हर वर्ष महाशिवरात्रि का पावन पर्व भक्तगण बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। सनातन परंपरा के अनुसार इसी तिथि को ही भगवान शंकर ने काठमांडू में बागमती नदी के तट पर देवताओं और सृष्टि की रक्षा करने हेतु विषपान किया था जो समुद्र मंथन से प्रकट होने के बाद समस्त संसार को नष्ट करने वाला था। लोकहित में गरल पान करके नीलकंठ कहलाने वाले भगवान शंकर अवढरदानी, सर्वोच्च त्यागी, कर्मविधान और कर्मबंधन को छिन्न भिन्न कर भक्त पर कृपा करने वाले हैं। वे उमा पति अर्धनारीश्वर हैं। अनादि, अन्नत, अविनाशी हैं। आइये जानते हैं महादेव की महिमा…
भंगपान का तात्पर्य
कवियों ने शिवजी के भंगपान विषय पर अनेक कविताएं लिखी हैं।
“भंग की उमंग अंग,गंग की तरंग संग,
राजै तीन नैन मुण्डमाल उर धारे हैं ।”
कुछ अन्य पंक्तियां देखिये –
“पीके करते हैं भव ताप भंग,
नंग हैं अनंग को बनाया क्षार-क्षार है।”
दरअसल भगवान शिव को किसी बाहरी नशे की आवश्यकता ही नहीं है । वे सत्, चित, आनंद स्वरूप हैं । उनके भंगपान का अर्थ कुछ और ही है। संसार में जीव काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य से ग्रस्त है। वह देहाभिमानी है, अपने को कर्ता मानकर माया के आवरण के पार प्रभु को न देखकर संसार चक्र में भ्रमित रहता है। योग, भक्ति और साधना द्वारा इन विकारों का नाश, देहाभिमान का त्याग और माया का आवरण भंगकर देने वाले प्राणी का भगवान ‘पान’ कर लेते हैं अर्थात् भगवान स्वंय में भक्त को आत्मसात कर लेते हैं। भगवान द्वारा ऐसे भक्तों ,साधकों का आत्मलीन करना या मुक्ति देना ही शिवजी का ‘भंगपान’ है। अपने भक्त को मुक्ति देकर वे प्रफुल्लित और हर्षित होते हैं।
महादेव का भोजन और पहनावा
भगवान शिव को भोग के रूप में भक्तों द्वारा श्रद्धा से अर्पित धतूरा और अर्क (मदार या अकौड़ा) के बारे में हम सभी जानते हैं । इस बारे में महाकवि पद्माकर लिखते हैं –
“देखो त्रिपुरारि की उदारता अपार जहाँ,
पैये फल चारि फूल एक दै धतूरे को॥ ”
वहीं गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं –
“धाम धतूरो विभूति को कूरो,
निवासु जहां सब लै मरे दाहैं ।।”
शंकराचार्य जी ने उनकी स्तुति करते हुए कहा है –
” मन्दार पुष्प बहु पुष्प सुपूजिताय ”
भगवान शिव के आभूषण भयंकर सांप हैं। वे चिता भस्म लपेटे रहते हैं । ये वे चीजें हैं जिन्हें कोई भी व्यक्ति स्वीकार नहीं करना चाहेगा बल्कि उनका त्याग करना चाहेगा । सुंदर वस्त्र, स्वादिष्ट भोजन ,सुगंधित पुष्प की कामना तो हर कोई करता है किंतु भोलेनाथ ही एक ऐसे देव हैं जो बीत राग और कामदेव को भी भस्म कर देने वाले हैं। वे हर उपेक्षित वस्तु और प्राणी को अंगीकार कर लेते हैं । नरमुंड माल,पिशाच, सर्प, धतूरा, अर्क पुष्प ये सब उपेक्षित चीजें हैं लेकिन महादेव ने इन सबको प्रेमपूर्वक अंगीकार कर रखा है । ये उनकी दीनों, उपेक्षितों के प्रति प्रेम व उदारता के परिचायक हैं । अमृत की कामना तो देव, दानव, मानव, असुर सभी करते हैं किंतु एकमात्र महादेव ऐसे हैं जो हलाहल पान खुशी-खुशी कर लेते हैं और नीलकंठ कहलाते हैं ताकि सृष्टि का कल्याण हो सके ।
औघड़ हैं भगवान आशुतोष
कभी दिगंबर शिव श्मशान विचरण करते हैं तो कभी पर्वत पर विराजमान । कभी अति प्रसन्न होकर रावण और भस्मासुर जैसों को भी बड़े-बड़े वरदान दे बैठते हैं तो कभी क्रुद्ध होकर कामदेव को भी भस्म कर देते हैं । शिव महानतम् योगी हैं । योग मार्ग में – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि नामक 8 अंग होते हैं । अंत में चित्त शक्ति कुंडलिनी जाग्रत होती है। जिन योगियों की कुंडलिनी जाग्रत हो जाती है उन्हें तरह – तरह की विभूतियां आकर्षित करने लगती हैं , लुभाने की कोशिश करने लगती हैं । महर्षि पतंजलि ने योग दर्शन पुस्तक के विभूति पाद में ऐसी अनेक विभूतियों का वर्णन किया है । शिवजी का विभूति (जिसका एक अर्थ भस्म भी होता है ) शरीर में लपेटना यही दर्शाता कि विभूतियां उनसे लिपटी हुई हैं फिर भी वे उनकी तरफ से उदासीन हैं और ध्यान मुद्रा में आंखे बंद किये हुए हैं । दरअसल कुंडलिनी जाग्रत होने पर अपार शक्ति प्रस्फुटित होती है । ये शक्ति इतनी असीमित होती है कि कोई साधक या योगी इसके प्रभाव से विचित्र बर्ताव करने लगता है । वह कभी हंसता तो कभी रोता है तो कभी चिल्लाता है अर्थात् पागलों जैसा आचरण करने लगता है लेकिन भगवान शिव कोई सामान्य साधक या योगी नहीं हैं । वे शक्तिपति , शक्तिधर हैं । अत: वे कभी कभी अद्भुत कार्य करते हैं तो उनके जैसे महानतम योगी के लिए सर्वथा उचित ही है । श्रीमद्भागवत में हंस का रूप धारण कर भगवान विष्णु ने सनकादि को उपदेश देते समय सिद्ध योगी के लक्षण बताते हुए कहा है कि –
“देहं च नश्वरम वस्थितमुत्थितं वा
सिद्धो न पश्यति यतोsयगमत् स्वरूपम् ”
अर्थात् जैसे मदिरा पीकर उन्मत्त पुरुष यह नहीं देखता कि मेरे द्वारा पहना हुआ वस्त्र शरीर पर है या गिर गया वैसी ही स्थिति सिद्ध योगी की होती है ।
श्री शंकराचार्य ने ब्रह्मवेत्ता योगी को निरंकुश विचरण करने वाला बताया है। वह वस्त्र से युक्त अथवा वस्त्रहीन मृगचर्मधारी उन्मत्त के समान बालक के समान अथवा पिशाचवत् स्वेच्छानुसार विचरण करता है ।
“दिगम्बरो वापि च साम्बरो वा,
त्वगम्बरो वापिचिदंबरस्थ:
उन्मत्तवद्वापि च बालवद्वा
पिशाचवद्वापि चरत्यवन्याम् ।। ”
ठीक ऐसे ही रहते हैं भगवान शिव। वे मदमत्त नहीं, महायोगी है ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )
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