भगवान् शिव कण-कण में व्याप्त हैं। शिवजी का सारा जीवन बुराइयों के नाश और भलाई की स्थापना के लिए है। उन्होंने विश्व ही नहीं, देवताओं के कल्याण के लिए कंठ में विष धारण किया और नीलकंठ कहलाए। दानवों का दमन कर शिवत्व की स्थापना की। शिव समन्वय, सहिष्णुता, प्रेम, शान्ति और कल्याण के आधार हैं। तभी वे पुराणों में समस्त विरोधी भावों का सामंजस्य करने वाले देव के रूप में चित्रित हैं। शिव अर्धनारीश्वर होकर भी काम विजेता, गृहस्थ होते हुए भी गृहस्थी के प्रपंचों से दूर, भोग-सुविधाओं से परे महातपस्वी समाधिस्थ हैं। भयंकर सर्प और सौम्य चन्द्रमा दोनों उनके शरीर की शोभा हैं। मस्तक में प्रलयकालीन अग्नि, सिर पर हिम शीतल गंगा का शृंगार। सहज बैर भुला कर साथ-साथ क्रीड़ा करते वृषभ, सिंह, मोर और सर्प। भगवान् शंकर न्याय एवं प्रेम के शासन का कितना आदर्श रूप प्रस्तुत करते हैं। शिव प्रेम स्वरूप हैं, कल्याण स्वरूप हैं, इसलिए इन विरोधों को हंसते-हंसते सहन करते हैं।
सृष्टि क्रम ठीक-ठाक चले तो कल्याण अन्यथा रूलाने वाले रुद्र। वे अज्ञान के उन बंधनों का भी संहार करते हैं जो आत्मा को बांधे रखते हैं। वे संहार करते हैं कि अज्ञान नष्ट हो, मोह दूर हो, गर्व चूर हो, लोभ निर्मूल हो, आसुरी भाव एवं रूप जल कर शुद्ध हो। उनकी भीषण निर्दयता में उनके हृदय की करुणा छिपी है, दया छिपी है। वे केवल मनुष्य ही नहीं, प्राणिमात्र का कल्याण चाहते हैं। वास्तव में वे हमारे जीवन की ऊर्जा हैं, चेतना हैं। तेज, बल, ज्ञान और बलिदान का आधार हैं, जिनके निकलते ही शरीर शव हो जाता है और जला कर पंचभूतों में मिला दिया जाता है।
जीवन की पूर्णता बंटने में नहीं, बिखरने में नहीं, एक होने में है। जगत में द्वन्द्व तो रहेगा ही सुख-दुख, पाप-पुण्य, जीवन-मरण, धूप-छाया की भांति सदैव साथ-साथ रहने हैं। अत: अपने में शिवत्व जागृत कर संसार के विष को पीना होगा। हमें केवल अपने लिए नहीं, दूसरों की भलाई के बारे में सोचना है। सबमें वहीं एक चेतन तत्व विराजमान है, फिर भेदभाव कैसा यह सत्य ही शिवत्व है। हम सबके हृदय में शान्त, स्थिर और अचल रूप से रमने वाला एक ही शिव तत्व विष्णु रूप से भरण-पोषण करता है, रुद्र रूप से संहार करता है और ब्रह्म रूप से उत्पन्न करता है। यूं तो शिव सदा सौम्य हैं किन्तु संसार के अनर्थों पर दृष्टि डालते ही भयंकर हो जाते हैं।
सृष्टि क्रम ठीक-ठाक चले तो कल्याण अन्यथा रूलाने वाले रुद्र। वे अज्ञान के उन बंधनों का भी संहार करते हैं जो आत्मा को बांधे रखते हैं। वे संहार करते हैं कि अज्ञान नष्ट हो, मोह दूर हो, गर्व चूर हो, लोभ निर्मूल हो, आसुरी भाव एवं रूप जल कर शुद्ध हो। उनकी भीषण निर्दयता में उनके हृदय की करुणा छिपी है, दया छिपी है। वे केवल मनुष्य ही नहीं, प्राणिमात्र का कल्याण चाहते हैं। वास्तव में वे हमारे जीवन की ऊर्जा हैं, चेतना हैं। तेज, बल, ज्ञान और बलिदान का आधार हैं, जिनके निकलते ही शरीर शव हो जाता है और जला कर पंचभूतों में मिला दिया जाता है।
जब तक हम अपने स्थूल शरीर, चंचल मन और अस्थिर बुद्धि को महत्व देते रहेंगे, तब तक हमारी वास्तविक शक्ति, सीमित व कुंठित होती जाएगी। इसके विपरीत शिव का स्पर्श जितना प्रगाढ़ होगा उतना ही हमारा व्यक्तित्व सात्विक बुद्धि से युक्त, व्यवहार में कुशल एवं मंगलमय विचारों से परिपूर्ण हो सकेगा। तब हम अपने मार्ग के साथ-साथ दूसरों का पथ भी आत्मज्ञान से आलोकित कर सकेंगे। शिव तत्व तो गंगा है। जितनी बार उनके नाम-स्मरण, स्वरूप-चिन्तन में डुबकी लगाएं, ज्ञान-भक्ति-उपासना से भरी अंजुरी छलक-छलक कर आस-पास आनन्द बिखेरती जाएगी। यह आनन्द वस्तुओं के जोड़ने का आनन्द नहीं, सुविधा का आनन्द नहीं, सत्ता के संचय का भी आनन्द हीं वरन् सबसे जुड़ने का, सबसे एक होने का सहज आनन्दहै जहां प्रशांति ही प्रशांति है, पवित्रता ही पवित्रता है, प्रेम ही प्रेम है।
(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार हैं और हिंदी भवन, नई दिल्ली की न्यासी हैं)
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