गोरखनाथ मंदिर पर हमले के दोषी अहमद मुर्तजा अब्बासी को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की स्पेशल कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई है। इस पूरे प्रकरण में यह भी देखने को मिला कि कैसे इस आतंकी को विक्षिप्त बताकर बचाने के प्रयास हुए । बेटे के आतंकी होने के शक पर पिता ने साफ कहा था कि उनका बेटा आतंकी नहीं, वह किसी और के बहकावे में भी नहीं है, क्योंकि वह मानसिक रोगी है। लेकिन चिकित्सकों ने साफ पाया कि वह कभी मनोरोगी नहीं रहा। बल्कि बीते साल अप्रैल महीने में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से जुड़े मंदिर पर किया गया उसका हमला जानबूझकर किया गया था। मुर्तजा हाथों में बांका लिए नारा-ए-तकबीर, अल्लाह-हू-अकबर के नारे लगा रहा था।
वस्तुत: इस निर्णय के आ जाने के बाद एक बार फिर यह साफ हो गया कि उच्च शिक्षा या पारिवारिक संपन्नता भी किसी को आतंकी होने से नहीं रोक सकती। अहमद मुर्तजा अब्बासी गोरखपुर के एक रसूखदार परिवार से ताल्लुख रखता है। 2015 में उसने आईआईटी बॉम्बे से केमिकल इंजीनियरिंग में डिग्री ली । दो बड़ी कंपनियों में नौकरी की । मुर्तजा के पिता मो. मुनीर कई बैंकों और मल्टीनेशनल कंपनियों के लीगल एडवाइजर हैं। चाचा एक प्रसिद्ध डॉक्टर हैं और दादा गोरखपुर के जिला जज रह चुके हैं। इतने पढ़े लिखे और सम्पन्न परिवार का होने के बाद भी अहमद मुर्तजा आतंक के रास्ते पर चलता है?
बहुसंख्यक हिन्दू समाज के बीच सबसे अधिक सुकून में हैं मुसलमान
ऐसे में बार-बार यह विचार सामने आता है कि भारत में अहमद मुर्तजा जैसे पढ़े लिखे नौजवानों के बीच आतंकवाद का क्या काम ? यहां पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश या अन्य देश जहां भी इस्लामिक आतंकवाद है अथवा संख्या बल से जहां अल्पसंख्यकों को खासकर मुस्लिमों ने अपने से कम संख्यावालों को सताना और उनका सफाया चालू रखा है, वैसे हालात तो भारत में कहीं नजर नहीं आते? यहां तो इस्लामिक अल्पसंख्यक बहुत सुकून में हैं। बल्कि केंद्र और राज्य सरकारों की तमाम योजनाएं उन्हीं के कल्याण के लिए बहुसंख्यकों से प्राप्त आयकर से उनके हित में चलाई जा रही हैं! यानी कि भारत में बहुसंख्यकों की बहुत बड़ी पूंजी अल्पसंख्यकों के लाभ के लिए ही खर्च हो रही है, जिसमें कि सबसे अधिक लाभ संख्या बल में अधिक होने के कारण से इस्लाम को माननेवाले ही उठा रहे हैं, फिर यह आतंक का रास्ता किस लिए और किसके लिए चुना जा रहा ? क्या उनके लिए जिनके श्रम से श्रजित की गई बहुत बड़ी पूंजी इन्हीं अल्पसंख्यकों के हित में लगाई जा रही है?
नारा-ए-तकबीर, अल्ला हू अकबर का नारा कहता है…
सोचनेवाली बात है कि फिर यह इस्लाम, भारत में खतरे में कैसे है? जिसके लिए अहमद मुर्तजा जैसे आतंकी जद्दोजहद करते दिखते हैं। ऐसे लोगों पर शिक्षा का कोई असर नहीं होता । वे खुले तौर पर हमला करते वक्त मुर्तजा की तरह ही नारा-ए-तकबीर, अल्ला हू अकबर चिल्लाते हैं और सामनेवाले को मौत के घाट उतार देते हैं। “अल्लाह हू अकबर” का अर्थ है – अल्लाह सबसे बड़ा है। अल्लाह के सिवा कोई भी पूज्य नहीं हैं। नारा-ए-तकबीर और ‘अल्लाहु अकबर’ दोनों एक दूसरे के पूरक हैं या कहें कि दोनों एक ही हैं ! “अल्लाह हू अकबर” अक्सर आप ने अजान में सुना होगा। नमाज पढ़ते वक्त भी “अल्लाह हूँ अकबर” कहा जाता है।
ये पढ़े लिखे मजहबी आतंकी आखिर क्या चाहते हैं ?
हमें याद रखना चाहिए कि 1991 में भारतीय संसद पर हमले को अंजाम देने वाला अफजल गुरु झेलम वेली मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस पास था । जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी मो. मसूर असगर ने जुलाई 2008 में अहमदाबाद सीरियल ब्लास्ट को अंजाम दिया था। उसने पुणे के विश्वकर्मा इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल की । रियाज भटकल इंडियन मुजाहिदीन का सहसंस्थापक है। जयपुर, बैंगलोर, अहमदाबाद, 2006 के मुंबई सीरियल ब्लास्ट, 2007 के हैदराबाद ब्लास्ट और 2008 के दिल्ली ब्लास्ट में इसका हाथ था। आतंकी बनने से पहले रियाज इंजीनियर था। इसी तरह से 1993 मुंबई बम कांड में दोषी पाए जाने के बाद फांसी की सजा पाने वाला याकूब मेमन चार्टर्ड अकाउंटेंट था। उसने द इंस्टिट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया से यह डिग्री हासिल की थी । वास्तव में आज भारत में ऐसे सेकड़ों आतंकियों के नाम गिनाए जा सकते हैं, जोकि एक मजहब विशेष से हैं। प्रश्न यह है कि ये पढ़े लिखे मजहबी आतंकी आखिर करना क्या चाहते हैं और क्यों ?
प्रार्थना के शब्दों का उपयोग हो रहा आतंक के रास्ते पर
बात यहां किसी के मत की आलोचना करने की नहीं है, बल्कि यह है कि यह कैसा मत और मजहब है, जहां पर प्रार्थना में जिन शब्दों का उपयोग किया जाता है, उसे ही आतंकवादी, आतंक के रास्ते पर चलते वक्त या किसी घटना को अंजाम देते समय कहते नजर आते हैं? और ऐसे में कोई अन्य उनके मजहबी साथी उन्हें इस तरह का कृत्य करने से रोकते भी नहीं दिखते ? न इसके लिए देश में कोई जुलूस, न ज्ञापन । एक दम मूक…शांति। फिर इन जैसे आतंकवादियों के हौसलों को बढ़ने से कैसे रोका जा सकता है ?
यह आतंक का रास्ता पुराना है
इतिहास ऐसे कई उदाहरणों से भरा पड़ा है। याद आते हैं स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती, जिनकी मुस्लिम आतंकवादी अब्दुल रशीद ने हत्या कर दी थी। खिलाफत आंदोलन के नाकाम होने पर केरल के मालाबार इलाके में मुसलमानों ने हिंदुओं का कत्लेआम कर शुरु कर दिया था, जिसे इतिहास में मोपला नरसंहार के नाम से जाना जाता है, इसकी दर्दनाक कहानियां सुनकर स्वामी जी अंदर तक हिल गये। कई घटनाओं से से व्यथित होकर स्वामी श्रद्धानंद ने अपने आर्य समाज के ज़रिए शुद्धि आंदोलन की शुरुआत की। इससे कट्टरपंथी तबलीगी मुसलमानों की बुनियाद हिल गई और 23 दिसंबर 1926 को अब्दुल रशीद ने स्वामी जी पर हमला करके उनकी जान ले ली।
बात इसके बाद की और अहम है, क्योंकि आतंकवादी अब्दुल रशीद को जब स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के आरोप में फां सी दी गई तब उसके जानाजे में हज़ारों की संख्या में भीड़ उमड़ी। कई मस्जिदों में उसके लिए विशेष दुआएं मांगी गईं। 30 नवम्बर, 1927 को अनेक समाचार पत्रों ने छापा भी कि स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद की रूह को जन्नत में स्थान दिलाने के लिए देवबंद के प्रसिद्ध मदरसे दारुल उलूम में छात्रों और आलिमों ने कुरान की आयतों का पांच बार पाठ किया। उन्होंने दुआ मांगी कि “अल्लाह मरहूम अब्दुल रशीद को अला-ए-इल्ली-ईल (सातवें आसमान की चोटी) पर स्थान दें।” आज संकट यही है कि धर्म के आधार पर देश का विभाजन होने के बाद फिर से कट्टरता खड़ी दिखाई दे रही है जिसमें कि चेहरे और तरीके वही पुराने हैं।
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