अपने जीवनकाल में चार दशकों ऑल इण्डिया रेडियो–आकाशवाणी में समाचार उद्घोषक के रूप में अपनी निराली छवि के लिए लोकप्रिय एवं प्रसिद्धि प्राप्त रंगकर्मी, अभिनेता, कलाकार जो समाचार वाचन की एक संस्था बन गए थे। उनका समाचार पढ़ने का अंदाज़, उच्चारण की शुद्धता, स्वर की गंभीरता और गुरुता और प्रसंग अनुरूप उतार-चढ़ाव श्रोता को एक रोमांच की स्थिति में ले आता था।
देवकीनंदन पाण्डे के पिता शिवदत्त पाण्डे मूल रूप से देवभूमि उत्तराखण्ड में कुमाऊं क्षेत्र के प्रख्यात चिकित्सक थे। वह बेहद रहम दिल और आधी रात को उठकर किसी भी मरीज़ के लिए मुफ़्त में इलाज करने को सदैव तत्पर रहते थे। देवकीनंदन पाण्डे के जन्म के चार साल बाद वह रिटायर होकर गृहक्षेत्र अल्मोड़ा आ गए थे। देवकीनंदन पाण्डे की आरंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में ही हुई थी। देवकीनंदन अपने स्कूली दिनों में कभी भी मेधावी छात्र नहीं रहे, लेकिन वह कभी भी अपनी कक्षा में अनुउत्तीर्ण नहीं हुए थे। वास्तव में उनकी घूमने-फिरने, नाटक करने और खेलकूद में गहन दिलचस्पी थी। पाठ्यपुस्तकें उन्हें कभी भी रास नहीं आई थीं, किंतु नाटक, उपन्यास, कहानियां, जीवन चरित्र और इतिहास की पुस्तकें उन्हें हमेशा से आकर्षित करती थीं। देवकीनंदन के पिता भी पुस्तकों के अनन्य प्रेमी थे, इस वजह से घर में किताबों का अच्छा ख़ासा संकलन था, जिससे देवकीनंदन को पठन-पाठन में दिलचस्पी होने लगी थी।
कॉलेज के समय में अंग्रेज़ी के अध्यापक विशंभरदत्त भट्ट देवकीनंदन पर अगाध स्नेह रखते थे। उन्होंने ही देवकीनंदन की आवाज़ की विशिष्टता को पहचाना और सराहा था। देवकीनंदन के स्वर में पहाड़ी ख़नक सुनाई देती थी, उन्होंने अपने इस छात्र को उसकी प्रतिभा का आभास करवाया था। विशम्बरदत्त भट्ट अब देवकीनंदन को रंगमंच के लिये प्रोत्साहित करने लगे थे। अल्मोड़ा में देवकीनंदन ने कई दर्ज़न नाटकों में हिस्सा लिया जिस कारण उनके आत्मविश्वास में बेहद मज़बूती आई थी। सन 1940 के दशक में अल्मोड़ा जैसे छोटे से क्षेत्र में केवल दो रेडियो थे, प्रथम स्कूल के अध्यापक जोशी के घर और दूसरा एक व्यापारी शाहजी के घर में। युवक देवकीनंदन को दूसरे विश्वयुद्ध के समाचारों को सुनकर बहुत रोमांच होता था। वह प्रतिदिन सारा कामकाज छोड़कर केवल समाचार सुनने जाते थे। उन दिनों जर्मनी रेडियो के दो प्रसारकों में लॉर्ड हो और डॉ. फ़ारूक़ी का बड़ा नाम था। दोनों ही लाजवाब प्रसारणकर्ता थे। उनकी आवाज़ हमेशा देवकीनंदन के दिलो-दिमाग़ में छाई रहती थी। सन 1941 में बी.ए. करने के लिए देवकीनंदन इलाहाबाद चले गए उस समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय पूरे देश में विख्यात था।
पिता की मृत्यु के पश्चात भाइयों की भरण–पोषण की जिम्मेदारी उन पर आ गयी थी। उन्होंने सर्वप्रथम लखनऊ में परिवहन विभाग में नौकरी की और सन 1943 में वह आकाशवाणी लखनऊ में कैजुअल एनाउंसर और ड्रामा आर्टिस्ट के रूप में कार्य करने लगे थे। यहां उन्हें उर्दू भाषा और उच्चारण की बारीकियां सीखने को मिली थी। भारत के स्वतन्त्र होते ही आकाशवाणी पर समाचार बुलेटिनों का सिलसिला प्रारंभ हुआ। दिल्ली स्टेशन पर अच्छी आवाज़ें ढूंढ़ने की पहल हुई थी। देवकीनंदन पाण्डे ने भी डिस्क पर अपनी आवाज़ रिकॉर्ड करके भेजी थी। फरवरी सन 1948 में समाचार वाचकों का चयन किया गया। उम्मीदवारों की संख्या तीन हज़ार थी जिनमें देवकीनंदन पाण्डे का नाम समाचार वाचकों की सूची में सबसे ऊपर था। 21 मार्च सन 1948 को उन्होंने अपना पहले समाचार को पढ़ा था। उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ का नहीं देखा। आकाशवाणी लखनऊ पर मिले उर्दू के अनुभव ने उन्हें हमेशा स्पष्ट समाचार वाचन में लाभ दिया था। देवकीनंदन का मानना था कि निश्चित रूप से देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी है, लेकिन वाचिक परंपरा में उर्दू के शब्दों के परहेज़ नहीं किया जाना चाहिए। देवकीनंदन समाचार प्रसारण के समय समाचार पढ़ने के अंदाज, उच्चारण की शुद्धता और घटनाक्रम से अपने आपको एकाकार कर लेते थे और यही वजह थी कि उनके समाचार पढ़ने का अंदाज़ करोड़ों श्रोताओं के दिल को छू जाता था। उनकी आवाज़ में जादुई स्पर्श था, कभी-कभी तो ऐसा लगता था कि देवकीनन्दन के स्वर से रेडियो सेट थर्राने लगा है। उस समय उनकी आवाज को देश की आवाज कहा जाता था। उस समय पौने नौ बजे समाचार बुलेटिन शुरू होता था तो एक ही आवाज सुनाई देती थी “ये आकाशवाणी है, अब आप देवकीनंदन पाण्डे से समाचार सुनिए”। वर्तमान समय में जब टीवी चैनल्स की बाढ़ है और एफ़एम रेडियो स्टेशंस अपने-अपने वाचाल प्रसारणों से जीवन को अतिक्रमित कर रहे हैं ऐसे में देवकीनंदन पाण्डे का स्मरण एक रूहानी एहसास से गुज़रने जैसा लगता है।
देवकीनंदन पाण्डे को वॉइस ऑफ़ अमेरिका जैसी अंतरराष्ट्रीय प्रसारण संस्था से अपने यहां काम करने का भारी–भरकम प्रस्ताव मिला था, लेकिन उनके उत्कट देशप्रेम ने उन्हें ऐसा करने से रोका था। देवकीनंदन पाण्डे को अपनी शख़्सियत की अपार लोकप्रियता का अहसास उस दिन हुआ था जब इंदिरा गांधी ने एक बार आकाशवाणी के स्टॉफ़ आर्टिस्टों को उनकी समस्या सुनने के लिये अपने निवास पर आमंत्रित किया था। इंदिरा गांधी से जब देवकीनंदन पाण्डे का परिचय करवाया गया तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा था कि “अच्छा तो आप हैं हमारे देश की न्यूज़ वॉइस”। तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल तो एक बार देवकीनंदन पाण्डे का नाम सुनकर उनसे गले लिपट गए थे। नए समाचार वाचकों के विषय में देवकीनन्दन का कहना था कि – “जो कुछ करो श्रद्धा, ईमानदारी और मेहनत से करो, हमेशा चाक-चौबन्द और समसामयिक घटनाक्रम की जानकारी रखो। जितना ज़्यादा सुनोगे और पढ़ोगे उतना अच्छा बोल सकोगे, किसी शैली की नकल कभी मत करो। कोई ग़लती बताए तो उसे सर झुकाकर स्वीकार करो और बताने वाले के प्रति अनुगृह का भाव रखो। निर्दोष और सोच समझकर पढ़ने की आदत डालो, आत्मविश्वास आता जाएगा और पहचान बनती जाएगी।”
सरदार वल्लभभाई पटेल, लियाकत अली खान, मोलाना आजाद, गोविन्दबल्लभ पन्त, पंडित जवाहरलाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण के निधन का समाचार देवकीनंदन पाण्डे की आवाज में पूरे देश में पहुंचा था। उनके सन 1983 में सेवानिवृत्त हो जाने के बाद भी उन्हें बड़े अवसरों में समाचार पढ़ने बुलाया जाता रहा था। वह सन 1947 से सन 1983 तक आकाशवाणी के दिल्ली केन्द्र में उद्घोषक रहे। संजय गांधी के आकस्मिक निधन का समाचार पढ़ने के लिए उन्हें स्पेशल दिल्ली आकाशवाणी पर बुलाया गया था। उन्होंने फिल्मों में भी काम किया था, लेकिन कभी मेहनताने की अपेक्षा नहीं की थी। प्रोड्यूसर अमरजीत उनके अभिनेता पुत्र सुधीर की जानकारी से आए थे इसलिए काम करने के लिए हां कह दी, लेकिन जब मेहनताना नहीं मिला तो कोई दुःख भी नहीं हुआ था। देवकीनन्दन का लेखन पक्ष भी काफी मजबूत था, उन्होंने कुमाऊं पर एक पुस्तक “कुमाऊं- ए परस्पेक्टिव” लिखी थी। महान बहुमुखी प्रतिभा से प्रधान व्यक्तित्व आकाशवाणी के प्रसिद्ध समाचार वक्ता देवकीनंदन पाण्डे का 2001 में निधन हुआ था। उनकी आवाज़ सुनने के लिए उस समय सम्पूर्ण देश पागल था, वर्तमान में उन्हें “कुमाऊँ के गाँधी” के नाम से भी जाना जाता है।
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