति का प्रतीक है। कृत्रिम मेधा मानव बुद्धि की प्रतिकृति है। हिन्दी विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। तकनीक ने इसे विश्व के कोने-कोने तक पहुंचाया है।
तकनीकविद् व माइक्रोसॉफ्ट में भारतीय भाषाओं के प्रभारी बालेन्दु शर्मा दाधीच ने आर्थर सी. क्लार्क को उद्धृत करते हुए कहा कि पर्याप्त रूप से विकसित कोई भी पद्धति किसी जादू से कम नहीं होती है। कृत्रिम मेधा को स्पष्ट करते हुए उन्होंने भाषा के क्षेत्र में उसके प्रयोग पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि तकनीक के क्षेत्र में पैदा होने वाले प्रश्नों का जबाव नई तकनीक ही दे रही है। आज प्रौद्योगिकी हमारी मदद के नए तरीके खोज रही है। भविष्य में चैटजीपीटी साहित्य का अनुवाद करने में सक्षम होगी। कृत्रिम मेधा के जरिए अनुवाद संभव है। कृत्रिम मेधा भविष्यवाणी कर सकती है। हिन्दी में तकनीक की संभावनाएं बहुत हैं जिसमें कृत्रिम मेधा का बहुत महत्व है।
डेरा नाटुंग शासकीय महाविद्यालय, ईटानगर के सहायक प्राध्यापक तुम्बम रेवा ने कहा कि अरुणाचल प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां सौ से अधिक जनजातियां निवास करती हैं जिनकी अलग-अलग बोलियां हैं और सभी आपस में भिन्न हैं।
विश्व को वैकल्पिक सभ्यता दृष्टि देने को तैयार हो हिंदी
सत्र : ‘भारतीय ज्ञान परंपरा का वैश्विक संदर्भ’
सत्र की अध्यक्ष महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल ने कहा कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। सकल ज्ञान राशि ही वेद है। भारतीय ज्ञान परंपरा के विविध वितान हैं। समस्त भारतीय भाषाओं में सन्निहित ज्ञानराशि का उपयोग सभ्यतागत संकटों से मुक्ति के लिए किया जाना चाहिए। प्रो. शुक्ल ने भारतीय ज्ञान परंपरा में निहित लोक ज्ञान और अनुभव अर्जित ज्ञान को शास्त्रीय बनाए जाने की बात कही। यह लोक के सैद्धांतीकरण की प्रक्रिया है। भारतीय ज्ञान परंपरा सत्य और नैतिकता के साथ जुड़ी हुई है। इस समय दुनिया की सभ्यता दृष्टि व्याघातों से घिरी है। इसलिए विश्व सभ्यता को वैकल्पिक सभ्यता दृष्टि देने के लिए हिन्दी को साधुमत और लोकमत को ध्यान में रखना होगा।
सत्र के सह-अध्यक्ष प्रो. योगेन्द्र मिश्र ने कहा कि तुलसी भारतीय ज्ञान परंपरा के आधार स्तंभ हैं और रामचरित मानस विश्व परिवार की आचार संहिता है। तुलसी वाङ्मय के अवगाहन से अभीष्ट प्राप्त होता है। वक्ता इंदुशेखर तत्पुरुष ने ने योग और आयुर्वेद को भारतीय ज्ञान परंपरा का अनुप्रयोगात्मक पक्ष बताया और कहा कि लोक प्रेरक के साथ लोक सेवकों को अपनी भूमिका निर्वहन के लिए आगे आना चाहिए। डॉ. के. श्रीलता ने कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा निरंतर प्रवाहमान है और हिंदी ने भारतीय ज्ञान परंपरा को अकूत शक्ति दी है। हिन्दी वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को साकार कर रही है। सुरेन्द्र बिहारी गोस्वामी ने कहा कि हिन्दी भाव-सागर की भाषा है। हिन्दी ने भारतीय ज्ञान परंपरा को निरंतर समृद्ध किया है।
भाषा के साथ अंतर्मन का भी हो समन्वय
सत्र : ‘भाषाई समन्वय और हिन्दी अनुवाद’
सत्र की अध्यक्षता करते हुए सागर केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति प्रो. बलवंत शांतिलाल जानी ने कहा कि आज ऐसी राष्ट्रीय योजनाएं बनी हैं कि हम अपनी भाषा के साथ-साथ दुनिया की अन्य भाषाओं को भी सीख-समझ सकते हैं। यहां तक कि अनुवाद के कारण रूसी एवं विश्व की अन्य भाषाओं में भी संवाद संभव हुआ है। प्रो. जानी ने कहा कि देश के लिए जब भाषा का कोई एक स्वरूप तय करने की बात आई, तो हिन्दी और हिंदुस्तानी में बहस हुई। हिंदुस्तानी भाषा की जड़ें अरबी-फारसी में थीं, और हिन्दी की संस्कृत, मागधी, प्राकृत। अन्तत: हिन्दी का चुनाव हुआ, जिसकी जड़ें भारतीय थीं। इसलिए भाषा का प्रवाह बढ़ा है। हमें अपनी भाषा की जड़ें जानना आवश्यक है। भाषा का आदान-प्रदान जरूरी है।
शिक्षाविद् प्रो. अरुण दिवाकर नाथ वाजपेयी ने कहा कि कुछ चीजों का अनुवाद नहीं हो सकता। हमारे बीज मंत्र ओम् का अनुवाद नहीं हो सकता है, उसके तो उच्चारण मात्र से ही कल्याण हो जाता है। धर्म शब्द का अनुवाद हो ही नहीं सकता। दिल्ली विश्वविद्यालय के सिंधी भाषा विभाग के प्रो. रविप्रकाश टेकचंदानी ने कहा कि भाषाई समन्वय और हिन्दी के अनुवाद को मैं सॉफ्ट पावर के रूप में देखता हूं। हमारी प्राचीन परम्परा वसुधैव कुटुम्बकम् वाली है। इस शब्द में ही समन्वय है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि भाषा के साथ उसके अंतर्मन का भी समन्वय हो। सिंध की सिंधी और भारत की सिंधी अलग क्यों है, उसका भी समन्वय होना चाहिए। लगभग सभी भारतीय भाषाओं के शब्द भंडार एक जैसे हैं।
हिन्दी हमारे राज्य में संपर्क भाषा का काम करती हैं। उन्होंने कहा कि हम हिन्दी की नहीं, हिन्दी हमारी सेवा कर रही है। हमारी जनजाति में नामकरण की प्रणाली अनोखी एवं पारंपरिक है। पिता के नाम के बाद दो अक्षर बच्चे के नाम का होता है। जिससे किसी भी बच्चे के दादा-परदादा का नाम जान लिया जाता है। जिसके कारण कोई बच्चा गलत सामाजिक आचरण नहीं करता है। हम लोग वनस्पतियों के पारंपरिक ज्ञान से लोगों को रोगमुक्त करते आए हैं। सुश्री रेवा ने अरुणाचल के भाषाई वैविध्य की विशिष्टता को उजागर करते हुए कहा कि पारंपरिक ज्ञान आधुनिक तकनीक से संपन्न विश्व के लिए अमूल्य वरदान है।
शासकीय महाविद्यालय, दोईमुख, अरुणाचल प्रदेश के सहायक प्राध्यापक डॉ. तादाम रुती ने कहा कि आधुनिक तकनीक में
कृत्रिम मेधा का बहुत महत्व है, इस क्षेत्र में बहुत से शोध कार्य हो रहे हैं। कृत्रिम मेधा के दो पहलू हैं। इसकी संभावनाएं बहुत हैं तो दुष्परिणाम भी।
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