‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP)-2020’ की सिफारिशों के अनुसार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) ने भारत में उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण की दिशा में काम शुरू कर दिया है। अब विदेशी विश्वविद्यालय/संस्थान भारत में अपने परिसर स्थापित कर पाएंगे। पिछले गुरुवार को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने भारत में विदेशी संस्थानों की स्थापना और संचालन के लिए “भारत में विदेशी उच्च शिक्षण संस्थानों के परिसर की स्थापना और संचालन- 2023” नामक ड्राफ्ट जारी किया है। यह मसौदा इन विश्वविद्यालयों को उनकी प्रवेश प्रक्रिया, शुल्क संरचना, शिक्षकों की नियुक्ति एवं पारिश्रमिक तय करने और अर्जित आय को स्वदेश भेजने की स्वायत्तता प्रदान करता है। यह भी स्पष्ट है कि ये विश्वविद्यालय देश में स्थापित अपने सभी परिसरों में ऑनलाइन या दूरस्थ शिक्षा के बजाय ऑफलाइन माध्यम से पूर्णकालिक कार्यक्रम ही शुरू कर करेंगे। इस योजना के लिए सिर्फ वही विदेशी संस्थान पात्र हैं, जिन्होंने समग्र अथवा विषय-वार वैश्विक रैंकिंग के शीर्ष 500 में अपनी जगह बनाई हो या कि अपने देश में एक प्रतिष्ठित संस्थान के रूप में मान्य हो। इसकी प्रारंभिक स्वीकृति 10 वर्षों के लिए दी जाएगी। हालांकि, नियमन में किन मानदंडों को अंतिम रूप से शामिल किया जाएगा, इसकी अधिसूचना सभी हितधारकों की प्रतिक्रिया के बाद इस महीने की समाप्ति तक जारी कर दी जाएगी। यह निर्णय विदेशी संस्थानों को स्थानीय साझेदारों के बिना भी अपने परिसर स्थापित करने हेतु प्रोत्साहित करेगा। इससे भारतीय शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ेगी और छात्रों के भारत छोड़कर विदेश जाने में भी काफी कमी आएगी।
भारत सरकार शिक्षा क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए “राष्ट्रीय शिक्षा नीति – 2020” कार्यान्वित करने के लिए प्रयासरत है। इसी श्रृंखला में लिया गया यह निर्णय भारत में उच्च शिक्षा को वैश्विक ऊँचाई प्रदान करेगा। भारतीय छात्रों को कम खर्चे पर विदेशी डिग्री मिल पाएगी, और भारत अध्ययन और शोध के एक वहनीय (किफायती) और आकर्षक वैश्विक केन्द्र के रूप में भी स्थापित हो सकेगा।
उल्लेखनीय है कि मौजूदा केंद्र सरकार ने भारत के शिक्षा क्षेत्र को विश्व भर के लिए खोलने हेतु नयी पहल अवश्य की है। परन्तु विदेशी संस्थानों के परिसरों को भारत में स्थापित करवाने के ऐसे प्रयास पहले भी हो चुके हैं। पहली बार आर्थिक उदारीकरण के प्रारंभिक चरण में वर्ष 1995 में एक बिल लाया गया था। इसी प्रकार 2007 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार (UPA) के दौरान भी यह विचार चर्चा में आया। लेकिन ये दोनों ही प्रयास गठबंधन की विवशताओं और वामदलों के दबाव के कारण सिरे नहीं चढ़ सके।
विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में आगमन के तमाम कारकों में से सर्वाधिक महत्वपूर्ण भारत की विशाल छात्र संख्या है। भारतीय छात्रों के बीच अंतरराष्ट्रीय शिक्षा की भारी मांग है। केवल 2022 में ही, करीब साढ़े 4 लाख भारतीय छात्र उच्च शिक्षा के लिए विदेश गए, और इससे हमारे देश का लगभग 28-30 बिलियन अमेरिकी डॉलर बाहर जा रहा है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि 2024 तक, 18 लाख छात्र विदेश जाएंगे और लगभग 6.4 ट्रिलियन रुपए खर्च करेंगे जो कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 2.7 % है। यदि यही रुझान जारी रहता है तो इसका सीधा असर भारतीय वित्तीय और मानव पूंजी पर चिंताजनक दबाव के रूप में पड़ेगा। वित्तीय घाटे के अलावा, राष्ट्र को अपने असंख्य प्रतिभाशाली लोगों का भी नुकसान झेलना पड़ेगा क्योंकि विदेशों में अध्ययन हेतु गए छात्र अक्सर वहीं काम करते रहने का विकल्प भी चुनते हैं जो कि प्रतिभा पलायन को बढ़ाता है। आंकड़ों के अनुसार, 2022 के पहले तीन महीनों में, 1,33,135 छात्रों ने अकादमिक गतिविधियों के लिए भारत छोड़ा जबकि 2020 में 2,59,655 छात्रों ने विदेश में पढ़ाई की। 2021 में, 4,44,553 भारतीयों ने विदेश में शिक्षा ग्रहण की जो सिर्फ एक वर्ष में ही 41% की वृद्धि दर्शाता है।
भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसरों की स्थापना से विदेशी मुद्रा की प्राप्ति भी होगी। भारतीय छात्रों के अलावा उपमहाद्वीप और अन्य विकासशील देशों (ग्लोबल साउथ) के छात्र भी इन संस्थानों में शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं जो कि बहु-संकृतिवाद के साथ-साथ अन्यान्य देशों के साथ भारत को मजबूत संबंध स्थापित करने में मदद करेगा। इस प्रकार, भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी पूंजी प्रवाह हो सकेगा। छोटे-मोटे व्यवसाइयों और कारीगरों के लिए बहुत सारे रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे क्योंकि नए परिसरों के निर्माण के लिए विशाल कार्यबल और निर्माण-सामग्री की आवश्यकता होगी। उनके संचालन के लिए भी बहुत-सी वस्तुओं और व्यक्तियों की आवश्यकता होगी। साथ ही, विदेशी विश्वविद्यालय प्रतिभाशाली प्राध्यापकों और शोधकर्ताओं को बेहतर वातावरण में काम करने का अवसर प्रदान करते हुए देश में अनुसंधान एवं विकास को प्रोत्साहित करेंगे।
भारत में 1000 से अधिक विश्वविद्यालय और 42000 से अधिक महाविद्यालय हैं। विश्व के सबसे बड़े उच्च शिक्षा तंत्रों में से एक होने के बावजूद, उच्च शिक्षा में भारत का सकल नामांकन अनुपात (GER) सिर्फ 27.1% है, जो कि विश्व में सबसे कम है। ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां वर्तमान भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली में सुधार हेतु उचित कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए हमारा कोई भी विश्वविद्यालय QS रैंकिंग में शीर्ष 100 में शामिल नहीं है। भारतीय अकादमिक संस्थानों का ध्यान मुख्य रूप से शिक्षण पर होता है। इस कारण अनुसंधान और विकास की अनदेखी कर दी जाती है। कर्मचारियों की कमी, कम संसाधन, छात्रों का ड्रॉपआउट और संस्थानों का राजनीतिकरण जैसी चुनौतियां भारतीय अकादमिक संस्थाओं को अपना मूल्यवर्द्धन करने से रोकती हैं। नई शिक्षा नीति के लक्ष्य, जो कि उच्च शिक्षा के माध्यम से मानव की पूर्ण क्षमता को विकसित करते हुए राष्ट्र की प्रगति करना है, को ध्यान में रखते हुए हमें सीखने की प्रक्रिया में बदलाव कर वर्तमान समय की मांग के अनुरूप नवोन्मेषी दृष्टिकोण पर बल देने की आवश्यकता है। इसलिए उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और सर्वोत्तम कार्य-संस्कृति के माध्यम से शैक्षणिक संप्रभुता, न्यूनतम शासन, दूरदर्शी प्रबंधन, बेहतर संकाय, उद्योगों के साथ संबंध और छात्रों की अकादमिक सक्रियता के जरिए भारत को आगे बढ़ाने हेतु विदेशी संस्थानों का स्वागत किया जाना चाहिए।
कैरियर परामर्श और रोजगारपरकता एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें भारतीय संस्थान अपने विदेशी समकक्षों से बहुत पीछे हैं। उदाहरण के लिए, हमारा पाठ्यक्रम उन लोगों से चर्चाओं पर आधारित नहीं होता है जो अंततः हमारे छात्रों को रोजगार देते हैं या अपने यहां काम पर रखते हैं। वहीं दूसरी ओर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त शैक्षणिक संस्थान भविष्य की संभावनाओं को समझने के लिए लगातार व्यापार, उद्योग और सरकार के साथ जुड़े रहते हैं। नौकरियों की प्रकृति और कर्मचारियों की मांगों में तेजी से बदलाव हो रहा है जो सीधे-सीधे शिक्षा प्रदाताओं को यह जिम्मेदारी देता है कि वे इस बदलाव का अनुमान लगाएं और छात्रों को इसके अनुरूप तैयार करें। विदेशी विश्वविद्यालयों ने अनुमान लगाने, परखने, छात्रों को तैयार करने की कला में महारत हासिल की है। विदेशी संस्थानों के आने की वजह से हमारे देश में बहुसांस्कृतिक वातावरण में सीखने के पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण होगा जिसका सीधा प्रभाव छात्रों के दृष्टिकोण पर भी पड़ेगा। इससे उनके चिंतन और व्यवहार वैश्विक आयाम मिलेंगे।
विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में आगमन से उच्च शिक्षा क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा भी पैदा होगी। गुणवत्तापूर्ण प्रोफेसरों, शोधकर्ताओं और छात्रों को आकर्षित करने हेतु विदेशी विश्वविद्यालय भारत में मौजूद विश्वविद्यालयों के साथ स्वस्थ होड़ करेंगे। विदेशी विश्वविद्यालयों के साथ उद्योग परियोजनाओं, प्रतिभाशाली छात्रों और शिक्षकों के लिए प्रभावी ढंग से प्रतिस्पर्धा हेतु भारतीय विश्वविद्यालय अपने स्वयं के स्तर में सुधार को प्रेरित होंगे। ऐसी स्वस्थ प्रतिस्पर्धा भारत में शिक्षा के समग्र स्तर को सुधारने में सहायक होगी। भारतीय छात्रों को न सिर्फ सस्ती फीस पर सर्वोत्तम शिक्षा मिलेगी, बल्कि यदि ये विश्वविद्यालय भारत में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त कोर्स लाते हैं तो भारतीय छात्रों को विश्वस्तर पर क्रेडिट हस्तांतरण का अवसर भी प्राप्त होगा। इसलिए ऐसी अपेक्षा की जा रही है कि विदेशी विश्वविद्यालय भारतीय छात्रों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुंच बढ़ाने में मदद करेंगे और भारत की आबादी को मानव संसाधन में परिवर्तित करने में भी सहायता प्रदान करेंगे।
भारत के लिए छात्र गतिशीलता और वैश्विक स्तर पर छात्रों का आदान-प्रदान कोई नई अवधारणा नहीं है। तक्षशिला, नालंदा, वल्लभी, विक्रमशिला, शारदा, भद्रकाशी और पुष्पगिरी जैसे प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालय 7वीं शताब्दी ईसा पूर्व में शिक्षा के वैश्वीकरण के प्रतिष्ठित उदाहरण हैं। दुनिया भर के विभिन्न विषयों के हजारों छात्रों को ये विश्वविद्यालय आकर्षित करते थे। अब, वैश्विक ब्रांडों के प्रवेश से देश में अत्याधुनिक विश्वस्तरीय परिसरों की संख्या में वृद्धि होगी। इंस्टिट्यूशन ऑफ एमिनेन्स जैसी योजनाओं को भी ठीक तरह से लागू करते हभारत फिर से उच्च शिक्षा के लिए एक वैश्विक केंद्र के रूप में उभर सकता है और साथ ही दुनिया के विभिन्न हिस्सों, विशेष रूप से पश्चिमी विकसित देशों के छात्रों को आकर्षित कर सकता है। इससे न केवल विदेशी मुद्रा सृजन के रूप में वित्तीय और मौद्रिक लाभ होगा, बल्कि यह भारत की सॉफ्ट पॉवर को भी प्रोत्साहन मिलेगा।
यह सब तभी संभव है जब भारत प्रतिष्ठित वैश्विक संस्थानों को परिसर स्थापित करने हेतु आकर्षित कर सके। जब तक कि उन्हें समान अवसर और सुविधाओं का विश्वास नहीं दिलाया जाएगा, तब तक प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालय आकर्षित नहीं होंगे। अतीत में ऐसी कई पहलें हुई हैं जिनके वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हुए हैं। हालांकि, हाल के दिनों में भारत की स्थिति (विशेष रूप से अर्थव्यवस्था के संदर्भ में) वैश्विक स्तर पर जबरदस्त तरीके से सुधरी है। इस आधार पर विदेशी संस्थान भारत को, दो दशक पहले की तुलना में, अपने लिए ज्यादा अनुकूल मान सकते हैं। अकादमिक व्यवस्था, भूस्वामित्व, कराधान और शिक्षकों की भर्ती से संबंधित नियमन इत्यादि उनकी चिंता के सामान्य विषय हैं। इन पर आवश्यक कार्रवाई की जानी चाहिए। पूर्व-चेतावनी के रूप में, इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि विदेशी संस्थाएं भारत में अपने परिसरों की स्थापना सहयोग और ज्ञान-साझाकरण हेतु करें, न कि सिर्फ व्यवसायिक हितों को समर्पित शिक्षा की दुकानें बन जाएं। ये संस्थाएं केवल अभिजात और उच्च वर्ग के लिए ही सीमित न हों, बल्कि वंचित वर्गों के छात्रों का हित-संरक्षण करते हुए उन्हें भी समुचित अवसर प्रदान करें। यदि भारत प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालयों को आकर्षित करने में सफल रहा तो यह निर्णय भारतीय शिक्षा प्रणाली को नये आयाम प्रदान करेगा।
(लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं।)
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