संत रविदास जयंती पर विशेष : प्रभु जी! तुम मोती, हम धागा…

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डॉ. प्रणव पण्ड्या

 उनका जन्म वाराणसी में संवत् 1456 विक्रमी में एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम रघु जी और माता का नाम विनिया था। पिता रघु चमड़े का व्यापार करते थे, जूते भी बनाते थे।

मनुष्य जाति से महान नहीं होता है। वह महान बनता है अपने कर्म और गुणों से। भले ही फूल कैसी भी भूमि में खिले हों, उनसे खुशबू ही आती है। उसी तरह उच्चस्तरीय जीवात्माएं कहीं भी जन्म ले लें, उनके सद्गुणों की सुगंध चारों ओर स्वत: ही फैल जाती है। ऐसा ही एक अनुपम उदाहरण अपने जीवन से प्रस्तुत किया संत शिरोमणि रविदास जी ने। संत रविदास जी के समकालीन अनेक संत-महात्मा हुए, जैसे-गुरु गोबिंद सिंह, रामानंद, कबीर, तुकाराम, मीरा आदि।

वह समय ही ऐसा भीषण था, जब यवनकाल के उत्पातों से जनता किंकर्तव्यविमूढ़-सी हो रही थी। आंतरिक फूट, आदर्शों में विडंबना का समावेश, संगठन का अभाव आदि कितने ही ऐसे कारण थे, जिनके कारण बहुसंख्यक जनता मुट्ठी भर विदेशी आततायियों द्वारा बुरी तरह पददलित की जा रही थी। उत्पीड़न और अपमान के इतने कड़वे घूंट आए दिन जनसामान्य को पीने पड़ रहे थे कि चारों ओर अंधकार के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं पड़ता था। ऐसी परिस्थितियों में आशा की एक नवीन किरण के रूप भारत में ‘संत मत’ का प्रादुर्भाव हुआ, जिसने धर्म और ईश्वर पर डगमगाती हुई निराश जनता की आस्था को पुन: सजीव करने का सफल प्रयत्न किया। संत रविदास जी इसी माला का एक चमकदार मनका थे।

उनका जन्म वाराणसी में संवत् 1456 विक्रमी में एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम रघु जी और माता का नाम विनिया था। पिता रघु चमड़े का व्यापार करते थे, जूते भी बनाते थे। रविदास (रैदास) का मन बाल्यावस्था से ही आध्यात्मिकता की ओर मुड़ता जा रहा था। जब माता-पिता ने उनकी शादी करनी चाही तो पहले तो रविदास जी ने इनकार कर दिया, परंतु उनके बारंबार आग्रह करने पर उन्होंने गृहस्थ जीवन को अंगीकार कर लिया। उनका विवाह एक समृद्ध परिवार की कन्या लोणा के साथ संपन्न हुआ।

संत रविदास जी 120 वर्ष तक जिए। उनके जीवन के आखिरी प्रहर तक उनकी धर्मपत्नी लोणा साथ रहीं। अपने जीवन को उन्होंने इस तरह संयमित, सुव्यवस्थित बनाया कि पारिवारिक जीवन में सुख-शांति का अभाव नहीं हो पाया और आत्मोन्नति में भी कोई बाधा नहीं पड़ी। संत रविदास जी का कहना था कि सच्ची साधना तो मनोनिग्रह है और यदि मन को आत्मा का गुलाम बना लिया जाए तो घर-बाहर सर्वत्र वैराग्य ही वैराग्य है, परंतु यदि उसे इंद्रियों का दास बना रहने दिया जाए तो चाहे कोई कितनी भी भौतिक संपदाएं लेकर क्यों न जन्मा हो, उसका पतन सुनिश्चित है।

संत रविदास जी प्रतिदिन एक जोड़ा जूता अपने हाथ से बनाकर जरूरतमंदों को दान दिया करते थे, लेकिन उनकी यह उदारता उनके पिताजी को पसंद न आई। मनाने के बाद भी जब संत रविदास जी नहीं माने तो पिताजी ने उन्हें बिना छप्पर का एक बाड़ा रहने के लिए दिया और उनकी पत्नी के साथ उन्हें घर से निकाल दिया।

संत रविदास जी बचपन से ही बड़े उदार थे। वे सोचते थे कि सामर्थ्यवान लोगों को अपनी संपदा में दूसरे अभावग्रस्तों को भी भागीदार बनाना चाहिए अन्यथा संग्रह किया हुआ अनावश्यक धन उनके लिए विपत्ति रूप ही सिद्ध होगा। इसलिए वे प्रतिदिन एक जोड़ा जूता अपने हाथ से बनाकर जरूरतमंदों को दान दिया करते थे, लेकिन उनकी यह उदारता उनके पिता जी को पसंद न आई।

वे भी अपने बेटे को अन्य सांसारिक लोगों की तरह कमाते हुए देखना चाहते थे। लेकिन फिर भी जब संत रविदास जी नहीं माने तो उन्होंने उन्हें बिना छप्पर का एक बाड़ा रहने के लिए दिया और उनकी पत्नी के साथ उन्हें घर से निकाल दिया। इस पर संत रविदास जी के मन में कोई खिन्नता नहीं आई, बल्कि पहले की तुलना में वे और भी अधिक प्रसन्न रहने लगे। अब वे परिश्रम तथा मनोयोगपूर्वक बढ़िया जूते बनाकर न केवल अपना गुजारा कर सकते थे, वरन गरीबों को भी जूता दान देने की परंपरा निभाए रख सकते थे।

संत रविदास जी का जीवन संघर्षों से ही प्रारंभ हुआ और संघर्षों में ही बीता, पर इससे वे न तो निराश हुए और न सत्य पर से अपनी निष्ठा डिगाई। उनकी जाति के लोगों को भगवान की भक्ति का अधिकार नहीं है। इस भ्रांत धारणा वाले कतिपय लोगों ने उन्हें प्रारंभ से ही यातना देना प्रारंभ किया। उनके इस अनुचित दबाव का लाभ उस समय अन्य मजहब के लोगों को मिलता था। वे बहकाकर ऐसे पीड़ित लोगों का कन्वर्जन करा देते थे।

संत रविदास जी एक ओर अपने लोगों को समझाते और कहते, ‘‘तुम सब हिंदू जाति के अभिन्न अंग हो, तुम्हें दलित जीवन जीने की अपेक्षा मानवीय अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए।’’ तो दूसरी ओर वे कुलीनों से टक्कर लेते और कहते, ‘‘वर्ण-विभाजन का संबंध धर्म से नहीं, मात्र सामाजिक व्यवस्था से है।’’ ऐसी परिस्थिति में संत रविदास जी ने अपनी वाणी में आदर्शों का प्रतिपादन करते हुए विधर्मी बनने वाले लोगों से कहा, ‘‘हरि-सा हीरा छाड़ि कै, करै आन की आस। ते नर नरकै जाहिंगे, सत भाषै रैदास।।’’ विधर्मियों की पराधीनता की भर्त्सना करते हुए उन्होंने भारतीय समाज के लोगों को ललकारते हुए कहा, ‘‘पराधीन का दीन क्या, पराधीन बेदीन। पराधीन परदास को, सब ही समझें हीन।।’’

रविदास जी ने अपने जीवन से एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करके यह सिद्ध किया कि ‘जाति पांति पूछे नहीं कोय, हरि को भजे सो हरि का होय’ अर्थात् भगवान को हर कोई प्राप्त कर सकता है, वहां छूत-अछूत का कोई भेद नहीं, यह मात्र मानवीय संकीर्णता है। उनकी सचाई में निष्ठा की परख करते हुए रामानंद जैसे महान संत एक दिन स्वयं उनकी कुटिया में पधारे और उन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया। कहते हैं कि उन्होंने यह परंपरा मीरा को अपनी शिष्या बनाकर आगे बढ़ाई। संत रविदास गुरु मंत्र और उपदेशों के सहारे आत्मविकास करने लगे।

‘‘यदि ऊंचे बनना चाहते हो, तो बड़े कर्म करो, जाति से महानता नहीं मिलती। जो लोग जाति-पांति के आधार पर ऊंच-नीच का भेदभाव करते हैं, वे ईश्वर के प्यारे नहीं हो सकते, क्योंकि ईश्वर ने सभी को बनाया है।’-संत रविदास जी

संतई केवल किसी जाति विशेष का व्यक्ति ही नहीं कर सकता, बल्कि वह हर व्यक्ति कर सकता है, जो मन का पाक-साफ है। -प्रथम गुरु नानकदेव जी

उनके जीवन में अनेक चमत्कारी घटनाओं के प्रसंग घटित हुए। वे कथाओं के माध्यम से लोगों को धर्मोपदेश दिया करते थे। उनकी सीधी-सच्ची मधुर वाणी में अमृतोपम उपदेश सुनने के लिए हजारों लोग एकत्र होते, उनमें से अधिकांश अन्य जातियों के होते। इस प्रकार धर्म प्रचार से जहां एक ओर उनकी ख्याति बढ़ रही थी, वहीं दूसरी ओर उनके विरोधी भी बढ़ते जाते थे। उच्च वर्ण के लोगों को संत रविदास जी की बढ़ती प्रतिष्ठा असह्य लगती और इसीलिए वे उनसे मन ही मन कुढ़ते, निंदा, व्यंग्य और उपहास करते और तरह-तरह के लांछन लगाने में पीछे न रहते। इस पर रविदास जी हंस भर देते और कहते, ‘‘हाथी अपने रास्ते चला जाता है, उसे किसी के धूलि फेंकने या चिढ़ाने से विचलित होने की जरूरत नहीं होती। धैर्य, साहस और सचाई जिसके साथ है, उसका सारा संसार विरोधी होकर भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता।’’ इस तरह उन्होंने अपना धर्म प्रचार जारी रखा।

संत रविदास जी के बारे में कबीरदास जी कहते हैं, ‘‘साबुन में रविदास संत हैं, सुपच ऋषि सौ मानिया। हिंदू तुर्क दुई दीन बने हैं कछु नहीं पहचानिया।।’’ सिखों के प्रथम गुरु नानकदेव जी ने भी अपने काव्य में यह बात कही है कि संतई केवल किसी जाति विशेष का व्यक्ति ही नहीं कर सकता, बल्कि वह हर व्यक्ति कर सकता है, जो मन का पाक-साफ है। गुरुग्रंथ साहिब में भी संत रविदास जी के 40 पद सम्मिलित किए गए हैं।

संत रविदास जी ने अपने समय में पाखंडों और अंधविश्वासों पर करारी चोट की। उन्होंने घृणा का प्रतिकार घृणा से नहीं, बल्कि प्रेम से किया, इसीलिए वे हर इनसान के लिए प्रेरणास्रोत बन सके। उनका कहना था, ‘‘अहंकार छोड़ने पर ही भगवान के दर्शन हो सकते हैं।’’ उनका एक प्रसिद्ध पद है

‘‘अब कैसे छुटै नाम रट लागी।।
प्रभुजी! तुम चंदन, हम पानी।
जा की अंग-अंग वास समानी।।
प्रभुजी! तुम दीपक, हम बाती।
जा की जोति बरै दिन-राती।।
प्रभुजी! तुम मोती, हम धागा।
जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।।’’

वे यह भी कहते थे, ‘‘यदि ऊंचे बनना चाहते हो, तो बड़े कर्म करो, जाति से महानता नहीं मिलती। जो लोग जाति-पांति के आधार पर ऊंच-नीच का भेदभाव करते हैं, वे ईश्वर के प्यारे नहीं हो सकते, क्योंकि ईश्वर ने सभी को बनाया है।’’

इस तरह संत रविदास जी के उपदेश आज भी मनुष्य जाति के लिए प्रेरणादायी हैं। उनका जीवन मानवता के लिए मिसाल की तरह है, सदा सबके लिए स्मरणीय रहेगा।

(लेखक अखिल विश्व गायत्री परिवार के प्रमुख एवं देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार के कुलाधिपति हैं)

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