नेपाल में चीन के कथित सहयोग, समर्थन और दबाव से एक बार फिर वाम गठबंधन की सरकार बन गई है और इसने अप्रत्याशित रूप से संसद में बहुमत भी साबित कर दिया है। नेपाल कांग्रेस पार्टी (माओवादी केंद्र) के मुखिया पुष्प कमल दहल प्रचंड के नेतृत्व में जिस तरह से नाटकीय ढंग से गठबंधन की सरकार बनी, वैसा ही नाटकीय दृश्य सदन में विश्वास मत के दौरान भी देखने को मिला। विश्वास मत के दौरान सदन में उपस्थित 270 सांसदों में से 268 ने प्रचंड की अगुआई वाली सरकार के पक्ष में मतदान किया। पांच सांसद अनुपस्थित रहे और केवल दो सांसदों ने विश्वास मत के विरोध में मतदान किया।
आम चुनाव के परिणामों के तुरंत बाद प्रचंड के बेहद करीबी और माओवादी पार्टी के उप-महासचिव वर्षमान पुन का इलाज के बहाने चीन जाना, सरकार बनने से ठीक पहले नेपाल में चीन के कार्यवाहक राजदूत की प्रचंड, केपी शर्मा ओली, उपेंद्र यादव, राजेंद्र लिंगदेन जैसे नेताओं से मुलाकात और इन सबके गठबंधन से सरकार का बनना संयोग मात्र नहीं है। यह एक सोची-समझी रणनीति है। चीन अपनी इस ‘सफलता’ पर बहुत खुश है और तेजी से अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है।
नेपाल में सत्ता बदलते ही चीन का मिजाज भी बदल गया। हवाई अड्डे को बीआरआई का हिस्सा बताकर चीन नियंत्रित मीडिया की तरफ से दुनिया भर में प्रचारित किया गया। यही नहीं, चीन नेपाल में अब हर काम को बीआरआई से जोड़कर प्रचारित कर रहा है।
चीन की बांछें खिलीं
नेपाल में ओली के समर्थन से प्रचंड की अगुआई में बनी गठबंधन सरकार चीन के लिए हर तरह से अनुकूल है। शेरबहादुर देउबा से गठबंधन तोड़ने के ओली के फैसले से लेकर प्रचंड की प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी और अब तक नेपाल की राजनीति में जो कुछ भी हुआ, उससे चीन बहुत उत्साहित है। जैसे उसे इसी ‘खिचड़ी सरकार’ के गठन का इंतजार था। प्रचंड ने 25 दिसंबर, 2022 को सरकार बनाने का दावा पेश किया। काठमांडू स्थित चीनी दूतावास ने 26 दिसंबर को प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लेने के बाद प्रचंड को बधाई दी। चीनी दूतावास के ट्विटर हैंडल से दी गई बधाई को नेपाल के मीडिया ने बहुत महत्व के साथ प्रकाशित किया। हालांकि यह अलग बात है कि चीनी दूतावास के ट्विटर पर बधाई देने से पहले भारतीय राजदूत नवीन श्रीवास्तव ने फोन कर प्रचंड को बधाई दे दी थी।
उधर, बीजिंग से विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भी प्रचंड को बधाई देते हुए नई सरकार के साथ मिलकर (बीआरआई) पर काम करने की अपनी मंशा जाहिर कर दी। अगले दिन यानी 27 दिसंबर को (बीआरआई) तहत केरूंग से काठमांडू तक बनने वाले रेल मार्ग के सर्वेक्षण के लिए चीनी विशेषज्ञों का दल काठमांडू पहुंच गया। 28 दिसंबर को चीन ने अचानक केरूंग रसुवागढ़ी सीमा नाका को खोल दिया, जो तीन साल से बंद था। चीन ने इस रास्ते से आवाजाही पर प्रतिबंध लगा रखा था।
29 दिसंबर को चीनी विदेश मंत्रालय के तहत रहे एशियाई मामलों के प्रमुख महानिदेशक लियु जिनसांग ने बीजिंग स्थित नेपाली राजदूत विष्णु पुकार श्रेष्ठ को बुलाकर बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) को अतिशीघ्र आगे बढ़ाने, ग्लोबल सिक्यूरिटी इनिशिएटिव (जीएसआई) में नेपाल के शामिल होने और ग्लोबल डेवलपमेंट इनिशिएटिव (जीडीआई) के तहत नेपाल के चार जिलों में चल रहे स्माइलिंग चिल्ड्रेन प्रोजेक्ट के विस्तार का प्रस्ताव रखा। इसके बाद, 30 दिसंबर को चीन के कार्यवाहक राजदूत ने प्रचंड से मुलाकात कर अपने प्रधानमंत्री का शुभकामना संदेश सौंपा।
इसमें प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने पर प्रसन्नता जताते हुए नेपाल के विकास में हरसंभव सहयोग का आश्वासन दिया गया है। साथ ही, चीन की महत्वाकांक्षी परियोजनाओं-बीआरआई, जीएसआई, जीडीआई आदि में मिलकर काम करने की उम्मीद जताई गई है। 31 दिसंबर को आपसी संबंधों को मजबूती देने, महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में नेपाल को सहभागी बनाने, ‘एक चीन नीति’ पर दुबारा प्रतिबद्धता हासिल करने व नेपाल में तिब्बत से जुड़ी गतिविधियों पर नकेल कसने जैसे मुद्दों पर वार्ता के लिए चीन का एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल नेपाल पहुंच गया।
हर काम बीआरआई का हिस्सा
पहली जनवरी को चीनी कर्ज से बने पोखरा अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे का उद्घाटन हुआ और यहीं से चीन ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। उद्घाटन के मौके पर उसने दावा किया कि यह हवाई अड्डा बीआरआई परियोजना का हिस्सा है। इस पर देश में हायतौबा मची हुई है। लेकिन प्रचंड सरकार ने चीन के इस दावे पर न तो कोई प्रतिक्रिया दी और न ही इसका विरोध किया है। दरअसल, इस हवाई अड्डे के निर्माण के लिए कर्ज करार से लेकर इसके शिलान्यास और नेपाल सरकार को हस्तांतरण तक, न तो नेपाल ने और न ही चीन ने ही कभी कुछ कहा। लेकिन नेपाल में सत्ता बदलते ही चीन का मिजाज भी बदल गया।
हवाई अड्डे को बीआरआई का हिस्सा बताकर चीन नियंत्रित मीडिया की तरफ से दुनिया भर में प्रचारित किया गया। यही नहीं, चीन नेपाल में अब हर काम को बीआरआई से जोड़कर प्रचारित कर रहा है। नेपाल में 2015 में आए विनाशकारी भूकंप के बाद भारत सहित कई देशों ने नेपाल के पुनर्निर्माण में बढ़-चढ़ कर सहयोग किया, लेकिन चीनी मदद सीमित रही। उस समय उसने काठमांडू के दरबार हाईस्कूल का पुनर्निर्माण कराया था, वह लेकिन इसे भी बीआरआई का हिस्सा बता रहा है। सच्चाई यह है कि 2015 में नेपाल ने औपचारिक रूप से बीआरआई पर हस्ताक्षर तक नहीं किए थे। उसने पहली बार 2017 में इस पर हस्ताक्षर किए।
शिकंजे में लेने को आतुर ड्रैगन
इसी तरह, 2 जनवरी को चीन ने एक और बड़ी घोषणा की। काठमांडू स्थित चीनी दूतावास ने पिछले दो साल से चीन में नेपाल सहित विदेशी नागरिकों के प्रवेश पर लगे प्रतिबंध को 8 जनवरी से हटाने की घोषणा की। अब तक चीन में पढ़ने वाले छात्रों और वहां नौकरीपेशा लोगों को ही सशर्त चीन में प्रवेश की अनुमति मिलती थी। चीन अब तक नेपाल पर केवल बीआरआई में शामिल होने के लिए दबाव बना रहा था, लेकिन वामपंथी सरकार के आते ही वह नेपाल को सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण जीडीआई और जीएसआई जैसी परियोजनाओं में भी फांसना चाहता है। नेपाल की संसद ने जिस अमेरिकी परियोजना एमसीसी को संसद से पारित करवा कर चीन को सीधे-सीधे चुनौती दी थी, अब उसे वह किसी भी सूरत में आगे नहीं बढ़ने देगा। इसी तरह, पिछली सरकार ने कई परियोजनाएं रद्द कर दी थीं, जिन पर चीनी कंपनियां काम कर रही थीं। चीन ने दुबारा उन परियोजनाओं को हासिल करने के प्रयास शुरू कर दिए हैं। इनमें पश्चिम सेती जल विद्युत परियोजना, काठमांडू निजगढ़ फास्ट ट्रैक हाईवे प्रमुख हैं।
विश्वास का संकट
चुनाव में 89 सीटें जीत कर नेपाली कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी। एक समय लग रहा था कि नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा प्रधानमंत्री बनेंगे। उनकी नियुक्त में सिर्फ चार घंटे बचे थे। नेपाल के सभी सात प्रदेशों में भी कांग्रेस के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनाने की तैयारी थी, लेकिन एकाएक प्रचंड ने पाला बदला और केंद्र से लेकर प्रदेश तक के सारे समीकरण बदल गए।
बहरहाल, विश्वास मत के दौरान विपक्षी दलों ने रणनीति के तहत प्रचंड के पक्ष में मतदान कर सत्तारूढ़ गठबंधन में अविश्वास का बीजारोपण कर दिया है, जिसका असर विश्वास मत के दौरान नेताओं के संबोधन में दिखा।
प्रचंड को समर्थन देने के नेपाली कांग्रेस के निर्णय पर आशंका जताते हुए ओली ने कहा कि यदि कांग्रेस समर्थन देकर फिर से कुछ उलटफेर करने की सोच रही है, तो यह गलत है। एमाले नेता तथा पूर्व विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञवाली ने भी कांग्रेस के समर्थन के पीछे राजनीतिक षड्यंत्र की आशंका जताई है। कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री प्रचंड और नेपाली कांग्रेस के बीच कोई समझौता हुआ है। हालांकि नेपाली कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने ऐसे किसी भी समझौते से इनकार किया है। 275 सदस्यों वाली प्रतिनिधि सभा में प्रचंड की पार्टी के 38 सांसद हैं।
सरकार को सबसे बड़े दल नेपाली कांग्रेस के 89 सांसदों, नेकपा एमाले के 78, राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी के 20, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के 14, जनता समाजवादी पार्टी के 12, जनमत पार्टी के 6, लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी, नागरिक उन्मुक्ति पार्टी के 4-4 और तीन निर्दलीय सांसदों का समर्थन प्राप्त है। विश्वास मत के विरोध में नेपाल मजदूर किसान पार्टी तथा राष्ट्रीय जनमोर्चा के एक-एक सांसद ने मतदान किया।
जनादेश को ठेंगा
नेपाल में सत्ता परिवर्तन या गठबंधन में फेरबदल सामान्य बात है। शेरबहादुर देउबा का माओवादी मोह और प्रचंड पर अंधविश्वास, गठबंधन तोड़ने की ओली की स्पष्ट व सफल रणनीति, सत्ता व शक्ति के लिए विचारधारा तथा जनादेश को ठेंगा दिखाकर किया गया गठबंधन, नेपाल की राजनीति का पुराना इतिहास है। एक समय जब माओवादी सशस्त्र विद्रोह कर रहे थे, तब माओवादी नेताओं, प्रचंड और बाबूराम भट्टराई के सिर पर इनाम की घोषणा करने वाले देउबा उसी प्रचंड के सहयोग से दो बार प्रधानमंत्री बन चुके हैं। इसी तरह, नेपाल की पुरानी वामपंथी पार्टी नेकपा एमाले और लोकतांत्रिक विचारधारा वाली पार्टी नेपाली कांग्रेस के बीच भी गठबंधन हो चुका है और दोनों एक-दूसरे की सरकार में सहभागी भी रह चुके हैं। नेपाल में राजतंत्र को उखाड़ फेंकने वाली राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी भी जो अब एक बार फिर से राजतंत्र की पुनर्बहाली के लिए संघर्षरत है और हिंदू अधिराज्य की स्थापना के नाम पर 14 सीट जीतने में सफल रही है, राजतंत्र के घोर विरोधी दल की सरकार की समर्थक है। वह पूर्व में सरकार में सहभागी रह चुकी है। इसी तरह, मधेश में एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने वाली जसपा और जनमत पार्टी भी गठबंधन सरकार में शामिल है।
यह भी सच है कि नेपाल में प्रजातंत्र की पुनर्बहाली के बाद कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई है। चाहे किसी दल को बहुमत मिले या दो तिहाई बहुमत। इस बार भी सरकार गठबंधन की बैसाखी पर टिकी है। गठबंधन में शामिल दल विपरीत विचारधारा वाले हैं। ओली न केवल इस गठबंधन के सहारे अपने पसंद के व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाना चाहते हैं, बल्कि अपने दल के सदस्य को प्रतिनिधि सभा का सभामुख भी बनाना चाहते हैं। उनकी मंशा सभी राजनीतिक और संवैधानिक पदों पर अपने करीबी नेताओं को बैठाने की है। जिस दिन उनका उद्देश्य पूरा हो जाएगा, वह सरकार के लिए आखिरी दिन होगा।
चीन नेपाल में सरकार गठन के साथ जिस तरह से सक्रिय हुआ है और अपनी पैठ बढ़ाने की कोशिश कर रहा है, वह भारत के लिए चिंता का विषय है। खासतौर से, चीनी परियोजनाओं में नेपाल का आंखें मूंदकर शामिल होना और भारतीय सीमावर्ती जिलों में चीन की सक्रियता। हालांकि नेपाल भारत की चिंता को पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं कर सकता। प्रचंड ने प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार भारतीय मीडिया से बातचीत में स्वीकार किया कि नेपाल में भारत का स्थान कोई देश नहीं ले सकता। भारत के हितों, भारत की सामरिक और सुरक्षा संवेदनशीलता का उन्हें पूरा ध्यान है। वे भारत से ही अपने भ्रमण की शुरुआत करने की इच्छा जता चुके हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना विशिष्ट मित्र बताते हुए उनसे विशेष सहयोग, समर्थन और साथ मिल कर काम करने इच्छा भी जताई है। यह तो समय ही बताएगा कि अपनी बातों पर प्रचंड कितने खरे उतरते हैं। नौ-नौ माह के उनके पूर्व के दो कार्यकाल के आधार पर उनकी बातों और वादों पर तो कतई भरोसा नहीं किया जा सकता। वैसे भी, प्रचंड अपने वादों पर टिकने वालों में नहीं गिने जाते।
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