ब्राजील में सितंबर 2002 में वामपंथी वर्कर्स पार्टी के लुईस इनेसियो लुला दा सिल्वा के सत्ता संभालने के बाद से ही जारी तीखे राजनीतिक ध्रुवीकरण के बीच देश में 30 अक्तूबर, 2022 को जो चुनाव हुआ, वह अन्य चुनावों की तरह नहीं था। इस चुनाव में लुला ने मामूली अंतर से धुर दक्षिणपंथी पार्टी के नेता और तत्कालीन राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो के विरुद्ध जीत दर्ज की। लेकिन बोल्सोनारो ने सार्वजनिक तौर पर पराजय स्वीकार नहीं की। उलटे उन्होंने उन लोगों की प्रशंसा ही की, जो चुनाव में हेराफेरी का आरोप लगा रहे थे।
इस चुनाव में दुष्प्रचार, फर्जी खबरों और यहां तक कि डराने-धमकाने और राजनीतिक हिंसा का भी इस्तेमाल हुआ। बोल्सोनारो लगातार देश की कथित सांस्थानिक खामियों पर सवाल खड़े करते रहे। उन्होंने सीधे-सीधे देश के सर्वोच्च न्यायालय पर ही उनका राजनीतिक विरोधी होने का आरोप लगाया और कहा कि ब्राजील के चुनावों में हमेशा से हेराफेरी होती रही है। उन्होंने स्पष्ट संकेत दिए कि संभवत: वे नतीजों को स्वीकार करने से इनकार कर दें।
सत्ता प्रतिष्ठानों पर कब्जा
चुनाव परिणामों के बाद ही बोल्सोनारो समर्थकों के विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए थे, लेकिन माना गया कि यह छिटपुट विरोध है और किसी बड़े खतरे का अंदेशा नहीं है। लेकिन नववर्ष के दिन लुला के शपथ ग्रहण के बाद बोल्सोनारो समर्थकों ने अपनी तैयारियां शुरू कर दीं। सोशल मीडिया मंचों के जरिए उन्होंने लोगों से राजधानी ब्रासीलिया पहुंचने की अपील की। बोल्सोनारो समर्थकों ने सबसे पहले राजमार्गों पर ट्रक खड़े करके उन्हें अवरुद्ध कर दिया। पुलिस ने हस्तक्षेप कर राजमार्ग खुलवाए तो प्रदर्शनकारी सैन्य छावनियों के आगे जमा होकर सेना से हस्तक्षेप करने और उससे सत्ता पर कब्जा करने की मांग करने लगे। प्रदर्शनकारी हजारों बसों में ‘चोरी बंद करो’ और ‘लुला सत्ता छोड़ो’ के नारे लगाते हुए ब्रासीलिया पहुंचे।
8 जनवरी को एक सैन्य छावनी के बाहर जमा प्रदर्शनकारी आगे बढ़ने लगे। उन्होंने सत्ता के तीनों प्रमुख केंद्रों कांग्रेस, सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया। सर्वोच्च न्यायालय खास तौर से निशाने पर था, जहां प्रदर्शनकारियों ने उन कुर्सियों को उलट-पुलट दिया जिस पर बैठकर न्यायाधीश फैसले सुनाते रहे हैं। गनीमत रही कि रविवार होने के कारण ये सभी भवन खाली थे। पुलिस और सुरक्षाबल इस दौरान लगभग मूक दर्शक बने रहे और कब्जे की तस्वीरें पूरी दुनिया में प्रसारित हो जाने के बाद तीनों भवनों को प्रदर्शनकारियों से खाली कराया। लेकिन इससे पुलिस और सशस्त्रबलों के बोल्सोनारो समर्थक होने की धारणा की ही पुष्टि हुई। आखिर में 1500 लोगों को हिरासत में ले लिया गया। लंबे समय से बोल्सोनारो के सहयोगी रहे ब्रासीलिया के गवर्नर को 90 दिन के लिए निलंबित कर दिया गया और राजधानी के सुरक्षा सचिव को भी बर्खास्त कर दिया गया।
बहरहाल अमेरिका में कैपिटल हिल पर धावा, फिर श्रीलंका में राष्ट्रपति के महल पर कब्जा और अब ब्रासीलिया में हुई घटना के बाद साबित हो गया है कि राष्ट्रों के सामने आंतरिक ध्रुवीकरण एक बड़ी चुनौती बन कर उभरा है
बोल्सोनारो जिम्मेदार
लुला ने इस घटना के लिए बोल्सोनारो को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा है कि किसी को भी नहीं बख्शा जाएगा। हालांकि पूर्व राष्ट्रपति बोल्सोनारो इस घटना के दौरान देश में नहीं थे। लुला के शपथ ग्रहण में शामिल होने से बचने के लिए इलाज के बहाने वे पहले ही अमेरिका के फ्लोरिडा चले गए थे। यह सही है कि बोल्सोनारो को 2018 में एक चुनावी रैली के दौरान उनके राजनीतिक विरोधी ने चाकू घोंप दिया था, जिसकी वजह से उन्हें इलाज की जरूरत पड़ती रहती है। लेकिन आम राय यह है कि उन्हें डर था कि लुला सरकार उनके कार्यकाल के दौरान कथित ज्यादतियों की जांच के नाम पर उन्हें जेल भेज सकती है। यहां तक कि बोल्सोनारो के पद पर रहने के दौरान भी लोकतंत्र विरोधी प्रदर्शनों के आयोजन में उनका हाथ होने के आरोपों की जांच हुई थी।
बोल्सोनारो ने हालांकि इस घटना की निंदा करते हुए कहा कि लोकतंत्र में सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने जैसी चीजों की कोई जगह नहीं है। लेकिन उन्होंने इस घटना में किसी भी तरह की संलिप्तता से इनकार किया। निश्चित रूप से वे इस घटना की जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। वे बरसों से कहते रहे हैं कि अगर वामपंथी सत्ता में आते हैं तो ब्राजील के लोगों को हथियार उठा लेने चाहिए। ब्राजील में अभी जो हुआ है, उसके पीछे इस तरह के भड़काऊ बयानों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
वामपंथ के कारण ध्रुवीकरण
हालांकि बोल्सोनारो को तमाम चीजों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, लेकिन ब्राजील में यह राजनीतिक ध्रुवीकरण अचानक पैदा नहीं हुआ। इसकी शुरुआत 2002 में लुला के सत्ता संभालते ही हो गई थी। सत्ता संभालते ही वामपंथ ने अपना राजनीतिक एजेंडा थोपना शुरू कर दिया। लुला की वर्कर्स पार्टी ने सामाजिक आंदोलनों की मांग उठाई और बुद्धिजीवियों एवं प्रोफेसरों से इस बाबत सलाह मांगी कि सत्ता और शासन में किस प्रकार वाम मूल्यों को समाहित किया जा सकता है।
सत्ता और शासन में वाम मूल्यों को समाहित करने की यह प्रक्रिया धीरे-धीरे आर्थिक नीतियों से लेकर धर्म, संस्कृति, समाज और नस्ल तक बढ़ती गई, जिसके कारण देश बुरी तरह ध्रुवीकरण का शिकार होता गया। साथ ही, वामपंथी वर्कर्स पार्टी के शासन में चौतरफा भ्रष्टाचार का मुद्दा भी रहा है। मौजूदा राष्ट्रपति लुला को 2017 में जब भ्रष्टाचार के मामले में 18 महीने की जेल हुई थी, तो उनकी उत्तराधिकारी और जनवरी 2011 में राष्ट्रपति बनीं डिलमा रौसेफ पर राजकोष के कुप्रबंधन और अन्य मामलों में महाभियोग का सामना करना पड़ा। 2016 में उनसे राष्ट्रपति के सभी अधिकार 6 महीने के लिए छीन लिए गए और तत्कालीन उपराष्ट्रपति ने कार्यभार संभाला। बोल्सोनारो समर्थकों का मानना है कि जिसे जेल में होना चाहिए था, वह उन पर वैध रूप से शासन के योग्य नहीं है। उन्हें यह भी लगता है कि लुला उनके देश को क्यूबा या वेनेजुएला में तब्दील करना चाहते हैं।
दो खेमों में बंटा देश
ब्राजील दो खेमों में बंटा हुआ है तो हालिया घटनाक्रमों पर राजनीतिक पंडितों की राय भी बंटी हुई है। एक खेमा है जो मानता है कि बोल्सोनारो अब राजनीतिक परिदृश्य से भले ही ओझल हो गए हों, लेकिन बोल्सोनारोवाद यानी ‘मजबूत नेता और मजबूत सेना’ वाला विचार जो सैन्य तानाशाही के दौरान था, अब बोल्सोनारो के बिना भी जीवित रहेगा।
ब्रासीलिया में हुई घटना के दौरान या उसके बाद चंद बोल्सोनारो समर्थकों ने ही उनकी वापसी की मांग की। वे सैन्य हस्तक्षेप और तख्तापलट की मांग कर रहे थे। दूसरी तरफ, एक दूसरा वर्ग इसे बोल्सोनारोवाद के अंत की शुरुआत मान रहा है। एक चुनावी सर्वेक्षण एजेंसी क्वेस्ट ने पाया कि ब्रासीलिया की घटना के बाद सोशल मीडिया मंचों पर 90 प्रतिशत पोस्ट बोल्सोनारो और उनके समर्थकों के प्रति नकारात्मक थीं।
बहरहाल अमेरिका में कैपिटल हिल पर धावा, फिर श्रीलंका में राष्ट्रपति के महल पर कब्जा और अब ब्रासीलिया में हुई घटना के बाद यह साबित हो गया है कि राष्ट्रों के सामने आंतरिक ध्रुवीकरण एक बड़ी चुनौती बन कर उभरा है। चीन जैसे सर्वसत्तावादी तानाशाही देश और कुछ इस्लामी मुल्क इन घटनाक्रमों को लोकतंत्र की विफलता और तानाशाही मॉडल को लोकतांत्रिक मॉडल से बेहतर होने के तौर पर देख रहे हैं। यह चुनौती लोकतांत्रिक देशों में ही है, क्योंकि मुक्त समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। संवाद की एक परंपरा भी है। सबका साथ-सबका विकास और सबसे संवाद के माध्यम से ही इससे निपटा जा सकता है।
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