ग्वादर इन दिनों सुर्खियों में है क्योंकि वहां एक बड़ा आंदोलन चल रहा है। लेकिन इस आंदोलन में उतना ही नहीं है, जितना दिख रहा है। इसमें अलग-अलग धाराएं काम कर रही हैं और सबके अपने-अपने हित हैं
बलूचिस्तान के बंदरगाह और चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपीईसी) के महत्वपूर्ण शहर ग्वादर में लंबे समय से उबाल जारी है। लोग सड़कों पर उतर आए हैं और बंदरगाह पर चल रही सारी तथाकथित विकास गतिविधियां ठप हैं। प्रदर्शनकारियों को बड़ी तादाद में गिरफ्तार कर लिया गया है। कई लोग लापता हैं। पहली नजर में ऐसा लगता है कि कौमी आजादी की लड़ाई लड़ रहे बलूचों को यहां बढ़त मिली हुई है, लेकिन बात इतनी सीधी नहीं है। दरअसल, ग्वादर शतरंज की वह बिसात बन गया है जिसमें दो नहीं, कई खिलाड़ी अपनी-अपनी चालें चल रहे हैं और सबके अपने-अपने हित हैं।
ग्वादर में इन दिनों ‘हक दो तहरीक’ आंदोलन चल रहा है और उसके नेता हैं मौलाना हिदायत उर रहमान। ग्वादर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया है। लोग आए दिन विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और अपनी मांगें रख रहे हैं। बंदरगाह को लोगों ने पूरी तरह ठप कर दिया है। लोग सेना के बारे में सख्त लहजे का इस्तेमाल कर रहे हैं तथा जबरन अगवा लोगों को लेकर नारेबाजी कर रहे हैं। लेकिन क्या ग्वादर में जो चल रहा है, वह इस बार भी वैसा ही है, जैसा सालों से वहां होता रहा? लगता तो नहीं। इस बार मामला कुछ अलग है।
बेशक ग्वादर के आंदोलन में बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी, बलूचिस्तान नेशनल मूवमेंट, बलूचिस्तान लिबरेशन फ्रंट जैसी कई तंजीमें शामिल हैं जो लंबे समय से बलूचिस्तान को पाकिस्तान से अलग करने के लिए आंदोलन कर रही हैं, लेकिन मौलाना हिदायत उर रहमान आंदोलन के बड़े नेता बनकर उभरे हैं। वे जमाते-इस्लामी के बलूचिस्तान में जनरल सेक्रेटरी हैं पर उनके असली मंसूबों के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है
अलग बलूचिस्तान के लिए बलूचों को लड़ाई लड़ते हुए लगभग साढ़े सात दशक बीत गए हैं। इसके लिए पूरे बलूचिस्तान में आंदोलन होते रहे हैं और ग्वादर भी इनसे अछूता नहीं रहा। वहां पहले भी कई बार विकास के काम रोके गए पर इस बार क्या अंतर है, इस पर गौर करना जरूरी है। किसी भी मूवमेंट में दो बातें सबसे अहम होती हैं। एक, उसमें कौन लोग भाग ले रहे हैं और दूसरे उसकी कमान किनके हाथ में है। उसे देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में उसकी संभावित दिशा क्या रहने वाली है।
ग्वादर के एक सियासी वर्कर पुतन ग्वादरी कहते हैं, ‘‘मुझे लगता है कि ग्वादर का जो मूवमेंट है, वह बलूचों की कौमी आजादी की जद्दोजहद को दूसरी तरफ मोड़ने की कोशिश है। इस पूरे आंदोलन में बेशक आपको कभी-कभार आजादी के पोस्टर और बैनर मिल जाएं और ऐसे ही नारे भी सुनने को मिलें, लेकिन बुनियादी तौर पर यह एक हुकूकी जद्दोजहद है। इनकी अहम मांगें बुनियादी हुकूकों और बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की हैं। इसमें शक नहीं कि बलूचों की कौमी आजादी की लड़ाई में ये सब अहम मुद्दे हैं, लेकिन इन्हें पाना ही आखिरी मकसद नहीं। आखिरी मकसद आजादी है और इस तरह के हुकूकी मुद्दे उन्हें मजबूती देते हैं।’’
मौलाना हिदायत की नजर कहां
दरअसल, पुतन जो बातें कह रहे हैं, उसकी बड़ी वजह हैं मौलाना हिदायत उर रहमान। बेशक ग्वादर के आंदोलन में बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी, बलूचिस्तान नेशनल मूवमेंट, बलूचिस्तान लिबरेशन फ्रंट जैसी कई तंजीमें शामिल हैं जो लंबे समय से बलूचिस्तान को पाकिस्तान से अलग करने के लिए आंदोलन कर रही हैं, लेकिन मौलाना हिदायत उर रहमान आंदोलन के बड़े नेता बनकर उभरे हैं। मौलाना जमाते-इस्लामी के बलूचिस्तान में जनरल सेक्रेटरी हैं। एक छात्र नेता अली बलोच कहते हैं, ‘जमाते-इस्लामी ने 1970-71 में बांग्लादेश में जो कुछ किया, वह सबके सामने है। यह तंजीम पाकिस्तानी फौज की बी-टीम है। उन्होंने पहले भी प्रशासन में भागीदारी की है और आगे भी वह सरकार में शामिल हो सकते हैं। इसलिए आजादी के लिए लड़ाई लड़ रही तंजीमें मौलाना पर पैनी नजर रख रही हैं।’
ऐसे ही एक और शख्स हैं- लियाकत बलोच। इनके नाम में ‘बलोच’ शब्द जरूर है, लेकिन मुख्यधारा के बलूचों से इनकी सोच और शख्सियत अलग है। इत्तेफाक है कि वे भी जमाते-इस्लामी के सेक्रेटरी हैं और पंजाब में रहते हैं। ग्वादर में उबाल आने के बाद वे भी यहां आए। जानकार बताते हैं कि उनकी मुलाकात पाकिस्तान के मेजर आसिफ गफूर के साथ हुई।
‘जमाते-इस्लामी ने 1970-71 में बांग्लादेश में जो कुछ किया, वह सबके सामने है। यह तंजीम पाकिस्तानी फौज की बी-टीम है। उन्होंने पहले भी प्रशासन में भागीदारी की है और आगे भी वह सरकार में शामिल हो सकते हैं। इसलिए आजादी के लिए लड़ाई लड़ रही तंजीमें मौलाना पर पैनी नजर रख रही हैं।’
– अली बलोच, एक छात्र नेता
ग्वादरी कहते हैं, ‘ऐसे समय में लियाकत बलोच का यहां दिखना काफी-कुछ कहता है। लियाकत स्टूडेंट पॉलिटिक्स के समय से ही बलूच आंदोलन को कमजोर करने में जुटे रहे हैं।’ अफगानिस्तान जब सोवियत संघ और अमेरिका के बीच अहम का अखाड़ा बना हुआ था, उस समय भी जमाते-इस्लामी और लियाकत बलोच का झुकाव अमेरिका की ओर था और बलूचिस्तान स्टूडेंट आर्गनाइजेशन (आजाद) का रूस की ओर।
एक तीर, दो निशाने
ऐसे में क्या ग्वादर के घटनाक्रम में फौज की कोई भूमिका हो सकती है? इसका जवाब देते हैं बीएनएम से जुड़े तकसीम बलोच। वे कहते हैं, ‘पाकिस्तान की फौज कोई प्रोफेशनल आर्मी तो है नहीं, वह एक सियासी पार्टी की तरह सलूक करती है, वैसा ही सोचती है। किसी भी सियासी पार्टी में जैसे अलग-अलग मकसदों के लिए अलग-अलग लॉबी काम करती है, वैसे ही पाकिस्तानी फौज में भी एक लॉबी ऐसी है जो सीपीईसी के खिलाफ है।
इस लॉबी का मानना है कि सीपीईसी के कामयाब हो जाने का मतलब होगा पाकिस्तान में एक और ईस्ट इंडिया कंपनी का कामयाब हो जाना। यह लॉबी चाहती है कि ऐसे हालात पैदा होने चाहिए कि चीन खुद ही तौबा कर ले। इसी मकसद से नॉन स्टेट ऐक्टर को इस्तेमाल किया जा रहा होगा। वैसे भी इस तरह की रणनीति में तो पाकिस्तानी फौज को महारत हासिल है।’
जानकार बताते हैं कि पाकिस्तानी फौज की यह लॉबी एक ही तीर से दो शिकार करना चाहती है। एक- बलूचिस्तान में आजादी की जद्दोजहद को कुछ ‘अपनों’ की मदद से हुकूक की लड़ाई में तब्दील करना और दूसरे सीपीईसी के जरिये पाकिस्तान को अपने शिकंजे में लेने को बेताब चीन के मंसूबों को विफल कर देना। क्वेटा के एक विश्लेषक का कहना है कि ‘इसमें अमेरिका की भी कोई न कोई भूमिका दिखती है।
‘‘मुझे लगता है कि ग्वादर का जो मूवमेंट है, वह बलूचों की कौमी आजादी की जद्दोजहद को दूसरी तरफ मोड़ने की कोशिश है। इस पूरे आंदोलन में बेशक आपको कभी-कभार आजादी के पोस्टर और बैनर मिल जाएं और ऐसे ही नारे भी सुनने को मिलें, लेकिन बुनियादी तौर पर यह एक हुकूकी जद्दोजहद है। इनकी अहम मांगें बुनियादी हुकूकों और बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की हैं। इसमें शक नहीं कि बलूचों की कौमी आजादी की लड़ाई में ये सब अहम मुद्दे हैं, लेकिन इन्हें पाना ही आखिरी मकसद नहीं। आखिरी मकसद आजादी है और इस तरह के हुकूकी मुद्दे उन्हें मजबूती देते हैं।’’ – पुतन ग्वादरी
हाल ही में जमाते-इस्लामी के कुछ लोग अमेरिका गए थे और वहां उनकी मुलाकात बाइडेन प्रशासन के कुछ लोगों से हुई थी। अमेरिका की ओर जमाते-इस्लामी का झुकाव जगजाहिर है। और फिर ग्वादर के आंदोलन में जमाते-इस्लामी से ताल्लुक रखने वाले एक शख्स का नेता बनकर उभरना। इसके अलावा पाकिस्तान में जनरल सैयद आसिम मुनीर का थलसेना अध्यक्ष बनना और उनके आते ही अमेरिका से शीर्ष सैन्य स्तर पर नजदीकियां। ये सारे महज इत्तेफाक नहीं हो सकते।’
वैसे, सीपीईसी पर चीन ने भी पाकिस्तान से लगातार अपनी नाराजगी जताई है और बड़ी सख्ती के साथ पाकिस्तान को कहा है कि आप साबित करें कि आप हमारे साथ हैं या नहीं। माना जा रहा है कि चीन से इस तरह की लताड़ के बाद पाकिस्तान ने ग्वादर में कार्रवाई की और उसी के बाद मौलाना समेत कई लोगों को गिरफ्तार किया गया।
तो क्या ग्वादर में चल रहा आंदोलन और इसमें शामिल हो रहे लोग मात्र दिखावा हैं? कतई नहीं। ग्वादर में जो लोग सामने आ रहे हैं, उनके मुद्दे वाजिब हैं। उनकी आजीविका की बात है, पीने के पानी की बात है, साफ-सफाई की बात है, अस्पताल और स्कूल की बात है। सब असली मुद्दे हैं। बात केवल इतनी है कि पाकिस्तान ग्वादर के आंदोलन को बुनियादी हुकूक के आंदोलन में तब्दील करना चाह रहा है। एक न एक दिन तो पाकिस्तान को इस इलाके में कॉलोनी बसाकर वहां बाहरी लोगों को बसाना है और उन्हें बुनियादी सुविधाएं तो देनी ही होंगी। लेकिन अगर सरकार बलूचों के साथ करार करके यह सब देगी तो बलूचों की आजादी की लड़ाई कमजोर ही होगी।
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