आरिफ जी, पाञ्चजन्य से अपने जुड़ाव के बारे में बताएं।
पाञ्चजन्य से जुड़े हुए मुझे तीस साल से ज्यादा हो गए। जितना हम अपनी सांस्कृतिक विरासत से अपरिचित हैं, उससे परिचित कराना उतना ही मुश्किल है। यह दुनिया की इतनी प्राचीन संस्कृति है, इसमें निरंतरता है, लेकिन इसकी बुनियादी चीजों से हम खुद अनभिज्ञ हैं। आप केवल एक पत्र का काम नहीं कर रहे हैं। हमें हमारे सांस्कृतिक मूल्यों, सांस्कृतिक परंपराओं के बारे में बोध कराने के काम की जिम्मेदारी आपने अपने हाथ में ली हुई है, और उस लिहाज से आपकी भूमिका एक साप्ताहिक पत्र से कहीं ज्यादा बड़ी है। यह अनभिज्ञता आज भी हमें बड़े पैमाने पर देखने को मिलती है, इसलिए आपका काम खत्म नहीं हुआ है। जब किसी के बारे में मेरे मन में यह बात पैदा हो जाए यह हमसे भिन्न है, गैर है, तो उससे भय उत्पन्न होता है। भय से नफरत पैदा होती है और, नफरत से हिंसा पैदा होती है। जाहिल लोग, जिसके बारे में उनको ज्ञान नहीं होता, उसके दुश्मन बन जाते हैं। इसलिए आपकी जिम्मेदारी बहुत महत्वपूर्ण है।
पिछले कुछ दिन में मुस्लिम श्रेष्ठता बोध का प्रश्न सामाजिक विमर्श में आया है। मैं आपसे सामाजिक विमर्शों के चिंतक के तौर पर पूछता हूं, क्या एक वर्ग ने मुस्लिम समाज में एक अलग तरीके के श्रेष्ठता बोध कोे भरने का काम किया है और क्या वह श्रेष्ठता बोध उन्हें बाकी समाज से अलग-थलग करता है?
यह महत्वपूर्ण प्रश्न है, लेकिन नया नहीं है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसे देखें कि मुस्लिम इतिहास में पहला कुफ्र फतवा किसके खिलाफ लगा? सातवीं सदी और इस्लामी पहली सदी का पहला फतवा कुफ्र उस व्यक्ति के खिलाफ आया जिसकी परवरिश ही पैगंबर साहब ने खुद की थी, जो उनके दामाद भी थे। पहला कुफ्र का फतवा मुसलमानों की तवारीख में हजरत अली के खिलाफ लगाया गया। उसी फतवे के नतीजे में उनको कत्ल किया गया। कुरान में कहा गया है कि दुनिया में तुम्हारे बीच मतभेद हो सकते हैं। लेकिन जब तुम लौट कर, यानी मरने के बाद हमारे पास आओगे तब हम फैसला करेंगे कि सही कौन था, कौन गलत था। किसी इंसान को यह अधिकार ही दिया ही नहीं गया कि वह दूसरे के ईमान का फैसला कर सके।
कुरान तो यह अधिकार पैगंबर साहब को भी नहीं देता। कुरान कहता है कि उहद की लड़ाई के मौके पर जब उन पर हमला हुआ, और लड़ाई में बहुत चोट लगी थी और दो दांत टूट गए, तो जब होश में आए तो उन्होंने कहा कि वह कौम कैसे सफल होगी जो अपने नबी को जख्मी करे। किसको अपनी कौम बता रहे हैं? जिन्होंने जख्मी किया था, जो उन पर आस्था नहीं रखते थे। इसका मतलब क्या हुआ? कौम किससे बनी? कौम आस्था से नहीं बनी। यह नया कंसेप्ट पाकिस्तान में आया कि हम अलग कौम हैं। भागवत जी तो हिंदू परिवार में पैदा हुए। उन्होंने कहा कि वे काफिर कहते हैं। मैं तो मुस्लिम परिवार में पैदा हुआ हूं। कितने कुफ्र के फतवे मेरे खिलाफ हैं। 1980 में तो मेरा बीजेपी से भी कोई ताल्लुक नहीं था। कानपुर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा। वह जमाना बड़ा अलग था। वह जमाना ऐसा था कि हिंदी का शब्द भी आपके भाषण में आ जाए, तो कुफ्र का फतवा लग सकता था। मैं पूरा हिंदी भाषण करता था। वहां गंगा के किनारे जब मैं गया तो दैनिक जागरण ने अगले दिन फ्रंट पेज पर छापा बच्चियां आरती लिए हुए खड़ी हैं, वे वहां तिलक लगाती थीं, आरती उतारती थीं। अगले दिन फतवा आ गया। हिंदी बोलते हैं, आरती कराते हैं, तिलक कराते हैं और मेरे नाम में भी उन्हें खराबी नजर आई थी। तीन ग्राउंड पर मुझे फतवा दिया गया। दारा शकोह पर कुफ्र का फतवा लगा कर दाराशकोह का गला कटवाया गया।
यह केवल और केवल राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा। मौलाना शिबली ने कहा कि अगर आपके खिलाफ कुफ्र के दो-चार फतवे नहीं हैं तो इसकी कल्पना भी मत करिए कि आप कभी जन्नत में जा सकते हैं। पंद्रहवीं सदी के अब्दुल कुद्दूस गंगोही कहते हैं कि ये सारे फर्क गलत हैं। सब एक ही लड़ी में पिरोये हुए मोती हैं। लेकिन शेख अहमद सरहिंदी कहते हैं कि इस्लाम की इज्जत, मुसलमानों की इज्जत कुफ्र और गैरमुस्लिमों की ख्वारी और जिल्लत में है। जो मुस्लिम नहीं है उसको जलील करो, उस पर दबाव डालो, उससे मुसलमानों की इज्जत बढ़ेगी। जिसने कुफ्फार को इज्जत दी, उसने इस्लाम को जलील किया- यह अहमद सरहिंदी कहते हैं। दोनों पंद्रहवी-सोलहवीं सदी के और दोनों सूफी कहे जाते हैं। हालांकि मैं नहीं मानता हूं कि दोनों सूफी थे। यह लड़ाई मुसलमानों में या इस्लाम में पहले से चली आ रही है। जब जिहाद का नाम लेकर दूसरे मुल्कों पर कब्जा किया गया। उस वक्त भी वे लोग मौजूद थे, वासिल इब्न ‘अता’, इब्ने उमर और अन्य लोग थे, जिन्होंने कहा कि तुम अपने राज्य का विस्तार करने के लिए जिहाद के नाम का इस्तेमाल कर रहे हो। लेकिन वे ताकतवर नहीं थे। समाज उनके साथ खड़ा नहीं हुआ। हमें यह स्वीकार करना चाहिए।
उन लोगों की ताकत नहीं रही होगी, मगर जब आरिफ मोहम्मद खान बोलते हैं तो समाज खड़ा हुआ दिखता है। फिर इस देश में मुस्लिम समाज की दिक्कत क्या है?
इस प्रश्न में यह सोच अंतर्निहित है जैसे मुस्लिम समाज एक मोनोलिथिक एंटिटी हो। कोई भी समाज मोनोलिथिक नहीं है। सबके अंदर पहली सदी से ही दो राहें रही हैं। शुरू से विलेन पॉलिटिशियन रहे। इस्लाम में मूल रूप से मिडिल मैन का कंसेप्ट ही नहीं था। क्यूँ खालिक ओ मख़्लूक में हाइल रहें पर्दे, पीरान-ए-कलीसा को कलीसा से उठा दो। यानी मालिक और व्यक्ति के बीच से क्लैर्जिकल प्रतिष्ठान को हटा दो। यह क्लैर्जी पैदा की गई शासकों के सही और गलत कामों पर यह फतवा देने के लिए कि यह जो भी कर रहे हैं, वह बिल्कुल ठीक और रिलीजन के अनुसार है।
आपने कहा कि सीधा राबिता कायम करने की छूट है। सीधी बातचीत है तो फिर पॉलिटिकल इस्लाम क्या है? जो दुनिया अनुभव कर रही है, क्या वास्तव में पॉलिटिकल इस्लाम की संकल्पना ऐसी ही है?
मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि पैगंबर साहब के फौरन बाद इस्लाम रिलिजन को पॉलिटिक्स ने टेकओवर कर लिया। और यह मैं नहीं कह रहा हूं। यह बहुत लोगों ने, सर सैयद ने भी यही बात कही है। उनके खिलाफ भी 68 फतवे थे। आदमी रोये या हंसे, समझ में नहीं आता। कंपनी ने ऐलान किया कि एक लाख रुपया नेटिव्स की स्थितियां सुधारने के लिए हर साल खर्च किया जाएगा और पांच छह साल के बाद उन्होंने ऐलान किया कि एक संस्कृत कॉलेज कलकत्ता में बनाया जाएगा। राजा राममोहन राय के घर मीटिंग हुई। भद्र लोग उसमें शामिल हुए और उन्होंने पिटीशन लिखी और निवेदन किया कि आप संस्कृत की फिक्र मत कीजिए।
संस्कृत हम अपने बच्चों को खुद पढा लेंगे। आप तो वेस्टर्न यूनिवर्सिटी की तरह मॉडर्न एजुकेशन के एक-दो कॉलेज बना दीजिए। इसके आठ साल बाद मौलवियों को पता चला कि आधुनिक शिक्षा शुरू हुई है और सर सैयद ने एजुकेशन कमीशन के सामने प्रमाण दिया है कि उन्होंने कलकत्ता में मीटिंग की, जिसमें आठ हजार मौलवी इकट्ठे हुए और उन्होंने कंपनी सरकार को रिप्रेजेंटेशन दिया, जिसमें कहा कि सरकार ने और मिशन्स ने जो यह मॉडर्न एजुकेशन शुरू की है, यह इस्लाम के खिलाफ है। इसको बंद करना चाहिए और अगर आप बंद नहीं करते हैं तो इस पर इसमें मुसलमान बच्चों के दाखिले पर पाबंदी होनी चाहिए। और अगर आप पाबंदी नहीं करेंगे तो हम मुहिम चलाएंगे और हम उन मुसलमानों के खिलाफ स्टैंड लेंगे, जो अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजेंगे। सर सैयद ने कहा, हमारे पिछड़ेपन के लिए कोई और जिम्मेदार नहीं, हम खुद जिम्मेदार हैं। उसके बाद सर सैयद कहते हैं मेरी अपील पर मुझे कौम की अदम फैयाजी का गिला है। लेकिन सर सैयद को एक ग्रुप ने इसलिए छिपाया क्योंकि उनके दिमाग में एक नया आइडिया आ गया था टू नेशन थ्योरी का। सर सैयद को गुरदासपुर में आर्य समाज वालों ने रिसेप्शन दिया तो सर सैयद कहते हैं मेरी आपसे शिकायत है, आप मुझे हिंदू क्यों नहीं कहते? जो हिंदुस्तान में है, हिंदुस्तान की जमीन का अनाज खाता है, हिंदुस्तान का पानी पीता है, उस को यह अधिकार है कि उसको हिंदू कहा जाए। उन्होंने यह इसलिए छिपाया क्योंकि उनकी टू नेशन थ्योरी इससे कमजोर होती थी।
केरल में आपके पास एक संवैधानिक दायित्व है। आप बहुत शांत स्वभाव के समझे जाते हैं। यह टकराव की खबरें क्यों आती हैं?
कोई टकराव नहीं है। मेरे पहुंचते ही सीएए आ गया। अब केरल में सरकार और विपक्ष दोनों एक ही पेज पर हैं। लिहाजा उन्हें परेशानी थी। मेरा काम सीएए का समर्थन नहीं था। मेरा काम है डिफेंड करने का। मैंने जो शपथ ली है उस शपथ में है टू डिफेंड, प्रोटेक्ट एंड प्रिजर्व द कांस्टिट्यूशन एंड द लॉ। तो अगर किसी भी उस कानून पर हमला होगा, जिस पर राष्ट्रपति जी के दस्तखत हैं, जिससे संसद ने पास किया है, और गलत ग्राउंड पर हमला होगा और लोगों के मनों में भ्रांति पैदा की जाएगी, तो मैंने इसे अपना संवैधानिक दायित्व माना और मेरा संवैधानिक दायित्व है कि जब उस पर हमला किया जाए तो मैं उसको डिफेंड करूं। मैंने चीफ मिनिस्टर साहब को कहा कि मैं गीता का एक श्लोक आपको सुना रहा हूं-श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥ मैंने उनसे कहा कि आपका जो धर्म था, धर्म का अर्थ रिलीजन नहीं होता, धर्म माने ड्यूटी, धर्म माने अकाउंटबिलिटी; आपकी अकाउंटबिलिटी जिनके प्रति है आप वह बात कहिए। मेरी अकाउंटबिलिटी संविधान के प्रति, राष्ट्रपति के प्रति है। मैं अपना धर्म निर्वाह करूंगा और मैं आपको यह आश्वस्त करता हूं कि आप पब्लिकली मेरी आलोचना कीजिए, मैं हर्गिज बुरा नहीं मानूंगा। आप अपना धर्म निभाइए। मैं अपना धर्म निभा रहा हूं। तो मेरा कोई झगड़ा नहीं। हां, उन्हें लगता है। वह विधानसभा में प्रस्ताव पारित करते है। यह काम विधानसभा का नहीं है। तो उस पर मैंने अपनी राय दे दी। उसके बाद से मेरे ख्याल से कोई तनाव ज्यादा हुआ नहीं।
दिल्ली में कुछ लोग इकट्ठे हुए थे जो खुद को इतिहासकार कहते हैं। हबीब या रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों को मंच पर भी लोगों ने देखा। इरफान हबीब जी को आरिफ मोहम्मद खान साहब को देख कर गुस्सा क्यों आता है?
इसलिए आता है कि कुछ विचारधाराएं ऐसी हैं या कुछ दिमाग ऐसे हैं, जहां बगैर दुश्मन पैदा किए हुए वह जिंदा नहीं रह सकते। उन्हें वर्ग दुश्मन ही चाहिए। उनका दिमाग ऐसा ही होता है। दूसरे शब्द इस्तेमाल करूं तो जब तक शैतान पर लाहौल न पढूं, मुझे लगता है मेरी इबादत ही नहीं हुई। अलीगढ़ में मुझसे सवाल किया गया कि इरफान हबीब साहब यह चाहते हैं मुसलमान अपने इतिहास को भूल जाएं। मैंने कहा भाई इतिहास तो ऐसी चीज है जिसे ऊपर वाला भी नहीं मिटा सकता। लेकिन तो क्या आप यह कह रहे हैं कि यह लोग अतीत में जिंदा रहें। इस सर सैयद ने बड़ा ताकतवर वाक्य इस्तेमाल किया।
सर सैयद ने कहा कि अपने बुजुर्गों की हड्डियां बेचने वाले मत बनो। उनके अच्छे कामों से सीखो। वह कहते हैं कि अठारह सौ सत्तावन की मुसीबत इसलिए आई क्योंकि अंग्रेजों को खुदा ने हमारे ऊपर मुसल्लत किया, अगर इंसान पाप करने लगे तो उस पर बुरे शासक लाद दिए जाते हैं। मैंने अलीगढ़ में सवाल किया कि सर सैयद यह चाहते थे जिनको मुस्सलत किया (थोपा) गया था, उनके साथ खराब रिश्ते नहीं होने चाहिए। हिन्दू को तो किसी ने मेरे ऊपर मुस्सलत नहीं किया। किसी को यह हक नहीं है जो हमें जुदा कर सके। अगर आज सर सैयद होते तो क्या कहते? यही कहते कि हमारा रिश्ता जैसे पानी के ऊपर काई का है। काई अलग रहती है, पानी अलग रहता है। इस तरह सामाजिक जीवन नहीं जिया जाता है। मिल-जुल कर जिया जाता है। जिसे हमारे यहां केरल में विद्यारंभ कहते हैं, उत्तर भारत में मुसलमानों में उसे बिस्मिल्ला की तकरीब कहते हैं। सर सैयद ने अपने पोते की बिस्मिल्ला के लिए राजा जयकिशन दास को खास तौर से बुलवाया। उनकी गोद में अपने पोते को बिठाया और उनसे बिस्मिल्ला पढ़वाई। आज अगर वह होते तो वह मुझसे क्या कहते कि क्या तुम हिंदुस्तान में इसलिए पैदा हुए हो, ताकि तुम हर वक्त तलवार लेकर सबके साथ जंग करते रहो। यह मेरा काम नहीं। यह मेरा देश, आपका देश, हम सबकी साझी विरासत है। सभी साझी विरासत में शरीक हैं।
इस देश से दुनिया को क्या संदेश दिया जा सकता है और हिंदू मुस्लिम एकता का सूत्र क्या है?
हिंदू-मुस्लिम में बिल्कुल मत रहिए। हमारा संविधान इस देश को हिंदू और मुस्लिम के बीच में नहीं बांटता। हमें राष्ट्रीय एकता की बात करनी चाहिए। बहुत हो गया यह। अपने तरीके से धर्म की तो हर एक को आजादी है। सबकी एकता की बात होनी चाहिए। केवल धार्मिक आधार पर नहीं। लेकिन यह देश क्या संदेश दे सकता है, मेरे लिए ज्यादा बड़ा प्रश्न यह है कि हमसे पुरानी संस्कृतियां दुनिया में रही हैं। लेकिन प्राचीनता के साथ अपने आप को पुनर्जीवित और रिवाइटलाइज करने की क्षमता भारत की विषेशता है। नित्य नूतन, चिर पुरातन। बुनियादी सवाल यह है कि यह क्यों है? कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा। गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर ने हमें बताया है कि उसका कारण क्या है। उन्होंने कहा आई लव इंडिया, नॉट बिकॉज आई कल्टिवेट दि आइडोलेटरी आॅफ जियोग्राफी, नॉट विकाज आई हैव हैड द चांस टु बी बॉर्न इन हर सॉयल, बट बिकाज शी हैज सेव्ड थ्रू द टुमुल्टस एजेस द लिविंग वर्ड्स दैट हैव इश्यूड फ्रॉम द इल्युमिनेटेड कांश्यसनेस आॅफ हर ग्रेट सन्स। और वह कहते हैं कि भारत की जो असल शक्ति है वह मानसिक और बौद्धिक शक्ति है।
भारत की असल शक्ति परंपरा ज्ञान की परंपरा है। प्रज्ञा की परंपरा है। हम कहते हैं हमने किसी पर हमला नहीं किया। पर भारत के विचारों ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया। जैसा प्रधानमंत्री जी पंद्रह अगस्त को बोले कि अपनी सांस्कृतिक विरासत दोबारा जिंदा नहीं हो सकती, जब तक हम ज्ञान की विरासत को जिंदा नहीं करेंगे। मैं मानता हूं कि हमारा उद्धार एक ही चीज में है और वह परंपरा ऐसी है हम चाहे जितनी शक्तिशाली हो जाएं, चाहे जितनी बड़ी न्यूक्लियर पॉवर हो जाएं, दुनिया का छोटे से छोटा देश भी हमसे भय नहीं महसूस करेगा, क्योंकि वह जानता है कि भारत की परंपरा ज्ञान और प्रज्ञा की परंपरा है। महात्मा गांधी ने कहा था – कमजोर भारत, गुलाम भारत, न अपने काम का है ना किसी और के काम का। लेकिन आजाद भारत, मजबूत भारत ऐसा भारत जिसके पास इतनी ताकत हो कि अगर मानवता को बचाने के लिए किसी दिन जरूरत हो तो भारत वह देश है, जो अपने आप को त्याग सकता है।
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