महाराणा, कुंभा के समय (1433-1468) चित्तौड़ भारत की राजधानी के रूप में विकसित हो गया था। यह युग कला शिल्प, स्थापत्य , साहित्य , निर्माण से परिपूर्ण था। मेवाड़ राज्य की सीमाओं का विस्तार इसी कालखंड में हुआ। महाराणा सांगा के समय ( 1509-1528) देशभर के हिन्दू राजाओं ने अपने नायक के रूप में मेवाड़ का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था। खानवा के युद्ध में शामिल राज्य इसके प्रमाण हैं।
बाबर के खिलाफ युद्ध में राणा सांगा की हार के बाद दिल्ली में मुगल सत्ता की स्थापना हुई, जो बाबर से अकबर तक विस्तारित होती गई। राजपूताना के राजाओं ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। अत्याचारों का दौर चल पड़ा। मेवाड़ को छोड़ सभी मुगल आक्रांता को सबकुछ मान बैठे। ऐसे समय में महाराणा प्रताप का उदय हुआ।
महारानी जयवन्ती बाई के गर्भ से ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया, दिन रविवार, विक्रम संवत् 1597 को कुम्भलगढ़ में महाराणा प्रताप का जन्म हुआ। चण्डू ज्योतिषी ने प्रताप की जन्म पत्रिका तैयार की। उनका जीवन राजसी वैभव से अप्रभावित, सादगी, सरलता और विनम्रता लिए हुए था। बचपन में पौराणिक कथाएं , देश के लिए जीने की वृत्ति का उपदेश सुनकर ही तैयार हुए। राजकुमारों के समान ही शिक्षा-दीक्षा हुई। शस्त्र विद्या में निपुण थे और अपने आसपास के इलाके में “कीका ” नाम से विख्यात थे। इतिहासकार राजशेखर व्यास लिखते हैं कि महाराणा प्रताप लगभग दस वर्ष तक कुम्भलगढ़ में रहे और अधिकांश समय भीलों के साथ व्यतीत किया। भीलों के साथ उनकी इतनी घनिष्ठता थी कि वे मात्र महाराणा उदयसिंह के पुत्र न होकर प्रत्येक भील परिवार के पुत्र तथा राज परिवार के राजकुमार न रहकर मेवाड़ के व्यापक भील समुदाय के राजकुमार बन गए।
कम आयु में गढ़ जीते
महाराणा प्रताप 12 वर्ष की उम्र में (1552) कुम्भलगढ़ से चित्तौड़गढ़ आए और वहां तलहटी में झालीमहल (पाडनपोल के पास) में रहकर शस्त्र प्रशिक्षण , राजनीतिक दांव-पेच सीखने लगे। उनके गुरु सलूम्बर के रावत किसनदास थे। अब तक प्रताप को युवराज का पद प्राप्त हो गया था। इसी समय अपनी मित्र मंडली के साथ उन्होंने जयमल मेड़तिया से युद्ध व्यूह कला का प्रशिक्षण प्राप्त किया। मात्र 17 वर्ष की आयु में प्रताप ने वागड़ , छप्पन और गोड़वाड़ के इलाके जीत लिए। इसी समय उनका विवाह मामरख पंवार की पुत्री अजबांदे कुंवर से हुआ। 16 मार्च, 1559 को अजबांदे कुंवर की कोख से ज्येष्ठ पुत्र के रूप में अमर सिंह ने जन्म लिया। आगे चलकर महाराणा प्रताप ने सैन्य प्रशिक्षण और सैनिकों की भर्ती के प्रयास शुरू किए, जिसमें भीलू राणा पूंजा का विशेष योगदान रहा। महाराणा प्रताप के राज्यारोहण के समय ही भीलू राणा अपने सैनिकों के साथ पूंजा पानरवा से आ गया था। हल्दीघाटी युद्ध में वह 500 सैनिकों के साथ पहाड़ों में तंदावल दस्ते में तैनात था। प्रताप की सेना के गोगुन्दा से कोत्यारी के जंगलों से जाने पर मानसिंह की सेना को घेरने, रसद सामग्री लूटने तथा आवरगढ़ में अस्थायी निवास स्थापित कर प्रताप एवं उनके परिवार की सुरक्षा का जिम्मा भीलू राणा पूंजा ने अपने ऊपर लिया था। भीलू राणा पूंजा तथा उसके भील सैनिकों की कर्त्तव्यनिष्ठा, रण-कुशलता तथा छापामार युद्ध प्रणाली की दक्षता से महाराणा प्रताप ने अकबर और उसके सेनानायकों के भीषण आक्रमणों का सामना किया। चावण्ड में राजधानी की स्थापना के समय तक प्रताप को भीलों का अतुलनीय योगदान प्राप्त था। मेवाड़ ने इसी कारण अपने राज चिह्न में एक ओर राजपूत तथा दूसरी ओर भील सैनिक का चित्र देकर उनके योगदान को मान्यता प्रदान की है।
1576 से 1585 तक अकबर ने सात बार अपने सेनापतियों को समस्त संसाधनों से युक्त बड़ी सेना के साथ महाराणा को पराजित करने के लिए भेजा। एक बार तो वह खुद भी आया। यही नहीं , अकबर ने अपने सेनापतियों को धमकी भी दी कि असफल होने पर उनके सिर कलम करवा देगा। इसके बावजूद अकबर के सेनापतियों का हर आक्रमण असफल रहा। संक्षेप में कहा जा सकता है कि संघर्ष के इस दशक में ( 1576-1585) अकबर हर मामले में महाराणा प्रताप से पराजित हुआ। प्रताप अन्ततोगत्वा अपनी छापामार युद्धनीति के कारण शत्रु को परास्त करने में सफल होकर स्वयं अविजित रहे और स्वतंत्रता की अलख जलाकर विदेशी दासता के बंधनों से मातृभमि को मुक्त रख सके।
अब्दुल रहीम खानखाना , जिन्हें अकबर ने प्रताप को मिटाने भेजा था , महाराणा की प्रशंसा में दो पंक्तियां लिख गए हैं-
धरम रहसी रहसी धरा ,
खप जासी खुरसाण।
अमर विसम्भर ऊपरे ,
राख निहच्चौ राण।।
अर्थात् धर्म रहेगा, धरती रहेगी, परन्तु शाही सत्ता सदा नहीं रहेगी। अपने भगवान पर भरोसा करके राणा ने अपने सम्मान को अमर कर लिया है। सरदारों के शपथ लेने के बाद उन्होंने प्राण त्यागे। यह घटना वि.सं. 1653 माघ सुदी 11 की है। महाराणा प्रताप ने अपने अंतिम समय में मेवाड़ को पूर्ण स्वतंत्र (मेवाड़ के सभी 32 किले) कराकर उसे सुव्यवस्थित कर लिया था।
जयप्रकाश विश्वविद्यालय के पूर्वकुलपति प्रो.हरिकेश सिंह का एक लेख पांचजन्य में प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने कुछ प्रश्न उठाए थे। उन्होंने लिखा था कि अकबर को ‘महान’ विशेषण से अलंकृत करने वाले इतिहासकारों एवं इस झूठ को दस्तावेज के रूप में अब भी प्रचारित एवं प्रसारित करने वाले विद्वानों से मेरे कुछ प्रश्न हैं। पहला – क्या वह महान इसलिए था कि ‘हरम’ में जाता था, और एक से अधिक विवश नारियों से सम्बंध बनाता था ? दूसरा – क्या वह ‘मीना’ बाज़ार नहीं लगवाता था ? क्या मीना बाज़ार लगवाना महानता का परिचायक है ? तीसरा – क्या वह प्रलोभन द्वारा धर्मांतरण नहीं करवाता था ? चौथा – क्या वह छल, छद्म एवं पाखण्ड का सहारा नहीं लेता था ? पांचवा – क्या वह पवित्र क्षत्राणियों को जौहर व्रत के अंतर्गत सती होने के लिए विवश नहीं करता था ? छठा – क्या उस दीन-ए- इलाही स्वयं इस्लाम के वसूलों के विपरीत नहीं था ?और सातवां – क्या उसका सम्पूर्ण आचरण घिनौना, क्रूर तथा दानवीय नहीं था ?
कर्नल टॉड की प्रसिद्ध पुस्तक “एनल्स एंड एंटीक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान” के हिन्दी अनुवाद को इन पंक्तियों को देखें।
“अरावली की पर्वतमाला में एक भी घाटी ऐसी नहीं है,
जो राणा प्रताप के पुण्य कर्म से पवित्र नहीं हुई हो,
चाहे वहां उनकी विजय हुई या यशस्वी पराजय ”
राजस्थान की महादेवियों का महासतित्व और महाराणा का शौर्य ही भारत के अस्तित्व को बचा पाया है।
महाराणा प्रताप ने मातृभूमि की रक्षा के लिए मुगलों को कड़ी टक्कर दी थी। वह कभी हारे नहीं। वह हारते भी तो कैसे उनके साथ उनका प्रिय चेतक जो था। चेतक उनका प्रिय घोड़ा था। आपने बचपन में दो कविताएं जरूर सुनी होंगी। ये कविताएं हैं महाराणा प्रताप की तलवार और चेतक पर। इसके रचयिता वीर रस के कवि श्यामनारायण पांडेय हैं। कविता पढ़ें
राणा प्रताप की तलवार
चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट काट,
करता था सफल जवानी को।।
कलकल बहती थी रणगंगा,
अरिदल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी,
चटपट उस पार लगाने को।।
वैरी दल को ललकार गिरी,
वह नागिन सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो बचो,
तलवार गिरी तलवार गिरी।।
पैदल, हयदल, गजदल में,
छप छप करती वह निकल गई।
क्षण कहाँ गई कुछ पता न फिर,
देखो चम-चम वह निकल गई।।
क्षण इधर गई क्षण उधर गई,
क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई।
था प्रलय चमकती जिधर गई,
क्षण शोर हो गया किधर गई।।
लहराती थी सिर काट काट,
बलखाती थी भू पाट पाट।
बिखराती अवयव बाट बाट,
तनती थी लोहू चाट चाट।।
क्षण भीषण हलचल मचा मचा,
राणा कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह,
रण-चंडी जीभ पसार बढ़ी।।
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