जिस तरह आज देश में ईसाई मिशनरियों और मुस्लिम जिहादियों द्वारा भोले-भाले वनवासियों व पथभ्रांत हिन्दुओं को लोभ-लालच में फंसाकर जबरन मतांतरण का कुचक्र बड़े पैमाने रचा जा रहा है, ठीक ऐसा ही परिदृश्य मध्ययुग में भी था जब देश में सत्तासीन मुगल आक्रान्ता शासक देश की हिन्दू जनता को डरा-धमका-बरगलाकर जबरन इस्लाम कबूलने को बाध्य कर रहे थे, और जिस तरह आज देशभर का संत समाज जबरन मतांतरण के कुचक्र के विरुद्ध मुखर जनजागरण में जुटा हुआ है; ठीक वैसे ही मध्ययुगीन भक्तिकालीन कवियों ने जबरन मतांतरण के विरुद्ध व्यापक जनजागृति अभियान चलाकर सनातनधर्मियों को न केवल विधर्मी होने से बचाया था अपितु भय व लालच में इस्लाम कबूल चुके लोगों की बड़ी संख्या में स्वधर्म में वापसी भी करायी थी। काबिलेगौर हो कि जबरन मतांतरण की इस महाव्याधि के निराकरण का प्रथम श्रेय जिस मध्ययुगीन विभूति को जाता है, वे हैं भक्त शिरोमणि संत रविदास।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक 14वीं व 15वीं शताब्दी में दिल्ली की सल्तनत पर लोदी राजवंश का शासन था। बादशाह सिकंदर लोदी के शासनकाल में हिन्दू धर्मावलम्बियों का जीना दूभर था। हिंदू जनता को धन का प्रलोभन देकर और डरा-धमका कर मतांतरण कराना आम बात थी। हिंदू धर्मावलम्बियों पर विभिन्न प्रकार के कर लगाये जा रहे थे। शादी-ब्याह पर जजिया, पूजा -पाठ पर जजिया, तीर्थ यात्रा पर जजिया, यहां तक कि शव-दाह पर जजिया। इन अत्याचारों से देश का हिन्दू समाज त्राहि-त्राहि कर रहा था। हिन्दू परंपराओं के पालन पर ‘कर’ वसूली और इस्लाम मानने वालों को छूट देने के पीछे एकमात्र भाव यही था कि हिन्दू धर्मावलम्बी तंग आकर इस्लाम स्वीकार कर लें।
ऐसे विषम समय में तत्कालीन भारत के सर्वमान्य हिन्दू वैष्णव जगद्गुरु स्वामी रामानंदाचार्य ने भारतमाता को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए और देशवासियों को विधर्मी होने से बचाने के लिए अपने विभिन्न भिन्न जाति शिष्यों में से चयनित कर जिस द्वादश भागवत शिष्य मण्डली का गठन किया था; उन 12 प्रमुख शिष्यों में अति पिछड़ी जाति संत रविदास भी शुमार थे। अब से साढ़े छह सौ वर्ष पूर्व सन 1398 में माघ पूर्णिमा रविवार के दिन काशी के मडुवाडीह में जन्में संत रविदास का परिवार अत्यंत निर्धन था। जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने परिवार के जूता बनाने के पैतृक व्यवसाय को अपनाया; किन्तु स्वामी रामानंद का शिष्य बनने के पश्चात् उनका समूचा जीवन रूपांतरित हो गया। सद्गुरु रामानंद के पारस स्पर्श ने चर्मकार रैदास को भारत वर्ष का महान चमत्कारी संत बना दिया। उनके व्यक्तित्व पर आधारित ” मन चंगा तो कठौती में गंगा” आज भी भारत के घर-घर में लोकप्रिय है।
गौरतलब हो कि संत रविदास तद्युगीन बर्बर मुगल बादशाह सिकंदर लोदी के क्रूर अत्याचारों व आतंक से दुखी हो उसके प्रतिकार को पूरी मजबूती से उठ खड़े हुए और जबरन मतांतरण के खिलाफ बुलंद स्वर मुखर किया। उन्होंने उस आक्रान्ता की अवैध मतांतरण की चुनौती को स्वीकार कर न केवल सनातनधर्मियों को स्वधर्म में अडिग रहने का आत्मबल दिया वरन हजारों मतांतरित हिन्दुओं की घर वापसी भी करायी। अपने सद्गुरु रामानंद जी की प्रेरणा व उनके आदेश से संत रविदास ने स्वधर्म के रक्षण के लिए उस कठिन संघर्ष के दौर में मुस्लिम शासकों को खुली चुनौती देते हुए सम्पूर्ण भारत में भ्रमण कर अपने प्रखर जन जागरण द्वारा न केवल अवैध मतांतरण को रोका बल्कि घर वापसी का कार्यक्रम भी जोर शोर से चलाया। अपनी ‘’रैदास रामायण’’ में वे लिखते हैं –
“वेद धर्म सबसे बड़ा अनुपम सच्चा ज्ञान
फिर क्यों छोड़ इसे पढ़ लूं झूठ कुरआन
वेद धर्म छोडूं नहीं कोसिस करो हजार
तिल-तिल काटो चाहि, गला काटो कटार”
कहा जाता है कि संत रविदास की बढ़ती लोकप्रियता से घबराकर सिकंदर लोदी ने सदना नाम के एक कसाई को संत रविदास के पास इस्लाम अपनाने का सन्देश लेकर भेजा क्योंकि वह सोचता था कि यदि संत रविदास इस्लाम स्वीकार लेंगे तो भारत में बहुत बड़ी संख्या उनके अनुयायी भी इस्लाम के मतावलंबी हो जाएंगे, लेकिन उसकी यह कुत्सित मंशा तब धरी की धरी रह गयी जब वह सदना कसाई उस महान संत के तर्कों तथा उनके व्यक्तित्व व आचरण से गहराई से प्रभावित होकर उनका शिष्य बन गया। इस्लाम त्याग कर उसने वैष्णव पंथ स्वीकार कर लिया और वह रामदास के नाम से सदा सदा के लिए विष्णु भक्ति में लीन हो गया। जरा विचार कीजिये कि यदि उस समय संत सिकंदर लोदी के लालच में फंस जाते या उससे भयभीत हो जाते तो इस देश के हिन्दू समाज को कितनी बड़ी ऐतिहासिक हानि हुई होती; किन्तु पूज्य संत रविदास को कोटि कोटि नमन कि वे जरा भी टस से मस न हुए।
मध्ययुग के दिशाभ्रमित समाज को समाज को उचित दिशा देने वाले इस महान संत का समूचा जीवन तमाम ऐसे अद्भुत एवं अविस्मरणीय प्रसंगों से भरा हुआ है, जो मनुष्य को सच्चा जीवन-मार्ग अपनाने को प्रेरित करता है। भारत की यह महान आध्यात्मिक विभूति कहती है, ” रे मन तू अमृत देश को चल जहां न मौत है न शोक है और न कोई क्लेश।” अपनी क्रान्तिकारी वैचारिक अवधारणा, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना तथा युगबोध की मार्मिक अभिव्यक्ति के कारण संत रविदास का धर्म-दर्शन आज भी पूर्ण प्रासंगिक बना हुआ है।
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