बगदाद और यूरोप कैसे पहुंचा भारतीय गणित?

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बालेन्दु शर्मा दाधीच

बगदाद के गणितज्ञ मोहम्मद इब्न मूसा अल-ख्वारिज्मी ने ब्रह्मगुप्त के ‘ब्रह्मस्फुटसिद्धांत’ का अध्ययन किया था, जो उनके जन्म से पहले ही बगदाद पहुंच चुका धा। इसकी प्रति बगदाद के खलीफा के दरबार तक कैसे और कब पहुंची, इस पर अलग-अलग मत हैं। सन् 762 में बगदाद की स्थापना अल मंसूर नामक खलीफा ने की थी।

एक मत है कि उज्जैन के विद्वान कनक जब बगदाद गए, तब उन्होंने अल-मंसूर के दरबार में उसे इसकी एक प्रति भेंट
की थी। बाद में अल-फजारी नामक एक अरबी और एक भारतीय विद्वान ने मिलकर इसका अरबी में अनुवाद किया।
इस अनुवाद ने अरब देशों में गणित और नक्षत्र विज्ञान में आगे होने वाले अध्ययनों तथा शोध को गहराई से प्रभावित किया। अल-ख्वारिज्मी भी इसका लाभ उठाने वाले विद्वानों में शामिल थे।

ब्रह्मगुप्त का उपरोक्त प्रसंग भारतीय ज्ञान परंपरा में गणित, विज्ञान तथा ऐसे ही अन्य विषयों की महत्ता को स्पष्ट करने के लिए दिया गया है। हालांकि ईसा पूर्व और ईसा के पश्चात भारतीय गणितज्ञों, चिकित्सकों, शल्य चिकित्सकों, नक्षत्र वैज्ञानिकों, रसायनज्ञों आदि की अत्यंत समृद्ध तथा सुदीर्घ परंपरा रही है। आधुनिक विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के संदर्भ में उसका महत्वपूर्ण योगदान है, भले ही हमारा यह योगदान वैश्विक स्तर पर पर्यात प्रचारित नहीं हो सका है।

ब्रह्मगुप्त से पूर्व आर्यभट्ट विश्व को शून्य की अमर सौगात दे चुके थे। सन् 476 ईस्वी में जन्मे आर्यभट्ट भारत के महानतम नक्षत्र विज्ञानियों में से एक थे। जहां पश्चिम में गैलीलियो ने सन् 1616 में कहा था कि धरती सूर्य के चारों ओर घूमती है (सूर्य पृथ्वी के चारों ओर नहीं), वहीं आर्यभट्ट ने पांचवीं शताब्दी में ही अपने ग्रंथ ‘आर्यभटीयम्’ में लिख दिया था कि धरती अंतरिक्ष में एक गोले के समान लटकी हुई है। वह अपनी कक्षा में भी घूमती है, जिसकी बदौलत दिन और रात होते हैं। उन्होंने सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण का वैज्ञानिक आधार भी प्रस्तुत किया था। प्रसंगवश, गैलीलियो के कथन को कैथोलिक चर्च ने ‘मूर्खतापूर्ण और बकवास दर्शन’ कहकर संबोधित किया था। इन्हीं आर्यभट्ट ने पाई का मान चार दशमलव तक निकाल दिया था और धरती की परिधि का माप भी प्रस्तुत किया था। उन्होंने इसे 24,835 मील बताया और आधुनिक विज्ञान इसे 24,902 मील मानता है। एक हजार वर्ष से भी अधिक समय तक आर्यभट्ट द्वारा मापी गई धरती की परिधि सर्वाधिक सटीक मानी जाती रही है।

कंप्यूटर दुनिया की किसी भाषा को नहीं समझता और यदि किसी भाषा को समझता है तो वह दो अंकों की भाषा है, यानी कि बाइनरी अंकों की भाषा। इसमें सिर्फ दो अंकों, शून्य और एक के प्रयोग से बड़ी से बड़ी गणनाएं की जाती हैं व हर किस्म की सूचनाओं को भंडारित तथा प्रसंस्कृत (प्रोसेस) किया जा सकता है।

बीजगणित के क्षेत्र में एक अन्य भारतीय गणितज्ञ, भास्कराचार्य का योगदान अप्रतिम माना जाता है। उनके द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सिद्धान्तशिरोमणि’ है, जिसमें लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा गोलाध्याय नामक चार भाग हैं। ये चारों भाग क्रमश: अंकगणित, बीजगणित, ग्रहों की गति से संबंधित गणित तथा गोले से संबंधित हैं।

अंकों तथा बीजगणित की चर्चा करते हुए हमने नक्षत्र विज्ञान का भी उल्लेख कर लिया, किंतु विषयांतर न हो इसलिए विज्ञान, गणित तथा प्रौद्योगिकी की ओर लौटते हैं। यदि भारतीय अंक नहीं होते, शून्य की परिकल्पना न की गई होती, दाशमिक प्रणाली नहीं होती (पुन: यह भी भारत से आई है) तो विज्ञान को आज हम जिस रूप में जानते हैं और जिस सूचना प्रौद्योगिकी का प्रयोग दैनंदिन कार्यों के लिए करते हैं, वे दोनों ही संभवत: ऐसे शक्तिशाली रूप में मौजूद न होतीं, जैसी कि वे हैं। कंप्यूटर के क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली बाइनरी अंक प्रणाली का प्रारंभिक रूप भी भारत में ही मिलता है, जब गणितज्ञ ऋषि पिंगल ने तीसरी सदी ईसा पूर्व में दो अंकों पर आधारित गणनाओं का प्रयोग किया।

कहा जाता है कि संस्कृत के छंदों का अध्ययन करते हुए उन्होंने इस बाइनरी अंक प्रणाली को विकसित किया। यह बात अलग है कि पश्चिमी दुनिया में बाइनरी अंक प्रणाली के विकास या खोज का श्रेय 17वीं शताब्दी के जर्मन गणितज्ञ और वैज्ञानिक गॉटफ्राइड विलहेम लीबनिज को दिया जाता है। डिजिटल प्रौद्योगिकी में बाइनरी अंकों का ही प्रयोग होता है और वही कंप्यूटर की भाषा भी है।

बाइनरी प्रणाली की बदौलत ही कहा जाता है कि कंप्यूटर दुनिया की किसी भाषा को नहीं समझता और यदि किसी भाषा को समझता है तो वह दो अंकों की भाषा है, यानी कि बाइनरी अंकों की भाषा। इसमें सिर्फ दो अंकों, शून्य और एक के प्रयोग से बड़ी से बड़ी गणनाएं की जाती हैं व हर किस्म की सूचनाओं को भंडारित तथा प्रसंस्कृत (प्रोसेस) किया जा सकता है।
(लेखक माइक्रोसॉफ्ट इंडिया में ‘निदेशक-भारतीय भाषाएं
और सुगम्यता’ के पद पर कार्यरत हैं।)

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