गणतंत्र दिवस के अवसर पर यह दोहराने में कोई हर्ज नहीं है कि हमारा गणतंत्र या संविधान न तो हमें उपहारस्वरूप मिला है और न ही हम इसे कमजोर होने की अनुमति देने का अधिकार रखते हैं। संविधान निश्चित रूप से हमारे पुरखों के संघर्ष के परिणाम की वीथी है, जिसे हमें और पुष्ट करके आने वाली पीढ़ियों को सौंपना है।
संविधान निर्माताओं ने देश की व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए तीन मुख्य स्तंभ निर्मित किए। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। संविधान निर्माताओं ने इनके बीच संतुलन स्थापित करने के लिए शक्तियों का बंटवारा और भूमिकाओं का स्पष्ट खाका खींचने का काम किया था। उन्होंने विधायिका को विशेषाधिकार का अधिकार दिया। कार्यपालिका को स्थायित्व दिया तो न्यायपालिका को उनकी विशेष भूमिका को देखते हुए अवमानना से बचने के लिए विशेष प्रावधान किए।
इसे देखते हुए संविधान निर्माताओं की भावना को समझें तो पता लगेगा कि वे कितनी स्पष्ट सोच रखते थे। हर जगह संतुलन था। तीनों स्तंभों के कार्य बंटे हुए थे। विशेषाधिकार थे, लेकिन ये विशेषाधिकार एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते थे।
वर्तमान स्थिति में विधायिका और न्यायपालिका में टकराहट दिख रही है। यह टकराहट न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की व्यवस्था को लेकर है। फिलहाल इसके लिए कॉलेजियम व्यवस्था है। कॉलेजियम व्यवस्था 1993 में लागू की गई और 1998 में इसे विस्तार दिया गया। कॉलेजियम व्यवस्था के तहत न्यायाधीशों की एक टीम नए न्यायाधीशों का चयन करती है, प्रोन्नति के निर्णय करती है और वही स्थानांतरण करती है।
संविधान निर्माताओं ने देश की व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए तीन मुख्य स्तंभ निर्मित किए। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। संविधान निर्माताओं ने इनके बीच संतुलन स्थापित करने के लिए शक्तियों का बंटवारा और भूमिकाओं का स्पष्ट खाका खींचने का काम किया था। उन्होंने विधायिका को विशेषाधिकार का अधिकार दिया। कार्यपालिका को स्थायित्व दिया तो न्यायपालिका को उनकी विशेष भूमिका को देखते हुए अवमानना से बचने के लिए विशेष प्रावधान किए।
वर्तमान टकराव केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजीजू द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश आर.एस. सोढ़ी के एक साक्षात्कार को साझा किए जाने से उभरा है। पूर्व न्यायमूर्ति सोढ़ी ने साक्षात्कार में कॉलेजियम व्यवस्था पर कई प्रश्न खड़े किए थे और कहा था कि कॉलेजियम व्यवस्था से न्यायपालिका की स्वतंत्रता में कोई सुधार नहीं हुआ है और इसमें बदलाव की जरूरत है। क्या बदलाव होने चाहिए, यह बहस का मसला है। इसे संसद पर छोड़ देना चाहिए ताकि वहां बहस हो सके और संसद न्यायाधीशों की राय ले सके। परंतु न्यायपालिका इससे सहमत नहीं दिख रही।
इस टकराव में तीन प्रश्न उभरते हैं।
क्या न्यायपालिका यह सिद्ध कर सकती है कि यह कॉलेजियम व्यवस्था संविधान सम्मत है? यदि यह संविधान सम्मत है तो इससे पूर्व चल रही व्यवस्था क्या संविधान से बाहर थी? संविधान ने न्यायपालिका को स्वयं न्यायाधीश चुनने का अधिकार नहीं दिया है। तर्क कोई भी दे लेकिन इससे एक बड़ी विद्रूपता और विचित्र स्थिति उत्पन्न हुई है।
दूसरी बात, क्या न्यायपालिका यह कह सकती है कि इस देश के संविधान में उसके सामने कार्यपालिका की स्थिति केवल एक हरकारे की है, जिसका काम उसका संदेश ले जाना और उसके कहे के मुताबिक अमल करना हो। ये है क्या? क्या यही संविधान निर्माताओं की इच्छा थी? क्या इसे सिद्ध किया जा सकता है?
तीसरा प्रश्न सबसे बड़ा है। इस सारी विचित्र स्थिति में न्यायपालिका के प्रति सोशल मीडिया पर आक्षेपण का दौर चला है। लोग उसे संदेह की दृष्टि से या उपेक्षा की दृष्टि से देख रहे हैं, इसकी मुनादी सोशल मीडिया की टिप्पणियां कर रही हैं। इस अवमानना का जिम्मेदार कौन है? अवमानना के विरुद्ध न्यायपालिका के पास विशेषाधिकार है परंतु इस अवमानना, या विश्वसनीयता पर बट्टा लगने का जिम्मेदार कौन है?
अभी भी अवसर है, सभी को साथ मिल-बैठकर समझना चाहिए कि देश के कानून मंत्री यदि कोई बात कह रहे हैं, तो वह अगंभीर नहीं हैं। वे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के मर्म को रेखांकित करने की कोशिश कर रहे हैं। कानून मंत्री जब कहते हैं कि मंत्री चुन कर आते हैं और उनकी जनता के प्रति जवाबदेही होती है, तो वे यह बता रहे होते हैं कि लोकतंत्र में जनता के प्रति जवाबदेही सर्वोपरि है। और जब कानून मंत्री इस मर्म को रेखांकित करने की कोशिश कर रहे हैं तो इसकी राह में किसी का अहम आड़े नहीं आना चाहिए। यह सुनिश्चित करेंगे तो लोकतंत्र मजबूत होगा।
@hiteshshankar
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