कैसे बोलें? कैसे चलें?

Published by
कमलेश कमल

मानव जीवन की 95% समस्याएँ दूर हो जाएँ, अगर व्यक्ति ठीक से बोलना सीख जाए और ठीक से चलना सीख जाए। इसे जानने-सीखने के लिए मानव प्रबंधन और व्यक्तित्व विकास की हज़ारों किताबें हैं। लेकिन कभी-कभी हज़ारों किताबें जो कहती हैं, उसका सार किसी सिद्ध पुरुष की किसी एक उक्ति में मिल जाता है…आवश्यकता होती है बस उसे समझने की। अभी सपरिवार महाकाल दर्शन हेतु उज्जैन गया था। वहाँ एक मंदिर की दीवार पर नाथ सम्प्रदाय के गोरखनाथ की यह सूक्ति मिल गई, जो इस महत्त्वपूर्ण संदर्भ में हमें साररूप में सब कुछ कह देती है।
वे कहते हैं–

“हबकि न बोलिबा, ठबकि न चलिबा, धीरैं धारिबा पावं।
गरब न करिबा, सहजै रहिबा, भणत गोरष रावं।।”

हम जानते हैं कि गोरखनाथ भारतीय ज्ञान-परंपरा और संत-परंपरा में एक अनूठे, अप्रतिम संत हुए हैं। अब अगर ठीक से समझा जाए, तो इस एक सूत्र के माध्यम से उन्होंने जीवन के गंभीरतम रहस्य को सूत्र रूप में हमारे लिए रख दिया है। आइए, सबसे पहले इसके अर्थ को देखते हैं–

‘हबकि न बोलिबा’ मतलब हबक कर, शीघ्रता में, जल्दबाजी में, आतुरता में अथवा उद्वेग में नहीं बोलना है। ऐसे नहीं बोलना है, जिसके लिए अफसोस करना पड़े, पश्चात्ताप हो, पछतावा हो, ग्लानि हो, वेदना हो, दुःख हो। सधुक्कड़ी भाषा में ‘हबक कर बोलना’ अर्थात् बिना सोचे-विचारे बोलना। होता यह है कि मन में कुछ आया और बोल गए, हबक कर बोल गए, बेहोशी में बोल गए, रौ में बोल गए। बाद में कहते हैं– काश! चुप रह गए होते… काश! यह नहीं कहा होता….लेकिन बोल गए, तो अब बोल ही गए। बाण धनुष से छूट चुका। तो, ‘हबक कर बोलना’ असावधानी में बोलना है, बोलने के लिए बोलना है, अविवेक में बोलना है, ‘रौ’ अथवा किसी प्रवाह में बोलना है।

ध्यान दें कि’ हबक कर नहीं बोलने’ का अर्थ बहुत सोच-विचार कर बोलना भी नहीं है। बहुत सोच-विचार कर बोलना, आडंबरयुक्त शैली अथवा शब्दों में बोलना, कुछ पांडित्यपूर्ण बोलना, प्रकृष्टतम-प्रगल्भतम रूप से कुछ बोलना तो अभ्यास से किया जा सकता है; परंतु वह भी सम्यक् बोलना नहीं है। उसमें एक अहंकार है, अहं का स्फुरण है कि मैं सोच-विचार कर तार्किकता के साथ बोलता हूँ। उसमें ‘मैंपन’ है। इससे अलग ‘हबकि न बोलिबा’ तो एक सहज अभिव्यक्ति है कि ‘फट’ से कुछ बोलना नहीं है, आवश्यक होने पर सहजता-सरलता से कुछ बोलना है।

‘ठबकि न चलिबा’ का अर्थ है– ठोकर मारते हुए अथवा शोरगुल करते हुए नहीं चलना है। ‘ठबक कर चलना’ अर्थात् अकड़ कर चलना, दिखावा करते हुए चलना। ऐसे चलने में स्वाभाविकता नहीं है। ‘ठबक कर चलना’ यानी छैला बनते हुए चलना, साहब बनते हुए चलना, दूसरों को दिखाने, रौब जमाने के लिए चलना, प्रभाव जमाने, प्रभुत्व जमाने के लिए चलना। ‘ठबकि न चलिबा’ अर्थात् ठबक कर नहीं चलेंगे। तो चलेंगे कैसे ? इस बारे में आगे कहते हैं– ‘धीरैं धारिबा पावं।’ अपने कदम धीरे से धरना अर्थात् रखना है। कोई धमक नहीं, कोई प्रदर्शन नहीं, कोई अकड़ नहीं। इसमें मैं हूँ, मुझे देखो, नोटिस करो– यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है। यह तो ऐसे चलना है, जैसे किसी को पता ही न चले। न श्रेष्ठताबोध और न ही हीनताबोध, बस सहजता और सजगता। धरती पर जहाँ कदम पड़ रहे हैं, वहाँ के घास से भी प्यार है। हम कोई बड़े तोपची नहीं कि कोलाहल करते, बताते-जताते आ रहे हैं, कदमों के निशान छोड़ने की आकांक्षा, आतुरता भी नहीं…बस सहज और सजग जीवन-यात्रा। किसी के होने अथवा नहीं होने की फ़िक्र नहीं, कोई तामझाम नहीं। बस ऐसे ही चलना है। जीवन यात्रा में किसी को हराने, किसी दूसरे से आगे बढ़ने या किसी का अवधान खींचने तक की आकांक्षा नहीं, स्पृहा नहीं, बस सजगता से आगे बढ़ते जाना। यह हो गया, तो आगे बहुत आसानी होगी। दरअसल हबकि न बोलिबा और ठबकि न चलिबा समझ गए; तो सूत्र हाथ लग जाता है, इसका रहस्य खुल जाता है, उद्घाटित हो जाता है।

सूत्र में इससे आगे गोरख कहते हैं– ‘गरब न करिबा, सहजै रहिबा”। गर्व है कि हमने यह कर लिया, यह पा लिया, इसे प्रभावित कर लिया और आगे यह कर लूँगा। इस चित्तदशा से बचना है। गोरख सचेत करते हैं कि घमंड नहीं, दर्प नहीं, गर्व भी न हो। अब प्रश्न है कि गर्व नहीं, तो क्या? इसका उत्तर है–सहज रहना है। ‘सहजै रहिबा’ यानी सहज रहेंगे। सहज रहना असहजता का त्याग है, कृत्रिमता, बनावटीपन का त्याग है, आडम्बर का परित्याग है। simple रहना है, complex नहीं होना है। कहते भी हैं– कि Complexity is failed Simplicity. आधुनिक मनुष्य की समस्या ही है कि सहजता दुर्लभ हो गई है। जो थे, उससे अलग कुछ और हो गए। मौलिकता का परित्याग कर दिया। सभ्यता के विकास में मनुष्य ने सरलता ही नहीं, सहजता को भी खो दिया। तो, गोरख कहते हैं कि गर्व नहीं करना है, सहज रहना है। आगे है– भणत गोरष रावं।

भणत संस्कृत में ‘भणित’ है। भणित शब्द बना है– ‘भण्’ धातु से, जिसका अर्थ है– कहना। ‘भणित’ अर्थात् कहते हैं। गोरख ‘रांव’। रावं शब्द संस्कृत का राव है, जिसका अर्थ है– राजा, श्रेष्ठ आदि। यहाँ गोरखनाथ स्वयं को राव कह रहे हैं, क्योंकि जो हबक कर न बोले, ठबक कर न चले, गर्व न करे और सहज रहे– वह श्रेष्ठ हो जाता है, स्वयं का राजा हो जाता है, राव हो जाता है।

इति शुभम् !

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