संत परम्परा में हुए संत रैदास समाज सुधारक तथा समरसता के संवाहक संत रैदास या रविदास का जन्म वाराणसी के निकट मडुआडीह के चर्मकार परिवार में माघ पूर्णिमा विक्रम संवत 1433 (1376 ईस्वी) को हुआ।
भारतीय जनसमाज के पास जो ईश्वर प्रदत्त एक विशिष्ट परमाद्भुत रत्न हैं। उसका नाम हैं भक्ति। भारतीय अध्यात्म और धर्मसत्ता के वाहक संतों व भक्तों ने भगवत् भक्ति के माध्यम से समाज जीवन की बुराईयों विषमताओं और कुरीतियों विरोध किया है। मानवीय जीवन के श्रेष्ठतम् पहलुओं को समाज के सम्मुख रखकर जीवन की शुचिता- पवित्रता और त्यागमयी सद्वृत्तियों को प्रोत्साहित किया है। सम्पूर्ण देश में तीर्थयात्राएं करतें हुए इन संतों व भक्तों ने देश की सांस्कृतिक, वैचारिक, एकता और अखण्डता को हजारों वर्षों से अक्षुण्ण और सदृढ रखा हैं। आलवर-नायनार संतों से लेकर श्रीरामानुजाचार्य रामानंद संत कबीर संत रैदास, मीराबाई, वल्लभाचार्य, गुरुनानक, सूरदास, तुलसीदास, नामदेव, सांवतामाली, गोराकुंभार, तुकाराम, ज्ञानेश्वर, नरसीमेहता, समर्थगुरूरामदास, चैतन्यमहाप्रभु शंकरदेव, बसवेश्वर, गाडगे, महाराज, तुकडोजी महाराज की पवित्र परम्परा अखण्ड है, निरन्तर है, शाश्वत है। यही हमारे समाज के चिरंजीवी होने का दैवीय वरदान हैं।
इसी संत परम्परा में हुए संत रैदास समाज सुधारक तथा समरसता के संवाहक संत रैदास या रविदास का जन्म वाराणसी के निकट मडुआडीह के चर्मकार परिवार में माघ पूर्णिमा विक्रम संवत 1433 (1376 ईस्वी) को हुआ। इनके पिता का नाम रघु व माता का नाम रघुरानी या धुविमिया था। इनका विवाह बचपन में ही लोना से हो गया। आध्यात्मिक रूचि व सद्गुरू की प्रेरणा से ये भक्ति पद लिखकर भक्तों के मध्य सुनाने लगे। साथ ही जूते बनाने का अपना परम्परागत व्यवसाय कर गृहस्थी भी चलाते। संत रैदास ने जातिवाद को मित्या बताया और कहा कि जीव की कोई जाति नहीं होती. न वर्ण, न कुल। ऋषि-मुनियों ने वर्ण को कर्मप्रधान बताया, हमारे शास्त्र भी यहीं बात करते है, जाति भेद की बात को तो मूढ़ और शठ करते हैं।
जति एक जाने एकहि चिन्हा, देह अवयव कोई नही भिन्ना।
कर्म प्रधान ऋषि मुनि गावें, यथा कर्म फल तैसहि पावें||
जीव न जाति बरन कुल नाहीं, जाति भेद है जग मुखखाई।
नीति-स्मृति शास्त्र सब गावें, जाति भेद शठ मूढ बतावें।।
संत रविदास कहते हैं कि संतों के मन में तो सभी के हित की बात रहती हैं। वे सभी के अंदर एक ही ईश्वर के दर्शन करते हैं तथा जाति पांति का विचार भी नहीं करते हैं।
संतन के मन होत हैं, सब के हित की बात।
घट-घट देखें अलख को पूछे जात न पा।।
संत रैदास ने लोगों को समझाया कि जन्मता कोई श्रेष्ठ या नीच नहीं होता। ओछे (छोटे) कर्म ही व्यक्ति को नीच बनाते ।
रविदास जन्म के कारनें, होत न कोई नीच।
नर को नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।।
उनके विचार से जन्मना कोई ब्राह्ण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र नहीं हैं। ऊंची जाति का व्यक्ति वहीं है जिसके अच्छे कर्म हैं।
ब्राहम्ण खतरी वैस सूद रविदास जनम ते नाहि।
जौ चाइह सुवरन करू पावई करमन माहिं।।
संत रैदास कहते है कि तुम्हारी जाति कोई भी क्यों न हो भगवद्भक्ति सभी का उद्धार करने में सक्षम है।
ब्राह्मण वैस सूद अरू खत्री डोम चंडार म्लेक्ष मन सोई।
होई पुनीत भगवत भजन ते आपु तारि तारे कुल दोई।।
संत रैदास ने छोटी या अधम कही जाने वाली जातियों में आत्मसम्मान के लिए भगवदभक्ति को आधार बनाकर संघर्ष किया। उन्होंने सिकन्दर लोधी के प्रलोभनों व दबाल का विरोध कर अपनी हिन्दू धर्म मे श्रद्धा निष्ठा तथा आस्था व्यक्त की तथा सच्ची भक्ति की निर्मल गंगा प्रभावित की। उन्होंने सैकटों भक्तिपदों की रचना की तथा भाव विभार होकर गाया। उन्होंने अपने ई।ट को गोविन्द, केशव, राम, कान्हा बनवारी, कृष्ण-मुरारी, दीनदयाल, नरहरि, गोपाल माधो, आदि विविध नामों के सम्बोंधित किया। लेकिन उनका ईश्वर तो घट-घटवासी निराकार ब्रह्म था। संत रैदास परमहंस की निस्हृपरिस्थिति में पहुंच गए और कहा कि मैंने संसार के सब रिश्तेनाते तोड़ दिए है। अब तो प्रभु चरणों का सहारा है।
न हरिप्रीति सबनि सा तोरी, सब सौ तोरी तुम्हें संग जोरी।
सब परिहरि मैं तुमही आसा, मन वचन कम करहें रैदास।।
समाज के उन दिनों शैव वैष्णव का भेद ही पर्याप्त था। पर उन्होंने इसे भी मिथ्या माना। संत रैदास के पूजा के कर्म काण्ड पर कभी विश्वास किया। उन्होंने पूजा के नाम पर हो रहे ढोंग का डट कर विरोध किया। वे कहते हैं किससे पूजा करूं. नदी का जन मछलियों ने गंदा कर दिया, फूल को भौंरें ने झूठा कर दिया। गाय के धूध को बचड़ें को झूठा कर दिया। अत में हृदय से पूडा कर रहा हूं।
संत रैदास अपने जाति की समाज में स्थिति को स्वीकारते हुए अपनी जाति को जातिगत संकोच से निकालतें हुए राम की शरण ले चलें। भक्ति से परिपूर्ण रैदास अधिकारपूर्वक अपने प्रभु से जुड़े हुए हैं और कहते हैं…
प्रभु तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग अंग बास समानी।।
प्रभुजी तुम घन वन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा।।
प्रभुजी तुम दीया हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती।।
प्रभु तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहि मिलत सोहागा।।
प्रभुजी तुम स्वामी हम हास। ऐसी भक्ति करे रैदास।।
संत रैदास ने अपनी जीवन में सिद्ध कर दिया कि त्याग, समर्पण और भगवद भक्ति से व्यक्ति ऊंचा उठता चलता है और फिर उसकी जाति महत्वहीन हो जाते है।
संत रैदास के भक्तिभाव को देखकर काशी नरेश उनके शिष्य बन गए। चित्तौड़ की झाली रानी उनकी शिष्या बन गई। कृष्ण भक्ति में आकंठ डूबी मीरा ने भी इन्हें अपनी गुरू स्वीकार किया तथा अनेक प्रकार का विरोध सहन करती हुई इनकी शरण में आ गई। इन्हीं से मीरा ने आर्शीर्वाद प्राप्त किया तथा भक्ति में लीन हो गई। मीरा और रैदस का मिलन सगुण और निर्गुण भक्ति धाराओं का मिलन तो है ही साथ ही जातिगत आधार पर भेद मानने वालों को अनुकरणीय सीख भी है।
संत रैदास मन के नियंत्रण पर जोर दिया। मन ही पूजा, मन ही धुप, मन ही सेऊ सहज सरूप से लेकर मन चंगा को कठौती में गंगा तक वे अपने चिंतन का केन्द्र मन को मानते है।
ऐसे चंचल मन को साधना द्वारा ही स्थिर रखा जा सकता है। वे कहते है जब तक मन निर्मल नहीं होता ऐच्छिक फल की प्राप्ति नहीं सकती। वे समझाते है रे मन, तु भले-बुरे का विचार कर, प्रभु के निर्मल यश का गुणगान कर। उन्होंने गुरु की खुब महिमा गाई। उनकी मान्यता थी कि जहां तक संभव हो मेहनत करके खाना चाहिए। श्रम रूपी नेक कमाई का फल कभी निष्फल नहीं जाता। उन्होंने मनुष्य जन्म को दुर्लभ बताया तथा कहां कि हमें इस दुर्लभ जीवन की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उन्होंने जहां मिले सबन को अन्न के आदर्श राज्य की कल्पना की।
संत रैदास ने अपने जीवन काल में सम्पूर्ण देश में देशाटन किया। स्थान-स्थान पर इनके चिन्ह, छतरी या स्मृति खडहर इसके उदाहरण है। प्रयाग मथुरा वृंदावन, श्रावस्ती, बनारस, तिरूपति, मुल्तान, जम्मु-कश्मीर, गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र, बिहार, नेपाल चितौड, पुष्कर आदि देशाटन कर समरसता का भाव जागृत किया। वे करूणा के सागर थे उनका लक्ष्य था दीन दुखी करि सेव महि लागी रहो रैदास इंसान ही नहीं वह जानवरों के प्रति भी करूणा प्रदर्शित करते थे। वे कहते है जो अपने स्वाद हेतु दूसरे प्राणी की हत्या करता है। उनका निर्णायक दिन पर कडी सजा जरूर मिलेगी वे प्रतिभावान व्यक्तित्व के धनी थे। यही कारण है कि उनके समकालीन लगभग सभी संतो ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की ओर उनके मार्गदर्शन का अनुगमन किया।
संत रैदास ने पराधीनता को पाप बताया। धार्मिक आडम्बरों का विरोध किया। सामाजिक समरसता का समर्थन किया। वर्ण भेद व जाति भेद का सशक्त विरोध किया। समाज को संगठित करने कि लिए मधुप मखीरा का सुत्र दिया। सवत् 1584 (1527 ई.) में उनका देहावसान हुआ। चितौड में उनकी छतरी बनी हुई है जहा इनके चरण चिन्ह मौजूद है।
संत रैदास को सम्पूर्ण देश मे सम्मान मिला तथा उनके चालीस पदो ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब में प्रतिष्ठा प्राप्त की। हजारो सवर्ण कहे जाने वाले लोग भी उनकी व्यक्तित्व कृतित्व से प्रभावित होकर इनके भक्त हो गए और अपने को रैदासी कहन में गौरव की अनुभुति की। संत कबीर ने भी संतन में रविदास संत है कहकर इनके प्रति श्रद्धा प्रकट की। संविधान शिल्पी भारत रत्न डा. भीमराव अम्बेडकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक द अनटचेबल्स को इन्हीं को समर्पित किया। उन्होंने गुरु रविदास जन्मोत्सव कमेटी का गठन कर पंजीकृत कराया तथा दिल्ली में इनकी जन्मोत्सव शोभायात्रा प्रारंभ की। धीरे-धीरे पूरे देश में उनके जन्मदिन पर शोभायात्राएं निकाली जाने लगी। दिल्ली में रविदास मंदिर करोल बाग की जमीन भी बाबा साहब ने खरीदकर दी थी।
विदेश में बसे प्रवासी भारतीयों ने भी रविदास सभा तथा रविदास मंदिर स्थापना कर संत रैदास की शिक्षाओं को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दी संत रैदास के 500 वर्ष पूरे होने पर भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी कर इनके कार्यों की अनुमोदना की। आज संत रैदास हमारे बीच में नही है लेकिन उनक विचारों के आलोक में हम आगे बढ़कर सामाजिक समरसता स्थापित करते हुए भारत को विश्वगुरु के पद पर आरूढ कर सकते है। संत रैदास के विचारों की दिनों-दिन बढती प्रासंगिकता व स्वीकार्यता इसी को पुष्ट करती है।
(लेखक-प्रधानाचार्य रा.बा.उ.मा.वि. सादडी) राजस्थान
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